मनजीत मानवी की एक ग़ज़ल

मनजीत मानवी की एक ग़ज़ल

 

है शुक्र कि चाँद तारों का , मज़हब नहीं कोई

सियासी मीज़ान वरना,  इनको भी बाँट लेता

 

है शुक्र कि हवाएँ , न सियाह न कफूरी

नस्ली कमान वरना,  इनको भी काट देता

 

है शुक्र कि ये बादल न शूद्र हैं न पंडित

मनु का तीर वरना, इनके भी पार होता

 

है शुक्र कि ये सागर मुस्लमान न ईसाई

लहरों पर भी वरना,  केसरिया वार होता

 

है शुक्र प्रीत का रंग, हर रंग से है गाढ़ा

तफ़रीक न माने कोई, जज़्बा दीवानगी का

 

है शुक्र कि हैं सजते, ख्वाबों के रोज़ मेले

कायम अभी दिलों में, डेरा है रोशनी का

 

वो लाख लूटे ईमां, वो लाख बाँटे इंसा

पर तोड़ न सकेगा, विश्वास आदमी का !

 

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