कुर्बानी का जज्बा विरासत में मिला – सुरेन्द्र कौर

हरियाणाः  जूझते जुझारू लोग-41

कुर्बानी का जज्बा विरासत में मिला – सुरेन्द्र कौर

कुरुक्षेत्र जिले और हरियाणा राज्य के नामचीन कम्युनिस्ट नेता डा. हरनाम सिंह की बेटी सुरेन्द्र कौर बहुत थोड़े समय के लिए अतिथि शिक्षक के रूप में सरकारी सेवा में रहीं, लेकिन उनका योगदान कुछ इस प्रकार का रहा कि वे “जूझते जुझारू लोग” के तहत गिनती के सुपात्रों की अगली श्रेणी में  हैं।

सन् 1947 में विभाजन के समय ननकाना साहब पाकिस्तान से भारत में उस समय के शाहाबाद, तहसील थानेसर,जिला करनाल,पंजाब (अब जिला कुरुक्षेत्र, हरियाणा राज्य) में आकर बसे हरनाम सिंह के यहाँ 19 अप्रैल 1951 को सुरेन्द्र कौर का जन्म हुआ। माता श्रीमती जसवंत कौर व पिता डॉक्टर हरनाम सिंह की चार बेटियों व दो बेटों में ये दूसरे नंबर की हैं। इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा गुरु नानक प्रीतम गर्ल्स हाई स्कूल, शाहबाद से पास की है। उसके बाद कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से बी.एड. तथा इतिहास व राजनीतिक शास्त्र में एम.ए. किया है।

पारिवारिक माहौल में मेहनतकश वर्ग की चेतना, न्याय के लिए संघर्ष के जज्बे का प्रशिक्षण स्वाभाविक ढंग से हो गया था। सुरेन्द्र कौर भी छात्र जीवन में ए आई एस एफ की गतिविधियों में सक्रिय हो गई थीं। पिताजी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों में ज्यादातर घर से बाहर ही रहते थे। अतः बड़ा संघर्षपूर्ण जीवन रहा। वैचारिक आधार पर ही 1978 में इनकी शादी कामरेड अजमेर सिंह एडवोकेट, गांव कड़कौली, तहसील छछरौली, जिला अंबाला के साथ हुई। सन् 1978 में दम्पति भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से जुड़ गए।

पंजाब में उग्रवाद के समय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता व नेता उनके निशाने पर थे। 9 अप्रैल 1988 को डॉक्टर हरनाम सिंह, जो उस समय शाहाबाद से एम एल ए थे, उनके घर पर उग्रवादियों ने हमला किया, जिसका मुकाबला करते हुए सुरेंद्र कौर के भाई  खुशदेव सिंह, उसकी पत्नी गुरप्रीत कौर व इनके मामा जी का लड़का गुरदीप सिंह पुत्र हीरा सिंह शहीद हो गए। इनकी माताजी जसवंत कौर ने अपनी जान की परवाह न करते हुए एक उग्रवादी को बालों से पकड़ लिया, पूरा ब्रष्ट इनके ऊपर मारा गया, लेकिन छोड़ा नहीं । डॉक्टर साहब को गोली माथे से लगते हुए पास से निकल गई, डरकर उग्रवादी अपने ही आदमी को गोली  से मार कर भाग गए। परिवार की इस भारी कुर्बानी को देखते हुए उस समय के राष्ट्रपति द्वारा परिवार को पांच शौर्य पुरस्कारों द्वारा नवाजा गया था।

छोटे भाई कीरतपाल सिंह हरियाणा पुलिस में डीआईजी के पद से रिटायर हो चुके हैं। सुरेन्द्र कौर व अजमेर सिंह के दो बेटे हैं –  विक्रमजीत सिंह संधू जो कि मर्चेंट नेवी में कैप्टन के पद पर हैं व दूसरा बेटा अजयवीर संधू खेती बाड़ी के काम में लगा हुआ है। इस समय हाउस नंबर 430, सरोजिनी कालोनी यमुनानगर में रहते हैं। इनका घर लगातार संघर्षों और पार्टी के केंद्र के तौर पर रहा है।

सन् 1980 के शुरू में मेरी नियुक्ति एम.एल.एन. हाई स्कूल रादौर में हुई तो रोहतक से कामरेड रघुवीर सिंह हुड्डा ने मुझे कुरुक्षेत्र में कामरेड गुरमेज सिंह व यशपाल और यमुनानगर में मास्टर बलबीर सिंह व अजमेर सिंह से मिलने की सलाह दी थी। तभी से अजमेर सिंह व सुरेंद्र कौर के पास मेरा आना-जाना बना रहा है। कभी-कभी मुझे लगता था कि इनके घर में ही आन्दोलन इस तरह गुंथा हुआ था कि परिवार की निजता के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। कहीं बाहर से देर रात आने पर भी मुझे इनके पास आकर भोजन करने में संकोच नहीं होता था। यद्यपि अब मिलने का अन्तराल लम्बा हो जाता है लेकिन पहले जैसी घनिष्ठता का अहसास बना रहता है।

