बोलती फिल्मों के जनक अर्दॅशिर ईरानी का आलम आरा के निर्माण पर इंटरव्यू

भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा के प्रोड्यूसर अर्दॅशिर ईरानी से 1949 में लिया गया इंटरव्यू। इस इंटरव्यू में उन्होंने बोलती फिल्म के निर्माण में आई दिक्कतों और चुनौतियों पर बात की है। अर्देशिर की आज 56वीं पुण्यतिथि है। आप भी पढ़िए। किस्सा टीवी से साभार हम इसे प्रकाशित कर रहे हैं –

पुण्यतिथि पर विशेष

बोलती फिल्मों के जनक अर्दॅशिर ईरानी का आलम आरा के निर्माण पर इंटरव्यू

“आलम आरा का प्रोडक्शन शुरू करने से लगभग 1 साल पहले मैंने एक्सलसियर सिनेमा में यूनिवर्सल पिक्चर्स की 40 प्रतिशत टॉकी शो बोट देखी थी। उसी से मुझे एक इंडियन टॉकी फ़िल्म बनाने का आइडिया मिला। मगर हमारे पास कोई एक्सपीरियंस नहीं था। हमारे यहां कभी कोई टॉकी बनी भी नहीं थी। इसलिए चुनौतियां बहुत थी। मगर हमने तय किया कि हम टॉकी बनाएंगे ज़रूर।” भारत में टॉकी फ़िल्मों के जनक आर्देशिर ईरानी जी ने ये बात एक बेहद पुराने(1949) इंटरव्यू में एक विदेशी पत्रकार से कही थी। आज आर्देशिर ईरानी जी की 56वीं डेथ एनिवर्सरी है। इस मौके पर ये इंटरव्यू जारी रखते हुए जानने की कोशिश करते हैं कि कैसे आर्देशिर ईरानी जी ने आलम आरा फ़िल्म का निर्माण किया था। उस दौर के सिनेमा के बारे में कुछ रोचक बातें हमें पता चलेंगी।

पत्रकार- आपने ये सब्जेक्ट चुना कैसे था? जिस पर आप पहली टॉकी फ़िल्म बना सकें?

आर्देशिर ईरानी- आलम आरा बॉम्बे के थिएटर सर्किट का एक लोकप्रिय नाटक था। इसे जोसेफ़ डेविड पेणकर ने लिखा था। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए ही हमने इस सब्जेक्ट पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया था।

पत्रकार- उस ज़माने में टॉकी फ़िल्मों को शूट करना कितना चुनौतीपूर्ण होता था?

आर्देशिर ईरानी- उस ज़माने में साउंड प्रूफ़ स्टेज नहीं होते थे। इसलिए हम इनडोर और रात के वक्त शूटिंग करते थे। हमारा स्टूडियो एक रेलवे ट्रैक के पास था। और कुछ मिनटों के अंतराल पर वहां से कोई ना कोई रेलगाड़ी गुज़रती रहती थी। हमें मजबूरी में उसी वक्त ही शूटिंग करनी पड़ती थी। आज तो डबल सिस्टम रिकॉर्डिंग होती है। मगर हमें तो सिंगल सिस्टम रिकॉर्डिंग पर शूटिंग करनी पड़ती थी। उस वक्त बूम्स भी नहीं होते थे। इसलिए हमें माइक्रोफ़ोन्स को छिपाकर रखना पड़ता था। ताकि वो कैमरे में ना दिखें। ये बहुत चैलेंजिंग था।

पत्रकार- क्या आलम आरा बनाने से पहले आपने साउंड की कोई ट्रेनिंग ली थी?

आर्देशिर ईरानी- हां, मैंने और रुस्तम भरूचा ने मिस्टर डेमिंग नामक एक विदेशी एक्सपर्ट से बेसिक्स सीखे थे। वो हमारे लिए रिकॉर्डिंग मशीन असेंबल करने बॉम्बे आए थे। उस ज़माने में वो हमसे सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से फ़ीस ले रहे थे। बहुत बड़ी रक़म थी ये उन दिनों। आलम आरा की मेकिंग के दौरान साउंड रिकॉर्डिंग की ज़म्मेदारी मैंने ही संभाली। उन्हें अफॉर्ड नहीं कर सकते थे हम।

पत्रकार- मैंने आपकी फ़िल्म के क्रेडिट्स पर गौर किया तो नोटिस किया कि क्रेडिट्स में किसी म्यूज़िक डायरेक्टर का नाम नहीं दिया गया है। ऐसा क्यों?

आर्देशिर ईरानी- क्योंकि हमने किसी म्यूज़िक डायरेक्टर को हायर किया ही नहीं था। मैंने खुद ही गाने चुने। और ट्यून चुनी। हमने एक हारमोनियम और एक तबला प्लेयर को लिया और उन्हें कैमरे से दूर रखा। और गाने वालों ने एक छिपे हुए माइक्रोफ़ोन के सामने गाया।

पत्रकार- फ़िल्म को पूरा करने में आपको कितना समय लगा?

आर्देशिर ईरानी- उस ज़माने में एक साइलेंट फ़िल्म कंप्लीट करने में हमें एक महीना या उससे थोड़ा ज़्यादा समय लगता था। लेकिन आलम आरा को पूरा करने में मुझे कई महीने लग गए। क्योंकि साउंड रिकॉर्डिंग के साथ फ़िल्म बनाने में बहुत दिक्कतें आई थी। और हमने ये बात भी सबसे छिपाकर रखी थी कि हम एक टॉकी फ़िल्म बना रहे हैं। ये बात किसी को पता ना चले, मैंने इसके लिए बहुत मेहनत की थी। ये बहुत बड़ा सीक्रेट था तब।

पत्रकार- आलम आरा को बनाने में कुल कितना खर्च आया था?

आर्देशिर ईरानी- लगभग 40 हज़ार रुपए खर्च हुए थे। मगर शुक्र है कि मेरे कलाकारों और टैक्निशियन्स ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। वरना वो खर्च और ज़्यादा होता। भारत की पहली टॉकी फ़िल्म बनाने के मेरे एक्सायटमेंट को उन्होंने समझा और बहुत को-ओपरेट किया। 14 मार्च 1931 के दिन ये फ़िल्म मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज़ हुई थी और बहुत कामयाब रही थी। टिकट ब्लैक करने वालों की तो मौज आ गई थी। थिएटर के बाहर ज़बरदस्त भीड़ थी। और कई हफ़्तों तक टिकट्स लोगों को मिल ही नहीं रहे थे। सारे गाने हिट थे। खासतौर पर वज़ीर मोहम्मद खान का वो गाना जिसके बोल थे “दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे, ताक़त है गर देने की। कुछ चाहे अगर तो मांग ले मुझसे हिम्मत है गर लेने की।” किस्सा टीवी से साभार

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