एस.पी. सिंह की कविता- खुशियों की खिड़कियां, दर्द के दरवाज़े

कविता

खुशियों की खिड़कियां, दर्द के दरवाज़े

एस.पी. सिंह

वो आदमी —

जिसने अपने हिस्से की धूप को

छाँव समझ लिया था,

जिसे लगा था कि

हर मुस्कान में उसका प्रतिबिंब है,

और हर आशीष में उसका अंश —

वो अब आईने के सामने खड़ा है,

जहां उसका ही चेहरा

उसे पहचानने से इंकार कर चुका है।

खुशियों की खिड़कियों से

जब ज़िंदगी ने झांका —

तो बाहर नीले आसमान की झलक थी,

थोड़ी सी उम्मीद,

थोड़ा सा उजाला,

और बहुत सारा छलावा।

वो चाहता था

कि बस वहीं ठहर जाए समय,

पर समय तो हमेशा

अपना किरदार निभाता है —

एक पल सुख का,

तो अगले ही पल

दर्द का दरवाज़ा खोल देता है।

उसके पास सब कुछ था —

सपनों का घर,

अपनों की बातें,

और विश्वास की थाली में परोसे हुए शब्द।

पर जब सच ने दस्तक दी,

तो वो थाली उलट गई —

और शब्द गिर पड़े

ठंडे फर्श पर,

जैसे किसी ने विश्वास को

पत्थर से कुचल दिया हो।

वो आदमी अब सीख गया है —

कि मुस्कानें भी मुखौटे पहनती हैं,

और रिश्ते भी तराजू पर तौले जाते हैं।

उसके हौसले अब भी ज़िंदा हैं,

पर सपने नहीं;

वो अब अपने भीतर ही

एक मौन युद्ध लड़ रहा है —

जहां हर सवाल का जवाब

एक आह बनकर लौट आता है।

वो अब किसी खिड़की से नहीं झांकता,

किसी दरवाज़े पर दस्तक नहीं देता,

बस भीतर की गहराइयों में उतर जाता है

जहां दर्द और शांति

एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

और वो मुस्कुराता है —

एक थकी हुई मुस्कान के साथ,

जैसे कह रहा हो —

“मैं टूटा ज़रूर हूं,

मगर झुका नहीं।”

क्योंकि यही ज़िंदगी है —

खुशियों की खिड़कियां खोलते हुए

दर्द के दरवाज़ों से गुजरना।