कर्मचारी आंदोलन का वैचारिक योद्धा- मास्टर शेरसिंह 

हरियाणा के जूझते जुझारू लोग- 7

कर्मचारी आंदोलन का वैचारिक योद्धा- मास्टर शेरसिंह

सत्यपाल सिवाच

हरियाणा के शिक्षकों और कर्मचारियों के आन्दोलन में मास्टर शेरसिंह ऐसा नाम है जिसे सब अपना खास बताते रहे हैं। वे सर्वकर्मचारी संघ का गठन करने वाले प्रमुख नेताओं में सम्मिलित थे और पहली एक्शन कमेटी के सदस्य थे। बाद में वे 1995 और 1997 में दो बार अध्यक्ष भी रहे।

जब मैं सन् 1980 में अध्यापक बना तो लगभग महीने भर बाद शेरसिंह से मुलाकात हई। करनाल के बल्ला निवासी रामकिशन मान ने मुझे अमृतलाल चोपड़ा और शेरसिंह के बारे में बताया था। मेरी पहल पर एक बैठक निर्माणाधीन अध्यापक भवन जीन्द में बुलाई गई। उसमें अमृतलाल, शेरसिंह, रामकिशन मान, जगदीश राम, शोभाकर, सूबेसिंह, बलजीत सिंह और सत्यपाल – कुल आठ शामिल थे। जब मैं पहली बार शेर सिंह से मिला तो साधारण कद-काठी देखकर विश्वास नहीं हुआ कि यह व्यक्ति इतने बड़ा नेता है। बाद की कुछ मुलाकातों से अहसास हुआ कि उनमें निजी संपर्क बनाने, निरंतर संघर्ष करने और सहज ढंग से जुड़ने का अद्भुत कौशल है। उनके व्यक्तित्व की अमिट छाप अब तक कायम है।

शेरसिंह अध्यापक संघ में एक बार महासचिव और पाँच बार अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वे ऐसे शख्स हैं जिसने अध्यक्ष पद तक पहुंचने के बावजूद किसी दूसरे पद पर काम करने में कभी परेशानी महसूस नहीं की। सरल स्वभाव के कारण वे यूनियन में ही नहीं आम लोगों के बीच भी स्वीकार्य रहे हैं।

शेर सिंह भिवानी जिले के गारणपुराकलां गांव में आठ जून 1945 को चौधरी हेतराम और श्रीमती जयकौर के यहाँ साधारण किसान परिवार में पैदा हुए थे। बी.ए. बी.एड. करने के बाद वे एस. एस. मास्टर नियुक्त हुए। थोड़े ही समय बाद वे हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ के खण्ड सचिव निर्वाचित हो गए। उन दिनों भिवानी जिले में यूनियन में काम करना बहुत मुश्किल था। सन् 1973 की हड़ताल के बाद वे उन सवा सौ कार्यकर्ताओं में शामिल थे जिन्हें बदले की भावना से दूसरे जिलों में पटक दिया था। शेर सिंह चार साल तक अम्बाला जिले में रहे। वे 30 जून 2003 को मुख्याध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान में वे विद्यानगर, भिवानी में रहते हैं।

नियमित नियुक्ति के बाद शेर सिंह सन् 1972 में हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ के खंड सचिव बने। बाद में तहसील (1975), जिला (1978) व राज्य (1984-2003) का पदाधिकारी रहे। सन् 1978-80 में हरियाणा सुबोर्डिनेट सर्विसेस फेडरेशन के अध्यक्ष रहे। 1986 से सर्वकर्मचारी संघ और सेवानिवृत्ति के पश्चात् किसान सभा में काम किया और इसके भी राज्याध्यक्ष रहे।

शेर सिंह ने बातचीत में बताया था कि शिक्षक बनने के बाद उनको कामरेड धर्मसिंह कासनी के प्रभाव से काफी ऊर्जा मिली। शेर सिंह को बुनियादी रूप से प्रेरित करने वालों में उनके पिता जी थे। वे कहा करते – पगड़ी लो तो उसकी लाज रखो। ईमानदार रहो। स्त्री का सम्मान करो व लंगोटी के पक्के रहो। शेर सिंह के मुताबिक उनके पिताजी के अलावा उन पर अध्यापक मुंशीराम आर्य, बाद में कॉलेज में जाने पर पृथ्वीसिंह गोरखपुरिया तथा संगठन में सत्यपाल सिवाच के सांगठनिक व बौद्धिक कौशल का बहुत प्रभाव पड़ा।

