किसान को कर्ज नहीं, नीतिगत बदलाव चाहिए

किसान को कर्ज नहीं, नीतिगत बदलाव चाहिए

जगदीश्वर चतुर्वेदी

किसानों की समस्या पर ज्योंही बातें होती हैं तो पूरा समाज आँखें बंद कर लेता है।लेकिन किसान की कोई सनसनीखेज खबर सुनता है तो रस लेने लगता है।आत्महत्या की खबर जब सनसनीखेज खबर के फॉरमेट में पेश की जाती है तो लोग पढ़ते हैं लेकिन यदि यही खबर ठोस कृषि समस्या के संदर्भ में पेश की जाती है तो क्षणभर के लिए ल भी ध्यान नहीं देते।जिन पत्रकारों ने किसानों पर लिखा है उनको कोई नहीं जानता,जिन लेखकों ने किसान पर लिखा है उसे कोई नहीं जानता। इधर के वर्षों में थोड़ा मीडिया हल्ला हुआ है तो किसानों के कर्ज का नाम सुना है,किसान आत्महत्या के बारे में सुना।इसे नाममात्र का परिचय कहते हैं।कहने के लिए हमारे बीच में लाखों बुद्धिजीवी हैं लेकिन किसानों पर लिखने वाले पाँच बुद्धिजीवी-लेखक नहीं हैं।हमारे लेखक –बुद्धिजीवी भी मध्यवर्ग के विषयों पर ही लिखना सबसे अधिक पसंद करते हैं,उन्हीं विषयों पर लिखते हैं जिनको मध्यवर्ग चाहता है।

त्रासद पहलू यह है कि किसान इस जगत में है लेकिन वह समाज का अंग नहीं है,हमने किसान को कभी नागरिकसमाज के सदस्य के रूप में नहीं देखा। किसान सभाएं हैं और किसान यूनियनें भी हैं,लेकिन किसानों की कोई संगठित आवाज नहीं है,राजनीतिक संगठन नहीं हैं।समाज का हर वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए सरकार के साथ बातें कर लेता है,सौदा कर लेता है,दबाव पैदा कर लेता है लेकिन किसान नहीं कर पाता।मीडिया को देखेंगे तो यही महसूस होगा कि भारत में किसान नहीं रहते। कहने का आशय यह है कि विगत सात दशकों में किसानों के प्रति समूचे समाज,मीडिया और राजनीतिक तंत्र का बेगानापन बढ़ा है।स्थिति की भयावहता तब महसूस होती है जब किसान समस्या को विरल और विलक्षण समस्या के रूप में पेश किया जाता है,उसे विशिष्ट बनाकर पेश किया जाता है। इसने किसान से दूरी और भी बढ़ाई है।फलतः किसान वायवीय हो गया है,अमूर्त्त हो गया है।किसान की जीवंत इमेज,सामान्य मनुष्य की इमेज हमारे मीडिया और मन से एकसिरे गायब है।समाज में विभिन्न किस्म के जनमाध्यमों का जितना विकास हुआ है किसान उतना ही दुर्लभ प्राणी हो गया है।

आंकड़े बताते हैं सन् 1995 से लेकर 2014 तक 2,96,438 किसानों ने आत्महत्या की।इनमें से अकेले महाराष्ट्र में 60,365 किसानों ने आत्महत्या की।किसानों की आत्महत्या की खबरों ने किसानों के कर्ज को तो मुद्दा बना दिया लेकिन किसान की आत्महत्या को हम अभी तक मुद्दा नहीं बना पाए।मीडिया ने समझा दिया कि किसान की असल समस्या कर्ज है,जबकि वास्तविकता यह है कि कर्ज तो किसान समस्या का एक पहलू है,इससे खेती या कृषि संकट को आप पूरी तरह नहीं समझ सकते ।कृषि में आज जो समस्याएं हैं उनमें प्रमुख समस्या है केन्द्र और राज्य स्तर पर कृषि नीति का अभाव।कृषि नीति का मतलब महज कृषि उपज या फसल के खरीद मूल्य की घोषणामात्र नहीं है।आजादी के सात दशक बाद भी हम कृषिनीति और उसको सख्ती से निचले स्तर तक,यानी दिल्ली से लेकर गांव तक प्रशासनिक संरचनाओं का निर्माण नहीं कर पाए हैं ।

