ज़हर पीकर भी ज़िन्दा हैं जो

पुस्तक समीक्षा

ज़हर पीकर भी ज़िन्दा हैं जो

जयपाल

हरियाणा में महिला सफाई-कर्मियो की आप-बीती की एक पुस्तक इन दिनों में बहुत चर्चा में है। पुस्तक का शीर्षक है– ‘जहर जो हमने पीया’ । दरअसल यह हरियाणा के हिसार मंडल की महिला सफाई कर्मियो की आप-बीती की दास्तान है जिसे उन्होंने स्वयं लिखा है । इस पुस्तक को हिसार मंडल के कमिश्नर अशोक कुमार गर्ग, प्राचार्य /लेखक मनोज छाबड़ा और अध्यापक/लेखक राजकुमार जांगड़ा ने संपादित किया है । प्रकाशित किया है, यूनिक-पब्लिशर्स कुरुक्षेत्र ने । इस पुस्तक में लगभग चालीस/इकतालीस महिला सफाई कर्मियो की जीवन की पीड़ा दर्ज है ।

इन महिलाओं की आप बीती पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन महिलाओं ने हमारे समाज की पोल खोलकर रख दी है। सुविधा-संपन्न विशेषाधिकार प्राप्त ऊंची कही जाने वाली जातियों के पढ़े लिखे लोग अक्सर कहते सुने जाते हैं कि समाज में जाति अब कहाँ है…!

लेकिन इन महिलाओं के बयानों से पता चलता है कि ऊपर से हमारा समाज भले ही ठीक-ठाक दिखाई देता हो लेकिन जाति की सड़ांध अभी भी उसके भीतर समाई हुई है, विशेष कर दलित समाज के प्रति घृणा की भावना ।

जिन लोगों को जाति का दंश नहीं झेलना पड़ता वे लोग ही अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि अब जातीय भेदभाव समाप्त हो गया है। लेकिन असलियत इसके ठीक विपरीत है’–जाति है कि जाती ही नहीं ।

अशोक कुमार गर्ग और उनकी टीम ने एक ऐतिहासिक कार्य का आगाज कर दिया है। इसका दूरगामी असर हमारे समाज पर पड़ेगा । जो लोग दलित जातियों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं, उन्हें भी सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि इतनी तरक्की कर लेने के बाद भी उनके प्रति अपने व्यवहार को बदलना क्यों नहीं चाहते !!

वर्ण व्यवस्था और मनुस्मृति की बात करते हुए आम तौर पर यह मान लिया जाता है कि ऐसी कोई व्यवस्था अब भारतीय समाज में लागू नहीं है लेकिन ये महिलाएं अपने साथ बीती घटनाओं से यह साबित कर रही है कि वर्ण व्यवस्था और मनुस्मृति आज भी उनके उनके सिर पर बैठी हुई है ।

‘जिल्लत की रोटी’ में ‘सूरजमुखी’ कहती है–माँ-पिता ज़मींदार के सीरी थे। तारों की छाँव में जाते थे । तारों की छाँव में लौटते थे । मेरी पांच बहनें और और चार भाई थे । गरीबी इतनी थी कि पढ़ाई की कभी सोच ही नहीं पाए..

.’..यदि कभी गलती हो जाए तो मालिक जाति की गाली देता, कभी ‘डेढ़’ तो कभी ‘चूहड़ा’ तो कभी मादर…’ ..’खाना खाने के वक्त एक-आध रोटी ज़्यादा खायी जाती तो फुसफुसाहट सुनाई देती– सेर अनाज खाकर भी पेट नहीं भरता । भूखे लोग हैं.. अपनी जात दिखा देते हैं ।’

सूरजमुखी भगवान से पूछती है– ‘तूं कैसा भगवान है..!! जी-तोड़ मेहनत के बाद भी भरपेट खाना नहीं देता !! तूं मिले तो मैं पूछूं कि बता मेरी खता क्या है ..!!’ अभी मेरी उम्र 12 बरस की थी ।शादी की समझ नहीं थी । लेकिन घरवालों ने बड़ी बहन के साथ ही उसके देवर के साथ मेरी शादी कर दी ।

इसी तरह ‘रेखा’ कहती है– “जब बारात आई तो उसमें एक की जगह दो दूल्हे थे’ हम हैरानी में पड़ गए । एक लड़की की शादी है , दो दूल्हे क्यों..!! आखिरकार दादा जी ने बताया कि उसने ज़ुबान दी है कि मैं अपनी बेटी के साथ-साथ अपनी पोती की शादी दूल्हे के छोटे भाई से करूँगा ।’

‘कमलेश’कहती हैं..’ एक दिन एक आदमी काई लगी बाल्टी में से टॉयलेट के डिब्बे से पानी पिलाने लगा । हमने वहाँ पानी नहीं पिया ।

..’हम जो काम करते हैं वो ही काम पक्का कर्मचारी करता है । पक्के कर्मचारी को ₹50,000 से भी अधिक मिलते हैं हमें 20,000 से भी कम , ऐसा क्यों…??