शेर सिंह बताते हैं कि वह नौ बार में कुल 148 दिन जेल में रहे। पहली बार सन् 1973 में बरेली जेल भेजा गया था; बाद में उसी संघर्ष में दिल्ली जेल में भी रहे; जीन्द में कृषि विभाग के आन्दोलन के समर्थन में 16 दिन हिसार जेल में बिताए; सन् 1980 में और फिर 1987 में बुड़ैल जेल गए। सबसे लम्बी जेल अवधि 1996 के पालिका आन्दोलन की है जो लगभग दो महीने हो जाती है। जिसमें से सन् 1997 में 43 दिन भूख हड़ताल का समय है। वे 21 जनवरी 1997 से 4 मार्च 1997 तक आमरण अनशन पर रहे। सेवाकाल में छह बार निलंबन और तीन बार बर्खास्तगी का सामना किया। चार साल तक उनकी पदोन्नति रोके रखी गई।

उन्होंने कहा कि निस्संदेह, संघ का बनना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम साबित हुआ। उससे पहले के संघर्ष रीति रिवाज की तरह होते थे, संघ का आन्दोलन जुझारू था; मारामारी का दौर था; फैसलाकुन स्थिति थी; हमला था लेकिन अवसर भी था। लड़े – उत्पीड़न झेला। बहुत तकलीफें उठाईं। प्रतिष्ठा भी मिली और जीते भी। रोमांचकारी दौर था वह। एक और खास बात थी। बहुत मंथन के बाद सबकी राय से फैसले लेते थे। उन्हें दिल से पुगाते भी थे। बहस में उलझ भी जाते लेकिन सम्बन्धों में सुलझे रहते थे। आज मुझे ऐसा नहीं दिखता। बहुत कुछ पीछे छूट गया लगता है।

शेर सिंह बताते हैं कि पिता जी तो हौसला ही बढ़ाते थे। मुंशीराम आर्य ने सरकारी नौकरी के गुर सिखा दिए थे। पत्नी ओमपति को पिता जी ने प्रेरित किया था। वे प्रायः सहयोगी रहीं। बेटियों व बेटे की ओर से भी कभी दिक्कत नहीं आई।

वर्तमान माहौल में उनकी सलाह बहुत मायने रखती है। उनके मुताबिक सीधे संपर्क व घर जाकर मिलने को महत्व देना चाहिए। तकनीकी दौर में सम्बन्धों में भावनाओं का अकाल आया हुआ है। व्हाट्सएप ग्रुप्स में सूचना से उतना लगाव नहीं बनता। महिलाओं के प्रति सम्मान के प्रति रुख बदला हुआ है। अनेक साथियों को चरित्र सम्बन्धी मसलों के बाद संघर्ष से दूर होते देखा है। वे कहते हैं कि कथनी और करनी की समानता हमारा आदर्श रहा। उस पर ध्यान दिया जाए तो भरोसा जमता है। संगठन में आत्मालोचना का अभाव कमजोरी और गुटबाजी का कारण बन रहा है।

शेर सिंह का आकलन है कि आर्थिक स्थिति में बदलाव के चलते ठोस उपलब्धि होने की उम्मीद कम है। कथनी और करनी में समानता तथा पारदर्शिता के अभाव में नेतृत्व एकजुट नहीं है। राजनीतिक व सांगठनिक शिक्षा लगातार नहीं हो रही है। व्यापक जनसमर्थन जुटाने के बजाय सोशल मीडिया के सहारे बड़ा आन्दोलन कैसे खड़ा हो सकता है? आमरण अनशन करना या न करना, यह तो ठोस परिस्थितियों के आधार पर ही होता है।

वे बताते हैं- हमारा निर्णय सुविचारित होता था। इस बारे में दो बातें जरूर कहना चाहूंगा – पहला, जब आन्दोलन को पर्याप्त समर्थन मिल रहा हो तभी अनशन ज्यादा असरदार रहेगा। दूसरा, जिस साथी को आमरण अनशन करना हो उससे बहुत स्पष्टता से बात कर लेनी चाहिए। जहाँ तक अनशन की वजह से मृत्यु हो जाने के भय का सम्बन्ध है, वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। मृत्यु वास्तविक है तो किसी न किसी दिन आनी ही है तो पहले-पीछे का दबाव नहीं रहा।

लेखक सत्यपाल सिवाच

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