किसान की समस्याएं दो तरह की हैं,पहली समस्याएं वे हैं जो कृषि के उत्पादन,वितरण, खरीद- फरोख्त, कृषि नीति,मौसम,पर्यावरण,प्रकृति,कृषि बजट और कृषि संबंधित प्रशासनिक संरचनाओं से जुड़ी हैं।दूसरी समस्याएं वे हैं जिन्हें हम नागरिक समस्याओं के रूप में देखते हैं।इसमें हम किसान के नागरिक के रूप में रूपान्तरण और गांव के नगर में रूपान्तरण की समस्याओं को रख सकते हैं।इस तरह देखें तो पाएंगे कि किसान की दो तरह की समस्याएं हैं पहली किसान के रूप में दूसरी नागरिक के रूप में।किसान के जीवन के हालात सुधरें इसके लिए जरूरी है कि इन सभी पहलों पर समान रूप से संतुलन बनाकर काम किया जाए।हमारे अब तक के विमर्श की यह सबसे बड़ी सीमा है कि वह किसान को मात्र कर्जगीर किसान के ही रूप में देखता है।वह उसे किसान और नागरिक के रूप में नहीं देखता। इसमें दार्शनिक तौर यह समझ काम कर रही है कि किसान तो शाश्वत कर्जगीर है वह कर्जगीर था, है ,और रहेगा। कर्जगीर किसान की इस अपरिवर्तनीय इमेज ने स्टीरियोटाइप रूप ग्रहण कर लिया है,उसी स्टीरियोटाइप रूप को हम मीडिया के जरिए देखते हैं और उसका उपभोग करते हैं।हमारे संवाददाता भी जब किसानों पर रिपोर्ट करने जाते हैं तो सीधे कर्जगीर किसान को पकड़ते हैं उसकी कहानी सुनते हैं, उसे उद्धृत करते हैं ,पेश करते हैं और अपने कर्म की इतिश्री समझ लेते हैं।इस प्रसंग में पहली बात यह कि किसान को शाश्वत और अपरिवर्तनीय रूप में देखना बंद करें।तयशुदा कहानी,फ्रेमवर्क में पेश करना बंद करें।

किसान कोई मृत विषय नहीं है,वह जिंदा हाड़-मांस का इंसान है और उसके पास भी एक व्यापक सामाजिक दुनिया है जिसे समझने और उद्घाटित करने की जरूरत है।किसान वर्ग है ,उसके अंतर्विरोध हैं, हित-अहित हैं,शत्रु-मित्र हैं,उसकी राजनीति,संस्कृति,मासकल्चर आदि भी है।इस सबके बावजूद वह समाज में अदृश्य है तो हम सबकी समस्या है कि उसे सजीव रूप में पेश करें,रूढ़िबद्ध रूपों ,विषयों और नजरिए से मुक्त करें।मसलन्,हम किसान और प्रकृति के अन्तस्सबंध को ही लें,पर्यावरण अ-संतुलन के सवालों पर चल रही बहस के परिप्रेक्ष्य में हम किसान को देखें,हम सब जानते हैं कि सही समय पर बारिस न होने से किसान की फसल नष्ट हो जाती है और वह पामाली का शिकार हो जाता है।यह सिलसिला सैंकडों सालों से चल रहा है इसके बावजूद पर्यावरण असंतुलन की समस्या को हम राष्ट्रीय समस्या के रूप में चिह्नित नहीं कर पाए।पर्यावरण असंतुलन से प्राकृतिक संपदा,बर्फ,पहाड़,रेगिस्तान,नदी,समुद्र आदि प्रभावित होते हैं ,लेकिन आम आदमी,खासकर किसान भी प्रभावित होता है,इसके कारण गरीबी,भुखमरी, बीमारियों, बिजली, पानी की कमी आदि समस्याओं का आम जनता पर पहाड़ टूट पड़ता है।

