गली का एक कुत्ते का बच्चा
एक स्मृति, जो मृत्यु से परे जाकर भी जीवित है
एस.पी.सिंह
1947 का वह साल—जिसे इतिहास ने विभाजन कहा, पर मेरे बालपन ने बस एक अधूरी खिलौनों की गली की तरह देखा था। मैं तब पाँच या छह बरस का था—इतना छोटा कि जीवन मेरे लिए केवल एक गुलेल, कुछ अधपकी रोटियाँ, और आँगन में दोस्तों की हँसी भर था।
उसी दिनों की एक दोपहरी थी—धूल सुनहरी थी, नीम की छाँव में हवा बूँदों की तरह गिर रही थी। तभी एक कुत्ते का बच्चा—पीले रंग का, दुबला-पतला, पर आँखों में स्नेह का सूरज लिए—गली के मोड़ से हमारे आँगन में आ गया। माँ ने पहले उसे भगाया, पर मैंने अपने बचे हुए दूध में रोटी डुबोकर उसके आगे रख दी। उसी क्षण, शायद, मैंने मित्रता के पहले अध्याय पर हस्ताक्षर कर दिए थे।
धीरे-धीरे वह मेरे हर खेल का हिस्सा बन गया—कंचे, लट्टू, पतंग, सबमें उसका नाम जुड़ गया। जब वह दौड़ते-दौड़ते गिर पड़ता, मैं उसके पैरों को सहलाता। मैं बड़ा होता गया, वह भी बढ़ता गया—अपने प्रेम और वफ़ादारी के साथ। वह अब घर का सदस्य था—सुबह की रोटी का पहला टुकड़ा उसी का होता, और शाम की दहलीज़ उसकी प्रतीक्षा करती।
साल बीतते गए। बचपन बीत गया, पर वह कुत्ते का बच्चा अब एक शांत, संयमी और विश्वासयोग्य साथी बन चुका था। पंद्रह-बीस बरसों तक वह हमारे साथ रहा—हर खुशी में, हर मौसम में। फिर उसकी चाल धीमी पड़ने लगी, आँखों की चमक मद्धम हो गई, और वह अक्सर आँगन के किसी कोने में चुपचाप लेटने लगा।
एक साँझ थी—हवा में हल्की ठंडक थी, और धूप की सुनहरी परतें मिट्टी में उतर रही थीं। तभी ताऊ ने पुकारा—
“ओए मुन्ने, अंदर जा, गीता ले आ।”
मैं भागकर अलमारी से पंजाबी में छपी श्रीमद्भगवद्गीता दा टीका-संस्करण निकाल लाया। ताऊ ने गंगा-जल का लोटा पास रखा और कहा—
“अठारवां अध्याय पढ़, मुक्ती दा रस्ता एहदा नाल खुलदा ऐ।”
मैंने पन्ने पलटे और पढ़ना शुरू किया—
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।”
(अठारहवां अध्याय, श्लोक 47)
“अपने धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, पराये धर्म में भय ही भय है।”
मैं पढ़ता गया—और वह कुत्ते का बच्चा, जो अब वृद्ध हो चुका था, वहीं मिट्टी पर लेटा मेरी आवाज़ सुनता रहा। उसकी आँखें जैसे ताऊ की गंभीरता और गीता के शब्दों को एक साथ पी रही थीं।
थोड़ी देर बाद उसकी साँसें थम गईं।
पर मुझे लगा—वह कहीं गया नहीं, बस हवा की तरह हल्का होकर उसी आँगन में ठहर गया।
आज, इतने वर्षों बाद जब मैं यह लिख रहा हूँ, तब समझ पा रहा हूँ—गीता का वह अठारहवाँ अध्याय केवल मनुष्यों के लिए नहीं, हर उस जीव के लिए है जो अपने “स्वधर्म”—अपने स्वभाव—में जीता है। वह कुत्ते का बच्चा भी तो यही करता रहा—न काटा, न छल किया, न दिखावा किया—बस, प्रेम किया।
ताऊ कहा करते थे—“जिसने अपना धर्म निभा लिया, वही मुक्त है।”
शायद इसलिए, उस दिन जब उसकी साँस थमी, मुझे भय नहीं हुआ—बस एक मौन उतरा, जो आज तक भीतर बोलता है।
और जब भी गली में कोई कुत्ता दिखता है, लगता है—वह लौट आया है, यह कहने कि मुक्ति किताबों से नहीं, करुणा से मिलती है।
— एक आत्मस्मृति, जो बालपन, विभाजन और गीता के श्लोक से आगे जाती है; वहाँ तक, जहाँ शब्द नहीं, केवल मौन है।
