कटिहार-अमृतसर एक्सप्रेस में एक यात्रा

अजय शुक्ला

सवाल है कि बिहार के गरीब आदमी के कष्ट कब मिटेंगे?सरल सा जवाब है, जब वह चाहेगा। मगर उसने तो मान लिया है कि उसके अंदर दुख, अपमान और गलाज़त सहने की अंतहीन क्षमता है। सबसे बड़े बिहारी बाबू अशोक ने बुद्ध को अपना लिया और अपने सद्कर्मों के प्रचार के लिए शिलालेखों के काम में मस्त हो गए। दूसरी ओर उनकी प्रजा चत्वारि आर्य सत्यानि के पहले सत्य यानी दुख के आगे यह जान ही नहीं पाई कि कष्ट से निजात पाने का मार्ग भी है।  उसी अशोक के बनवाई जीटी रोड पर हांफते-भागते बिहारी को ज़रा ध्यान से देखना। लगेगा, चेहरे पर मुस्कान रह-रह कर सिसक रही है। मैं जो दास्तान सुनाने जा रहा हूं वह दो दशक से भी पुरानी है। जनरल बोगी की यात्रा अब और भयावह हो गई है। तो सुनें:

……………

किस्सा अप्रैल, 2001 का है। तब कटिहार-अमृतसर एक्सप्रेस का नम्बर 5707/5708 हुआ करता था। उन दिनों मैं जालंधर के एक अखबार में काम करता था। प्राइवेट नौकरी, नाईट ड्यूटी। और, तिस पर अंडर स्टाफिंग। घर यानी नौ सौ किमी दूर कानपुर जाने का मौका कब मिलेगा पता नहीं होता था। यह समझिए कि छुट्टी की स्थायी अर्ज़ी लगी रहती थी। बॉस को जब खुशी होती तो रात एक-दो बज़े चंद दिनों की छुट्टी दे देता।

इस हालत में मैं एक भी दिन नष्ट किए बिना तड़के जालंधर रेलवे स्टेशन को भागता। बिना आरक्षण। मेरी ट्रेन होती थी वही कटिहार-अमृतसर। छूटती थी आठ बजे।

जनरल बोगी में यात्रा के लिए मैंने खूब तैयारी की। खूब अच्छे कपड़े पहने। अलग दिखने के लिए। कपड़ों पर खशबू भी उड़ेली और ट्रेन आने के एक घण्टा पहले स्टेशन पहुंच गया। वहां सबसे पहले मैंने सिडनी शेल्डन का नॉवेल खरीदा ताकि10-11 घंटे कट जाएं।

ट्रेन के आते ही सरदारों के बीच कनपुरिया स्टाइल अपनाते हुए मैंने सिंगल सीट विंडो पर कब्ज़ा कर लिया।

डिब्बा भर गया पर कोई रेलमपेल न थी। ज़्यादातर लोग नौकरीपेशा डेली पैसेंजर थे। जालंधर और लुधियाना के बीच यात्रा करने वाले।

लुधियाना में खूब जगह हो जाएगी! मैंने खुश होकर किताब खोल ली। धर्मेंद्र के गांव साहनेवाल होते हुए गड्डी कब लुधियाना लग गई मैं जान ही नहीं पाया। होश तब आया जब मेरे घुटनों पर सामने वाले मुसाफिर के घुटने गड़ने लगे। मैंने नज़र उठाई। सामने तीन ‘भइया’ बैठे थे। दाहिनी ओर गैलरी आदमियों और गठरियों से अंटी पड़ी थी। एक आदमी सिर पर बोरा लिए इशारा कर रहा था कि मैं पांव उठा लूं तकि वह दो सीटों के बीच की जगह में अपना बोझ रख सके। मेरी पीढ़ियों से वातानुकूलित कुलीनता उबलने लगी। तभी मेरी नज़र उस आदमी के पांव पर पड़ी। वेरिकोज़ वेन्स से ग्रस्त उसकी टांगें भार के कारण थरथर कांप रही थीं। मेरा मन पिघला। मेरा बरसों सद्साहित्य पढ़ना उस गरीब के काम आया। मैंने घुटने मोड़ कर पांव सीट पर रख लिए। तब तक बोरे पर सात या आठ साल का बच्चा बैठ चुका था।

