न्याय की चौखट और आस्था की आग — एक टकराव की त्रासदी
एस.पी. सिंह
जब न्यायालय के शांत गलियारे में एक जूता हवा में उठता है, तो वह केवल किसी न्यायाधीश पर नहीं, बल्कि उस संवेदनशील संतुलन पर फेंका जाता है जो इस देश को सभ्यता बनाता है। यह घटना मात्र एक “हमला” नहीं, बल्कि मनुष्य की अविवेकपूर्ण प्रतिक्रिया है उस गूढ़ संघर्ष की — जिसमें श्रद्धा और तर्क, धर्म और विधि, आस्था और संवैधानिकता आमने-सामने खड़े हैं।
सनातन की मर्यादा शाश्वत है, पर उसका अपमान न्याय की मर्यादा को रौंदकर नहीं रोका जा सकता। गुस्से से निकला नारा, “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे”, तब खोखला प्रतीत होता है जब वह अपने ही धर्म के अनुशासन को लांघ जाता है। धर्म यदि संयम है, तो हिंसा उसका विकृति-रूप है।
CJI गवई की प्रतिक्रिया — “हम विचलित नहीं हैं” — एक ध्यानस्थ ऋषि के समान प्रतीत होती है। यही भारतीय न्याय का सार है — उत्तेजना में भी संतुलन, आस्था में भी अनुशासन, और असहमति में भी मर्यादा। जब न्याय की आसंदी से यह वाणी निकलती है कि “ये बातें मुझे प्रभावित नहीं करतीं”, तो यह केवल एक व्यक्ति की दृढ़ता नहीं, बल्कि उस संविधान-चेतना की शक्ति है जो हज़ारों वर्षों की सभ्यता की जड़ में रची-बसी है।
वह वकील, जिसने मूर्ति की पुनर्स्थापना की भावना से प्रेरित होकर यह उग्रता दिखाई, संभवतः भूल गया कि भगवान विष्णु का सिर नहीं, बल्कि हमारी बुद्धि कटी हुई है। जब मनुष्य अपनी तर्कशक्ति खो देता है, तब देवत्व की रक्षा भी असंभव हो जाती है।
न्याय और धर्म — दोनों ही तभी टिके रह सकते हैं जब मनुष्य अपने भीतर के क्रोधाग्नि को संयमित रखे। आस्था यदि ग़ुस्से में बदल जाए, तो वह भक्ति नहीं रहती, उन्माद बन जाती है। और जब उन्माद न्यायालय की दीवारों तक पहुँच जाए, तो यह हमारे समाज के आत्मदर्शन का समय है — क्या हम सचमुच धर्म की रक्षा कर रहे हैं, या उसके नाम पर अपने अहंकार की पूजा कर रहे हैं?
इस घटना ने हमें एक बार फिर याद दिलाया है —
“न्याय की गरिमा और धर्म की प्रतिष्ठा, दोनों का अस्तित्व तभी सुरक्षित है जब मनुष्य अपनी मर्यादा न भूले।”