जब सन् 1987 से सर्वकर्मचारी संघ के संघर्ष का बिगुल बजा तो इनका घर योजनाएं बनाने, उन पर अमल करने और कार्यकर्ताओं के लिए शरणस्थली की तरह उपयोग किया जाने लगा। जाहिर है कि यह सुरेन्द्र कौर की रुचि और योगदान के बिना संभव नहीं हुआ होता। बलदेव सिंह, प्रेम काम्बोज, कुलबीर राठी, कश्मीरी लाल, विनोद त्यागी, सोमनाथ, मैं, जरनैल सिंह, अशोक कोहली आदि कितने ही कार्यकर्ता बेतकल्लुफी से यहां जमा हो जाते थे।

सन् 1993 की हड़ताल में जब सरकार ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी करके और बर्खास्तगी से कर्मचारियों की गतिविधियों को रोक दिया था तब राज्य के उन सैकड़ों साहसी कार्यकर्ताओं में अजमेर सिंह, सुरेन्द्रकौर और मलूकवती राठी भी थे जिन्होंने गिरफ्तारियां दी। उन्हें आन्दोलन का समझौता होने के बाद ही अम्बाला जेल से रिहा किया गया था।

सुरेंद्र कौर ने कुछ समय प्राइवेट स्कूलों में एस.एस. मिस्ट्रेस के तौर पर अध्यापन कार्य भी किया, लेकिन प्राइवेट स्कूलों के भ्रष्टाचार को देखते हुए नौकरी छोड़ दी थी। एक अवसर ऐसा भी आया कि जब जिला शिक्षा अधिकारी अंबाला द्वारा अध्यापक लगाए जाते थे। नियुक्ति के लिए 250 रुपए  मांगे गए लेकिन देने से इन्कार कर दिया । एक मित्र जिसने उस समय रुपए देकर नियुक्ति ली थी ने कहा कि मैं दे देता हूं, लेकिन इन्होंने साफ इनकार कर दिया कि हम रिश्वत नहीं देंगे। जब गेस्ट अध्यापक लगाए गए तब अपनी योग्यता के आधार पर अतिथि शिक्षक पद पर नियुक्त हुई और 58 वर्ष की आयु में 2009 में  रिटायर हुईं।

वे भले ही थोड़े समय के लिए सरकारी सेवा में रही लेकिन उनका यह कार्यकाल अतिथि शिक्षकों के आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण रहा। जब राजरानी की शहादत हुई तो सुरेन्द्र कौर यमुनानगर क्षेत्र में संगठन और संघर्ष को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ और सर्वकर्मचारी संघ में भी पूरी तरह सक्रिय रही।

इनका योगदान आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन, जनवादी महिला समिति, अध्यापक आंदोलन व कर्मचारियों तथा किसान मजदूर को संगठित करने में लगातार रहा। यद्यपि वे अब शारीरिक तौर से काफी बीमार हैं, तब भी उनके दिल में आमजन के प्रति प्रेम है, अन्याय के खिलाफ आक्रोश है और दिल से लड़ाइयों के साथ खड़ी रही हैं और रहती हैं। कामरेड अजमेर सिंह के ऊपर भी बढ़ती आयु का प्रभाव है जिनकी आयु लगभग 78 वर्ष है फिर भी किसान सभा में जिला कमेटी के पदाधिकारी हैं ।

किसान आंदोलन में दोनों सक्रिय रहे। सुरेंद्र कौर अब भी जब थोड़ा सा ठीक महसूस करती हैं तो पार्टी की गतिविधियों की जानकारी लेने की भरसक कोशिश करती हैं और वर्तमान  हालत को समझते हुए चिंता व्यक्त करती हैं कि  बीजेपी आरएसएस द्वारा  देश के संसाधनों को लूटा जा रहा है और देश में जो नफरत का माहौल पैदा किया गया है यह देश के एकता के लिए खतरा है। वे संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए निरंतर चिंतित रहती हैं। त्याग और संघर्ष उन्हें विरासत में मिला है। ऐसी वीरांगना को दिल से सलाम और कामरेड साथी अजमेर सिंह को भी। (सौजन्य: ओम सिंह अशफ़ाक)

लेखक: सत्यपाल सिवाच

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