अभी ट्रेन चली नहीं थी। गरमी शबाब पर थी और ओवरपैक डिब्बे में हवा आने की कोई गुंजाइश नहीं। मुसाफिरों के शरीर के छोटे बड़े रंध्रो से निकल रही द्रवीभूत और गैसीभूत बदबू  वातावरण में घुल रही थी। तभी साममे वाले लड़कों ने झालमूड़ी निकाल ली। मैं बुरी तरह प्यासा था। उबकाई आने लगी। मैंने देखा कि मुसाफिर सामान सेट करने के बाद सामान्य हो चुके थे। गप्पें होने लगी थीं। कहीं बज्जिका सुनाई द रही थी तो कहीं छपरा वाली भोजपुरी। मैथिल, अंगिका भी सुनाई दे रही थी और पुरैनिया की बांगला मिश्रित बोली।

बाप रे बाप!! इत्ता बड़ा बिहार। सिर्फ उत्तर बिहार। नन्हे से डिब्बे में समा गया था। और बास मार रहा था।

ट्रेन चल दी थी और हवा किसी तरह अंदर आने का रास्ता बना पा रही थी। उपन्यास पढ़ने की कोई गुंजाइश न बची थी। हां उसका और अच्छे कपड़ों का एक असर था कि मेरी सीट पर मैं अकेला था, हालांकि उकडूं।

ट्रेन खन्ना और राजपुरा क्रॉस कर हरियाणा की सीमा में प्रवेश कर रही थी। तभी डिब्बे के भीतर से मरणांतक पीड़ा से भरा चीत्कार सुनाई दिया। एक मर्दानी मगर बूढ़ी आवाज़ में कोई चीख रहा था, मुआ देलस रे..मुआ देलस रे (मार डाला, मार डाला)। इसी के साथ लाठी चलने की आवाज़ भी सुनाई देने लगी। मैं उठकर देखने की स्थिति में नहीं था। मैंने सामने मूढ़ी खाते लड़कों से उठकर देखने को कहा। वे नहीं हिले। मूढ़ी खाते रहे।

आर्तनाद और लाठी की चटकार बढ़ती जा रही थी। मेरे अंदर का भला मानस, बुरा कानपुर और सहाफी एक साथ उबल पड़ा: कउन है बे माxxx!! में पूरी ताकत लगा कर हुमक के उठा। भीड़ ने मुझे स्पॉट पर जाने का रास्ता दे दिया। मैं उस तरफ बढ़ चला। तड़ाक-तड़ाक। लाठी की आवाज़ फिर सुनाई दी और उसी के साथ रोता-कलपता स्वर…साहिब सब कुछ ले लो बस मारो नहीं।..

मैं अब घटनास्थल पर था। एक 50 साल का काला-सा आदमी गर्भस्थ शिशु की पोजीशन में पड़ा बिलबिला रहा था। वह मैली सी बंडी और ग्रीज़-तेल में सनी लुंगी पहने था। उसने एक हाथ से कमर पर लुंगी की टेंट को दबोच रखा था। उसके सिर से खून बह रहा था और वह फ़टी-फ़टी आंखों से यमराज की मानिंद खड़े हरियाणा पुलिस के कॉन्स्टेबल को देख रहा था। मुझको आता देख सिपाही थम सा गया था। थोड़ा चकित था क्योंकि उसे उस डिब्बे में मेरे जैसे आदमी के मिलने की कोई उम्मीद न थी। मैंने आवाज़ में गुरुता भरकर सवाल किया, “क्या कर रहे हैं, दिवान साहब।”

“आपसे मतलब!!” इतना कहके सिपाही बैठ गया और उस आदमी के हाथ को लुंगी की टेंट से हटाने लगा। गरीब आदमी ने टेंट को मजबूती से दबोच रखा था।

“इस आदमी की टेंट से पैसे छीन रहे हो” मेरा क्रोध बढ़ रहा था। बोला, “तुम्हारे एसपी से शिकायत कर दूंगा..सब बहादुरी निकल जाएगी!!”

