एड्रिेएन रिच की कविता ‘पेड़’

एड्रिएन रिच का जन्म 1929 में बाल्टीमोर, मैरीलैंड, यू.एस.ए. में हुआ था। वह लगभग बीस काव्य संग्रहों की लेखिका हैं और उन्हें एक नारीवादी और क्रांतिकारी कवयित्री कहा जाता है। पेड़ एक बिम्बों से सजी बहुत गहरी सिंबॉलिक कविता है। कवयित्री ने घर, पेड़ और जंगल तीन प्रतीक लिए हैं। घर समाज है, जहां स्त्री और पुरुष एक साथ रहना चाहिए। पेड़ सुंदरता, रमणीकता, मधुरता, छाया, आश्रय और पुनरुत्थान का सिंबल हैं। जंगल पुरुषों का सिंबल है। उनका निधन 2012 में हुआ।

(हमारी कोशिश होगी कि अनुवाद के साथ मूल कविता भी दें ताकि पाठक उसका भी आनंद ले सकें। )

 

पेड़

एड्रिएन रिच 

 

घर के अंदर के पेड़ बाहर जंगल की ओर बढ़ रहे हैं,

वो जंगल जो इन दिनों सूना पड़ा था

जहां कोई पक्षी नहीं बैठ सकता था

कोई कीट छिप नहीं सकता था

कोई सूरज अपने पैर छाया में नहीं छिपा सकता था

वो जंगल जो इन रातों तक खाली था

सुबह होते-होते पेड़ों से भर जाएगा।

सारी रात जड़ें काम करती रहीं

खुद को बरामदे के फर्श की दरारों से अलग करने में।

पत्तियां खिड़कियों के कांच की ओर खिंचती हैं

छोटी-छोटी टहनियाँ मेहनत से अकड़ जाती हैं

लंबे समय से जकड़ी हुई शाखाएँ छत के नीचे हिलती हैं

जैसे अभी अभी डिस्चार्ज हुआ मदहोश मरीज

क्लिनिक के दरवाजों की ओर चल रहा हो

मैं अंदर बैठी हूँ, दरवाजे बरामदे की ओर खुले हैं

लम्बी चौड़ी चिट्ठियां लिखते हुए

जिनमें मैं बमुश्किल से ही जिक्र करती हूँ

जंगल के घर से जाने का।

रात नई नई है, पूनम का चाँद चमक रहा है

उस आकाश में जो अभी अभी खुला है

पत्तियों और काई की महक

अब भी कमरे में आवाज़ की तरह पहुँचती है।

 

मेरा सिर सरगोशियों से भरा हुआ है

जो कल चुप हो जायेगा

सुनो! कांच टूट रहा है।

पेड़ लड़खड़ाते हुए रात में बढ़ रहे हैं

हवाएं उनसे मिलने के लिए दौड़ रही हैं।

चाँद टूट गया है, जैसे एक आईना,

इसके टुकड़े अब सबसे ऊँचे बलूत की चोटी में चमक रहे हैं

अनुवाद: दीपक वोहरा

Original language poem

 

THE TREES

by Adrienne Rich

 

The trees inside are moving out into the forest,

the forest that was empty all these days

where no bird could sit

no insect hide

no sun bury its feet in shadow

the forest that was empty all these nights

will be full of trees by morning.

All night the roots work

to disengage themselves from the cracks

in the veranda floor.

The leaves strain toward the glass

small twigs stiff with exertion

long-cramped boughs shuffling under the roof

like newly discharged patients

half-dazed, moving

to the clinic doors.

I sit inside, doors open to the veranda

writing long letters

in which I scarcely mention the departure

of the forest from the house.

The night is fresh, the whole moon shines

in a sky still open

the smell of leaves and lichen

still reaches like a voice into the rooms.

My head is full of whispers

which tomorrow will be silent.

Listen. The glass is breaking.

The trees are stumbling forward

into the night. Winds rush to meet them.

The moon is broken like a mirror,

its pieces flash now in the crown

of the tallest oak.