हमारे नीति-निर्धारकों की प्राथमिकताओं में आधुनिक हथियार खरीदना सबसे ऊपर है,लेकिन किसानों की समस्या,पर्यावरण असंतुलन की समस्या सबसे नीचे है।हम अभी तक बादलों को नष्ट करने का विज्ञान विकसित नहीं कर पाए हैं,जबकि चीन इस मामले में विश्व में सबसे ऊपर है। चीन के मौसम वैज्ञानिक हमेशा आकाश पर नजर गढाए रखते हैं और बादलों के मूवमेंट देखते रहते हैं,यदि उनको बादलों से कोई नुकसान का संदेह होता है तो बादलों को नष्ट करने का विज्ञान भी उन्होंने विकसित कर लिया है। हमारे यहां मुश्किल यह है कि पर्यावरण और प्राकृतिक असंतुलन के सवाल राजनीति से एकसिरे से गायब हैं,जबकि किसानों की तबाही का एक बड़ा कारण प्राकृतिक अ-संतुलन है।प्राकृतिक अ-संतुलन के कारण हमारी कृषि तबाह हो रही है लेकिन हमने कभी प्राकृतिक असंतुलन और कृषि के अन्तस्संबंध को लेकर बातें नहीं कीं।

किसानों की तबाही पर सबसे ज्यादा कवरेज उनकी आत्महत्या की खबरों को लेकर है।आत्महत्या के कारणों की हमने सिर्फ राजनीतिक अर्थशास्त्र के नजरिए से पड़ताल मात्र की है, जो किसानों की तबाही को समझने के लिए नाकाफी है।आत्महत्या के आंकड़े बताते हैं भारत में प्रति 30मिनट पर एक किसान आत्महत्या करता है।भारत सरकार किसानों की आत्महत्या और मौत के आंकड़े नियमित प्रकाशित करती रही है,ये आंकड़े उनकी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की बेवसाइट पर भी हैं।इसमें 1995 से अन्य क्षेत्र के लोगों के आत्महत्या के आंकड़े अलग से वर्गीकृत करके दिए गए हैं।

किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद दीपांकर बसु ने ´फार्मर सुसाइड इन इण्डिया´( इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली,21मई 2016)लिखा है कि किसान और गैर-किसान आत्महत्या करने वालों के आंकड़े बताते हैं कि किसानों की आत्महत्या का फिनोमिना राष्ट्रीय फिनोमिना नहीं है बल्कि कुछ राज्यों तक ही सीमित है। इनमें केरल और महाराष्ट्र सबसे ऊपर हैं। इसके अलावा छत्तीसगढ़.कर्नाटक, यूपी और मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।

भारत में 65 फीसदी आबादी कृषि से आजीविका कमाती है।इस आबादी में हर साल 1.84फीसदी की बढोत्तरी हो रही है।एक ओर कृषि आबादी में वृद्धि हो रही है वहीं दूसरी ओर औसत कृषि का आकार छोटा होता जा रहा है।खेती की लागत बढ़ती जा रही है और आमदनी कम होती जा रही है।फलतः किसान ऋणी होता जा रहा है।विपणन ढांचा असन्तोषजनक है।कृषि में बदतर स्थिति का आलम यह है कि एक सर्वे में पाया गया कि 40फीसदी किसानों को यदि आज कोई विकल्प मिल जाए तो वे कृषि छोड़ देंगे। आज किसान यदि गांव छोड़कर शहर आता है तो शहर की मलिन बस्तियों में रहने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है।

जो किसान पशु पालन करते हैं ,पशुओं के जरिए आजीविका कमाते हैं उनकी स्थिति भी खराब है। पशुओं के लिए गांवों चारागाह भूमि धीरे -धीरे कम होती जा रही है।अब चारे के लिए पशों को बहुत दूर ले जाना पड़ता है,इससे पशुपालक किसान परेशान हैं। गांवों में न्यूनतम स्वाश्थ्य सुविधाएं तक नहीं हैं।इसके कारण विभिन्न बीमारियों से किसान और पशु मर जाते हैं,उनको समय रहते न्यूनतम इलाज नहीं मिल पाता। इससे किसानों के साथ पशुधन की व्यापक क्षति हो रही है, बेहतर नस्ल के पशु घटते चले जा रहे हैं।

किसानों के कर्ज का सवाल इस बीच में बार-बार उठा है उसको संक्षेप में समझने की जरूरत है। जमीनी हकीकत है कि छोटे किसानों को साहूकारों से ऊँची ब्याजदर पर कर्ज लेना पड़ता है।क्योंकि मात्र 51फीसदी किसानों को ही संस्थागत ऋण मिल सकता है।सभी खेतिहर परिवारों में से केवल 27फीसदी को ही संस्थागत ऋण सुविधा उपलब्ध होती रही है।इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।