“कौन हैं आप?” उसकी आवाज़ से पुलिसिया हनक गायब हो गई थी। वह गरीब आदमी को छोड़ कर उठ खड़ा हुआ।

मैंने उसकी आँखों के सामने अपना कार्ड चमका दिया। जवाब में वह मिठास भरकर शिकायती लहज़े में बोला, “यह चरस-गांजे का धंधेबाज़ है। मुझे पक्का विश्वास है कि इसकी टेंट में चरस की बड़ी गोट है।”

मैं उस बदहाल बिहारी को देख रहा था। पिचका हुआ पेट और बमुश्किल तमाम 40 किलो वजन। मैंने हंसकर कहा, “दिवान साहब, इसने शायद कई दिन से रोटी भी न खाई हो..चरस के तस्कर ऐसे होते हैं क्या?”

इस बीच ट्रेन धीमी होकर रुक सी रही थी। सिपाही यह कहते हुए दरवाज़े की तरफ चला गया कि सहाफी और सिपाही भाई-भाई होते हैं। दोनों समाज के भले के लिए काम करते हैं। ट्रेन रुक गई थी। सिपाही ने मेरी तरफ़ देखा। जयहिंद का सलाम उछाला और उतर गया।

सफलता से झूमता मैं अपनी सीट पर आ गया। ट्रेन फिर चल दी थी और सारे मुसाफिर मुझे श्रद्धा से निहार रहे थे। मेरी छाती गर्व से फूल रही थी। फटेहालों का नायक!!

मैं सहसा वोकल हो उठा…तुम लोग लड़ते क्यों नहीं..पूरे डिब्बे में तुम डेढ़ सौ लोग हो..उस सिपाही की क्या औकात..अगर दारा सिंह भी यहां आ जाएं तो तुम उसकी तिक्का-बोटी कर डालो..।

मेरा लेक्चर रुकने का नाम नहीं ले रहा था। विराम तब लगा जब गाड़ी अम्बाला स्टेशन पर रुकी। चाय, पूड़ी, छोले आदि का शोर मचने लगा। मैं बाहर का मंज़र देखने लगा। तभी देखा कि खिड़की के बाहर वही दिवान जी एक झोला लिए खड़े हैं। मेरी खिड़की इमरजेंसी एग्जिट वाली थी, जिसकी ग्रिल को पूरा उठाया जा सकता है। दिवान जी ने एक मुसाफिर से ग्रिल उठाने को कहा। ग्रिल उठा और दिवान जी ने झोला मेरी गोद मे रख दिया और जल्दी-जल्दी चले गए।

मैंने झोले का सामान बाहर निकाला। खानेपीने का सामान था। छोले, कुलचे, दही, रबड़ी, एक रेलनीर और एक कोल्ड्रिंक। इसके अलावा कागज़ के एक पाउच और था। मैंने खोला तो उसमें एक डेबोनेयर और एक हिंदी की अश्लीलतम स्तर की किताब थी।

मैंने सिपाही से पिटने वाले आदमी को बुलाया और खानेपीने का सारा सामान दे दिया। जाने लगा तो मैंने रोककर पूछा कि क्या छिपा रहा था। उसने जवाब में टेंट उलट कर दिखा दी। सौ का एक गुड़मुड़ाया नोट था बस। उसने बताया कि तीन सौ रुपए बण्डी की जेब में थे। उन्हें पुलिस वाले ने पहले ही निकाल लिया था। मारपीट लुंगी की टेंट में रखे सौ के नोट के लिए थी। उस गरीब ने जान की बाज़ी लगाकर सौ रुपए बचा लिए थे। वह मुस्कुरा रहा था।

ट्रेन भागती रही। स्टेशन गुज़रते रहे। मैं थोड़ा उनींदा हो गया था। सोनीपत में एक बार नींद टूटी लेकिन फिर से ऊंघने लगा। कुछ देर  बाद नींद टूटी तो देखा ट्रेन मंडी से गुज़र रही है। इसी के साथ डिब्बे के एक छोर से आने लगी सुबकने की आवाज़, जो तेज़ होती गई। आखिरकार मुझे इंटरेस्ट लेना पड़ा। वह आदमी मेरे सामने लाया गया। उसने अपनी बक्सा मेरे सामने खोल दी और बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा।

“साहब, सारा पोइशा ले गया।”

“कौन?”

“एक सिपाही”

“कब, कहां.. किस स्टेशन पर?”

