सूप त सूप, चलनियो हँसे, जवने में छपन गो छेद…

बिहार विधानसभा चुनाव

सूप त सूप, चलनियो हँसे, जवने में छपन गो छेद..

विजय शंकर पांडेय

ये हुई न बात….. परिवारवादी महागठबंधन का मुंहतोड़ जवाब। एनडीए खेमे में भी कोई पत्नी को टिकट थमा रहा है तो कोई भांजे को। बिहार की राजनीति अब “परिवार लिमिटेड” हो चुकी है। हर पार्टी का नारा एक ही—घर का हो तो भरोसा पक्का! यहाँ टिकट योग्यता से नहीं, रिश्तेदारी से मिलता है।

एक महाशय ने तो अपने कुत्ते को भी पोस्टर में डाल दिया — “घर का वफादार, पार्टी का भी होगा ही।”

राजनीति में भी फैमिली पैक धमाल कर रहा है। इस हमाम में सभी बयानवीर नंगे हैं। सभी परिवार के साथ हैं, बशर्ते परिवार राजनीतिक हो। अब जनता उलझन में है कि वोट दे पार्टी को या परिवार को, क्योंकि दोनों एक दूसरे के पर्याय हो चुके हैं। राजनीति अब नौकरी नहीं, वंश परंपरा की विरासत है। नेता मरते नहीं, बस रिश्तेदार के रूप में फिर चुनाव लड़ जाते हैं।

बिहार की गलियों में अब पोस्टर नहीं लगते—“जनता की सेवा करेंगे”, बल्कि—“चाचा की विरासत, भतीजे की जिम्मेदारी।” लोकतंत्र अब परिवारतंत्र हो गया है, जहाँ जनता सिर्फ बाराती बनकर हर चुनाव में ताली बजा रही है।

इसी तरह एक पूर्व सांसद महोदय के तीन रिश्तेदार हम और जदयू से चुनाव लड़ रहे हैं। भाजपा के 71 कैंडिडेट्स में से 11 उम्मीदवार, किसी न किसी सियासी शख्सियत के परिजन हैं। तेज प्रताप और तेजस्वी मैदान में हैं तो, साली साहिबा ने भी मोर्चा संभाल लिया है।

एडीआर की रिपोर्ट बता रही कि बिहार के 360 सांसदों-विधायकों में से 96 किसी-न-किसी राजनीतिक परिवार के हैं। क्षेत्रीय दलों को तो यह रोग कुछ अधिक ही है। हालांकि राष्ट्रीय कौन से दूध के धुले हैं?

बिहार में मौजूदा 27 प्रतिशत सांसद-विधायक परिवार की राजनीति को आगे बढ़ा रहे। यह संख्या राष्ट्रीय औसत (21 प्रतिशत) से भी अधिक है।

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