‘बबीता’ कहती है…’ हम तीनो भाई-बहनों की बहुत दुर्गति हुई…किसी के भी मम्मी- पापा नहीं मरने चाहिए उनके बगैर बच्चों की जिंदगी खराब हो जाती है’ ।

मीना कहती है..’गंदगी बुरी लगती हैं पर पेट भरने के लिए सब करना पड़ता है…वे नंगे बदन, नंगे पैर सीवर में उतरते थे..पैरों में कांच भी थे..बहुत बार इन कर्मचारियों की मौत हो जाती है क्योंकि उन्हें तुरंत उपचार नहीं मिलता..कई बार सांप,बिच्छू जैसे जहरीले जीव भी काट लेते हैं.. सीवरेज के पास से लोग निकलते हैं, उन्हें इतने से ही बहुत बदबू आ जाती है । लेकिन सीवरेज में सफाई का काम करते हुए गंदगी, मुंह व आँखों में चली जाती है..काम के दौरान भूख लगने पर गंदे हाथों से खाना पड़ता है..कोई पानी तक नहीं देता।

मेरी सास कहती थी–‘ज़मींदारों के घर काम करने से तो ये आठ हजार के नौकरी ठीक है’..

मीना भगवान से पूछती है…’ हमने तो अपनी जिंदगी में ऐसे बुरे काम भी नहीं किये…यह कैसा भगवान है.. जो मेहनत करने वालों के साथ न्याय नहीं कर पाता …कहीं मिले तो मैं उससे पूछूं कि हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो हम इतना बुरा जीवन जीते हैं..सुना है कि तुम खूब दयालु हो..पर क्या तुम्हें हम पर दया नहीं आती..!!!

इसी प्रकार से अन्य सफाई महिला कर्मियों के भी ऐसे ही अनुभव हैं जो दलित समाज के प्रति हमारे अमानवीय व्यवहार को बेनकाब करते हैं जिन्हें हम लीपापोती करके छुपाते रहते हैं और महान देश के महान नागरिक बने रहते हैं। आप-बीती की इन दास्तानों से यह पता चलता है कि दलित स्त्री को दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता है । एक दलित होने के कारण दूसरा पितृसत्तात्मक तानाशाही रवैये के कारण । इससे यह भी पता चलता है कि नगर पालिका में काम करने वाली महिलाओं के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं होता । ठेकेदार उनके साथ मनमानी करते हैं । समय पर वेतन नहीं मिलता। कच्चे और पक्के कर्मचारियों में वेतन का भारी अंतर रहता है ।

उनके बच्चे उनकी इस हालत के कारण अनपढ़ रह जाते हैं । उनके चरित्र पर ताने कसे जाते हैं। स्कूल में अध्यापक भी इन बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते । आज भी उन्हें लोग टूटी डंडी वाला कप देते हैं । पानी पिलाने से परहेज करते हैं । दूर बिठा देते हैं, सड़ी खराब चीजें खाने को देते हैं वे भी दूर से उनके हाथों में पटक देते हैं ।

घर में सास,पति, ननद देवरानी, जेठानी, घर के बड़े बुजुर्गों और बाहर ज़मींदार/ ठेकेदार / पड़ोसियों/ मालिकों/ दुकानदारों द्वारा इन पर मनमाना अत्याचार किया जाता है । इतना विकास होने पर भी सीवरेज की सफाई के लिए सरकार के पास कोई उचित प्रबंध नहीं है । दलित मरते हैं तो मरें..किसी को क्या फर्क़ पड़ता है…!!

यह पुस्तक यही सवाल उठाती है कि समाज की दुर्गन्ध/गंदगी को दूर करने के लिए जो लोग आपने सारे जीवन को होम कर देते हैं उन्हें हम सम्मान क्यों नहीं देते…!!उन्हें इंसान क्यों नहीं माना जाता..!!

महिला सफ़ाई कर्मचारियों की ये आप बीती कहानियां इन कर्मियों द्वारा स्वयं लिखी गयी हैं । इसलिए इसमें भले ही एक लेखक जैसी दक्षता और कलात्मकता न हो लेकिन इनमें जिस मासूमियत और निश्छलता से अपनी बात कही गई है, वह आत्मा को झकझोर देने के लिए काफी है । ये बहुत ही मार्मिक और भावुक करने वाली लघु आत्म-कथायें हैं ।

पुस्तक को निश्चित रूप से पढ़ा जाना चाहिए ताकि अपने आप को श्रेष्ठ ,पवित्र, ऊंचे, और महान बताने वाले कुलीन वर्ग को इन कथाओं में अपने असली चरित्र का पता चले । ये कहानियां हमारे समाज को आईना दिखाने का काम तो करती ही है साथ इस गली-सड़ी व्यवस्था को बदलने के लिए प्रेरित भी करती हैं। पुस्तक के संपादकों–अशोक कुमार गर्ग, मनोज छाबड़ा, राजकुमार जांगड़ा तथा प्रकाशक विकास सालयान को इस महत्वपूर्ण पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए सलाम..!!

पुस्तक-जहर जो हमने पिया ।
लेखक– महिला सफाई कर्मी
संपादक–अशोक कुमार गर्ग/ मनोज छाबड़ा/ राजकुमार जांगड़ा
कीमत– ₹250/-(पेपरबैक) 
प्रकाशक– यूनिक पब्लिशर्स कुरुक्षेत्र ।
Mbl–90501-82156

समीक्षक- जयपाल

One thought on “ज़हर पीकर भी ज़िन्दा हैं जो

  1. विस्तृत और उपयोगी समीक्षा-लेख है।
    जयपाल जी को धन्यवाद।

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