” वह तभी आ गया था जब गाड़ी लुधियाना से खुली थी”

“फिर क्या हुआ?”

“वह सबका बक्सा खुलवा कर देख रहा था, उसने पहले एक बक्सा खुलवाया। फिर दूसरा नम्बर मेरा था”

“तो?”

“मैंने इनकार कर दिया। इस पर वह मुझे बक्से समेत टॉयलेट में खींच ले गया। दरवाज़ा बन्द कर उसने मेरी छाती पर बंदूक अड़ा दी। बोला-अब खोल। मैंने ताला खोला। भीतर 5000 रुपए रखे थे। उसने रकम जेब में डाल ली और संडास का दरवाजा खोल कर चला गया।”

“तुमने बाहर निकल कर शोर क्यों नहीं मचाया तुरन्त” मैंने पूछा, ” और, अब इतनी दूर बाद क्यों रो रहे हो?

लईक नाम का किशनगंज निवासी यह भोला आदमी अपनी बांग्ला मिश्रित बोली में बोला, ” शिपाही हाथे बोन्दूक था। बोला, दिल्ली के पहले शोर मचाया तो मैं वापस आकर बोन्दूक से भून दूंगा।”

ट्रेन दिल्ली स्टेशन के अंदर प्रवेश कर रही थी। लईक बेसाख्ता रोए जा रहा था।

पुरानी दिल्ली

…………….

ट्रेन बस रुकी ही थी कि कोच के दोनों छोरों में कोलाहल मच गया। मारपीट और गाली-गलौज। मेरी सीट कोच के मध्य में थी। इस बार मुझे उत्सुकता व्यक्त करने की ज़रूरत ही न पड़ी। क्योंकि दोनों छोरों से भीड़ का रेला और मारपीट करने वाले 10-12 सेकंड में मेरी ही तरफ आ गए थे।

“सीट खाली कर…” पीटने वाले पश्चिमी यूपी की सीधी, खुरदरी एवं खड़ी बोली का इस्तेमाल कर रहे थे। निवेदन को असरदार बनाने के लिए मा, बहन, नानी जैसे शब्दों का खुल कर इस्तेमाल हो रहा था। इनके बेअसर रहने पर। थप्पड़, घूंसा और दोफिटे रूलर भी चल रहा था। ऊपर की सीट पर बैठे किसी लड़के ने हिम्मत दिखाई तो उसे सर के बाल पकड़ कर नीचे फेंका जा रहा था।

आततायी 12-14 से अधिक नहीं थे लेकिन कमर्शियल सामान के पैकेट बहुत ज़्यादा थे। ट्रेन खुलने से पहले ही सीटों पर पहले से बैठे पचासों लोग सिर झुका कर खड़े हो गए थे। उनकी सीटों पर या तो गुंडे बैठे थे या उनका समान रखा था। मेरी अपनी सीट सुरक्षित थी। मेरा लिबास, बोलने का लहज़ा और गोद में पड़ा अंग्रेजी की किताब मुझे बचा रही थी। एक बार एक गुंडे की आंखों से मेरी नज़र टकराई भी। मैंने इशारे में पूछा भी कि क्या मैं भी सीट खाली कर दूं तो उसने सज्जनता से हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “नहीं सर, आप तो अपने साथ के हो, बड़े भाई हो।” गुंडे की इस भलमनसाहत के चलते मैंने सामने बैठे छपरा के तीन मज़दूरों की सीट बचा ली थी। जालन्धर से साथ-साथ आ रहे थे ये तीनों। दोस्ती सी हो गई थी।

ट्रेन चल पड़ी थी। गुंडे भाई सेटल हो चुके थे। भइया बिरादरी को कोई परेशानी नहीं थी। जिनकी सीट बची थी वे बैठे थे और जो खड़े थे, वे भी गपियाने में मशगूल हो चुके थे। इसी को तो कहते हैं स्थतिप्रज्ञता!!