गरीबों की और विशेष रूप से कृषि श्रमिकों,जनजातीय महिलाओं,पुरूषों,मछेरे परिवारों की एक न्य प्रमुख समस्या है पोषाहार की ,पौष्टिक भोजन के अभाव में इनके बच्चे बेहद कमजोर होते हैं। आज स्थिति यह है कि देश में 75फीसदी बच्चे अल्पभार के हैं।ये वे बच्चे हैं जिनका जन्म के समय वजन कम था,क्योंकि इन बच्चों के अभिभावक भयानक भुखमरी में जी रहे थे।अल्पभार के बच्चों के मामले में हम अफ्रीका से भी आगे हैं।अभी तक हम अपने देश में पोषण-केन्द्रित कृषि का निर्माण नहीं कर पाए हैं। बिना पोषण –केन्द्रित कृषि प्रणाली के नई स्वस्थ दुनिया नहीं बनायी जा सकती।

आज स्थिति यह है कि फसलें मर रही है,बच्चे मर रहे हैं,वयस्क मर रहे हैं,पशु मर रहे हैं, कृषि ज्ञान भी मर रहा है।इन सबको बचाने की जरूरत है।सामुदायिक खाद्य बैंक बनाए जाने चाहिए,जिनसे जरूरतमंदों को मदद मिले। कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश घटा है।कृषि की उन्नति के लिए सरकारी निवेश बढाया जाना चाहिए।निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी इस मामले दिलचस्पी लेनी चाहिए।गलत सार्वजनिक नीतियों के कारण भू-उपयोग और उर्वरक खपत में विसंगतियां पैदा हुई हैं,भू-जल का बेशुमार दोहन हुआ है,इसने कृषि में संतुलन को बढ़ा दिया है।आज स्थिति यह है कि पंजाब-हरियाणा में गेंहूँ-चावल की खेती के लिए पर्याप्त जल ही नहीं बचा। अनेक इलाकों में मिट्टी में नमक की मात्रा बढ़ गयी है।यूरिया आधारित उर्वरकों, रासायनिक खादों के दामों में आई तेजी ने समूची कृषि को प्रभावित किया है। खाद सब्सीडी ने संतुलित उर्वरण को प्रभावित किया है।इससे मिट्टी खराब हुई है।कृषि उत्पादकता में कमी आई है।उत्पादन की लागत भी इससे प्रभावित हुई है।

हमारे देश में कृषि न तो सरकारी क्षेत्र में है और न कारपोरेट क्षेत्र में है,बल्कि वह जन क्षेत्र में है। उनकी पहली समस्या है कृषि वस्तुओं के सही मूल्य-निर्धारण और उपज के सही दाम दिलाने की, दूसरी समस्या है कृषि के उपयोग में लाई जाने वाली चीजों को उचित और सब्सीडाइज दर पर उपलब्ध कराने की,तीसरी समस्या है बैंक कर्ज सभी किसानों को उपलब्ध कराने की,चौथी समस्या है किसानों की आत्महत्या के सही आंकड़े उपलब्ध कराने की।पांचवी समस्या है कृषि के पूंजीवादीकरण की, अभी कृषि का समान रूप से पूंजीवादीकरण नहीं हुआ है। फेसबुक वॉल से साभार

One thought on “किसान को कर्ज नहीं, नीतिगत बदलाव चाहिए

  1. ओमसिंह अशफ़ाक, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) says:

    जगदीश्वर चतुर्वेदी का लेख तो महत्वपूर्ण है लेकिन उन्होंने 1995 से लेकर 2014 तक के आंकड़ों को ही आधार बनाया है? इससे पाठकों को यह लग सकता है कि “किसान और कृषि की तबाही” सिर्फ कांग्रेस के राज्य में होती थी, अब सब कुछ ठीक है? उनको चाहिए कि इसमें नहीं तो एक अलग से लेख बीजेपी/मोदी सरकार के 11 साल के शासन पर आंकड़ों सहित लिखें ताकि हमें पता चल सके कि आज “किसान की हालत” क्या है? यह तो सर्व विदित है कि 2022 तक मोदी जी के वादे अनुसार किसान की “आमदनी दोगुनी” नहीं हुई है! लेकिन उसकी हालत में कितना “सुधार या बिगाड़” हुआ है यह अध्ययन हमारे सामने नहीं है।

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