मैं खिड़की से बाहर झांकने लगा। शाहदरा..साहिबाबाद, ग़ाज़ियाबाद.. दादरी गुज़रते जा रहे थे। मैं ढलती शाम का लुत्फ ले रहा था। इधर, गुंडे भाई ताश की गड्डी निकाल चुके थे। मैं उन्हें देखने लगा। कटपत्ता खेल रहे थे। तभी एक गुंडे ने आवाज़ लगाई, “अरे चच्चा, दो पैसा तू भी कमा ले…आ जाओ, इधर..हम संभाल लेंगे।”

थोड़ी देर में चच्चा नमूदार हो गए। 60 पार की उम्र। बकरा दाढ़ी। लम्बी मटमैली क़मीज़ और उतना ही गंदला अलीगढ़ी पाजामा.. पांयचे एड़ी से छह इंच ऊपर। उनके हाथ में एक झोला था, जिसमें से उन्होंने लिफाफा निकाला और मज़मेबाज़ों की स्टाइल में बोलने लगे, “भाइयो-बहनो, सिर्फ बीस रुपए.. सिर्फ बीस रुपए है कीमत इसकी और इसके अंदर रखा है खज़ाना: एक आईना, एक कंघी, एक डॉटपेन और हाज़मे वाली हींग की गोली।”

यह सारा सामान बीस साल पहले 4 या 6 रुपए में खरीदा जा सकता था। आईना वही था दो इंच व्यास वाला जिसे मदारी का बन्दर रखता है। कंघी, पांच इंची। डॉटपेन अठन्नी वाला और हींग गोली भी चवन्नी वाली।

इस बीच चच्चा खामोश हो चुके थे और  झोला एक 16 साल के किशोर को थमाया जा चुका था। यह लड़का कागज़ के ये पाउच एक-एक कर हर मुसाफिर को थमाए जा रहा था। कोई आनाकानी करे, उससे पहले लड़का आगे बढ़ जा रहा था। वैसे आनाकानी करने की हिम्मत किसी में बची भी नहीं थी। शायद इसी मकसद के साथ ही वे पीटे गए थे!

झोले वाला लड़का शनैःशनैः मेरी सीट के निकट आ रहा था। मैं कनखियों से देख रहा था और डर रहा था। जान चुका था कि कनपुरियों द्वारा ईजाद की गई लूट की पद्धति टप्पेबाज़ी का यह अलीगढ़ी संस्करण है। मुझे विश्वास था कि अगर मैंने विरोध किया तो कुटाई पक्की है। आखिर, टप्पेबाजों की रोज़ी का सवाल था। मुझे हथेलियों में नमी महसूस हो रही थी। मेरे मन के महासागर में गांधी और भगत सिंह की बहादुरी तथा आदमी के अंदर आत्मरक्षा के लिए ईश्वरप्रदत्त, इनबिल्ट कायरता एक साथ हिलोरें मार रही थी।

सहसा मैं चौंक पड़ा। किसी ने मेरे घुटने पर ठकठक की थी। देखा तो सामने छपरा वाला मज़दूर मुखातिब था।”ज़रा सुनीं… ” वह बड़ी धीमी आवाज़ में बोला कि कोई और न सुन पाए।

“का बा?” मैंने पूछा।

“हमरा का ई पुड़िया न चाही।”

इसके बाद तो मैं उस स्थिति में आ गया था, जिसमे हीरो को कहना पड़ता है कि एक बार कमिटमेंट कर लिया तो फिर मैं अपनी भी नहीं सुनता। मैं क्या करता? गोस्वामी जी मेरे कान में लगातार गा रहे थे

…शरणागत का जे तजहिं निज अनहित अनुमान…ते नर पांवर पापमय तिनहि बिलोकति हानि..।

मैंने एक लंबी सांस खींची..गोस्वामी जी फिर गुनगुनाए..

सौरज धीरज तेहि रथ चाका/सत्यशील दृढ़ ध्वजापताका

“परेशान न हो।” मैंने छपरा वाले को अभयदान दे दिया। इस बीच वह लड़का उसकी गोद में पाउच डाल कर आगे बढ़ गया था। बहरहाल, मुझे बख्श दिया गया था। मुझे इससे बड़ा बल मिला।

अब तक पाउच बंट चुके थे। टप्पेबाज़ी का बस अंतिम चरण बाकी था। इसके लिए बलिष्ठ शरीर के दो बदमाश निकले और पाउच की कीमत वसूलने में जुट गए।

“बीस रुपए…बीस रुपए..बीस रुपए।” एक गुंडा बोलता जा रहा था। लोग बिना हीलहुज्जत के रकम निकलते जा रहे थे। सिर्फ दो ने नानुकुर की तो एक घूंसे, दो लप्पड़ में ढीले हो गए।

वसूली टीम अब मेरे पास आ रही थी। मेरी धुकधुकी बढ़ रही थी। शरणागत की और अपने सम्मान की रक्षा करनी थी। मैंने पूरी तैयारी कर रखी थी।

वसूली टीम छपरा वाले मज़दूर के सामने आ चुकी थी। वह गुंडों को बिसूरने लगा। “अबे, मा के xxx टुकुर-टुकुर क्या देख रहा है..चल निकाल बीस रुपए।”

“साहब की तरफ क्यों देखता है रे, वो क्या करेंगे तेरा।” गुंडों ने उसे हड़काते हुए एक नज़र मेरे चेहरे पर भी डाली।

यह आंखों के ज़रिए ताल ठोकने जैसा था। अब रुक पाना सम्भव नहीं था। मैं बोला, “यह लड़का आपका सामान नहीं खरीदना चाहता।”

“तू कैसे जानता है?”  गुंडे अब मेरी तरफ मुड़ चुके थे। “मुझको मालूम है”

“कर साबित…नहीं तो तेरी साहबी अभी घुसेड़ दूंगा।”

मैंने वह पाउच उस मज़दूर से ले लिया। फिर मज़दूर से बोला,”बताओ, तुम्हे यह चाहिए कि नहीं।”

“नहीं चाही, नहीं चाही, नही” मज़दूर हिम्मत दिखा रहा था।

मैंने गुंडों से कहा, अब बोलो?

तू इस लफड़े में न पड़, गुंडे मुझे समझाने लगे। पर मैं नहीं माना। वे भी नहीं माने। उनकी ज़िद थी कि पाउच वापस मज़दूर को दे दूं।

“पाउच बीस रुपए का ही है न?” मैंने यह सवाल गुंडों की तरफ उछाला और साथ ही उस पाउच को चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया।

गुंडे हक्का बक्का थे। पर मैंने उन्हें रीएक्शन का मौका ही नहीं दिया। मैंने एक हाथ में 20 का नोट पहले से थाम रखा था। मैंने वह नोट गुंडों को थमा दिया। गुंडों के चेहरे पर विचित्र से भाव थे। शायद वे तय नहीं कर पा रहे थे कि वे जीते हैं या हारे। दरअसल, जानता तो मैं भी नहीं था कि ये हार है या जीत।

इस बीच ट्रेन अलीगढ़ के आउटर पर खड़ी हो गई थी। गुंडे भाई वहीं उतर रहे थे। और मज़दूर भाई उन सीटों पर दोबारा काबिज हो रहे थे, दिल्ली में छीन ली गई थीं। सामने वाला छपरैया मज़दूर मुझे कृतज्ञ भाव से देख रहा था। कुछ मज़दूर आपस में बात कर रहे थे..अब बस एक ही बैरियर है कानपुर का। उसके बाद गुंडे नहीं मिलेंगे।

कानपुर में मैं उतर गया। नहीं जान पाया कि मेरे शहर के गुंडों ने इन भोलेभाले लोगों को कैसे लूटा।

चलते चलते इतना और बता दूं कि एक माह बाद मैंने इसी ट्रेन की जनरल बोगी से फिर यात्रा की थी। मैं इन श्रमिकों को लड़ने के लिए प्रेरित करता रहा। वे नहीं लड़े और लुटते पिटते रहे। काश ऐसा नहीं होता।


लेखक परिचयः

अजय शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई राष्ट्रीय अखबारों में काम कर चुके हैं। मन की तसल्ली के लिए कविताएं और कहानियां लिखते हैं। समाज में व्याप्त असमानता और अन्याय जब कचोटता है तो लेखनी चल पड़ती है। यहां उन्होंने एक यात्रा संस्मरण लिखा है। जालंधर में अमर उजाला समाचार पत्र में नौकरी के दौरान एक याज्ञा ने उनको इतना परेशान किया कि उन्हें उस यात्रा का वर्णन जरूरी लगा। उनकी इस रचना  को आप पढ़ें और उस पर अपनी  राय से भी अवगत कराएं। संपादक

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