अपूर्वा दीक्षित की कविता – अन्तर्द्वंद

 कविता

 अन्तर्द्वंद

अपूर्वा दीक्षित

माँ कह रही थी अब मैं मुस्कुराता नहीं हूं,

 घर से जल्दी निकलता हूँ और वक्त पे’ आता नहीं हूँ।

मैं खुली छोड़ देता हूँ खिड़कियाँ अक्सर, और दरवाजे बंद रखता हूँ,

 मैं शांत रहने लगा हूँ ज्यादा अब आवाज़ अपनी मंद रखता हूँ। जो बनाती हैं मैं चुपचाप खा लेता हूँ,

करेला देख मुंह बिचकाता नहीं हूँ,

 मैं एक रोटी ज्यादा नहीं मांगता अपनी पसंदीदा सब्जी के साथ,

माँ कह रही थी मैं खाना ठीक से खाता नहीं हूँ!

मैं खोया खोया सा रहता हूं, ठीक से आजकल सोता नहीं हूं,

पापा की डाँट चुपचाप सुन लेता हूं, अब मैं पलट कर बोलता नहीं हूँ,

क्या हुआ पूछने पर सब ठीक है बताता हूँ,

माँ पास बुलाती है बैठने जब तो बात टाल कर निकल जाता हूँ,

मैं खामोश हूं किस वजह से उसे क्यूं बताता नहीं हूं।

अगर, दिल टूटा है मेरा तो क्यों उनकी गोद में सर रख कर रोता नहीं हूं,

मैं खो आया हूँ एक हिस्सा अपना अब रोज़ खिलौने खोता नहीं हूं,

जान गया हूं दुनिया दारी शायद, ख्वाब ज्यादा बुनता नहीं हूं,

लोग गिनवा देते हैं सौ बुराइयां मेरी, खैर मैं किसी की सुनता नहीं हूं!

चल रही है उथल पुथल बहुत जिंदगी में,

अब मैं किसी को मन की बात बताता नहीं हूं,

शायद ही गौर किया हो किसी ने की बदल गया हूं कितना मैं,

लेकिन मां कह रही थी अब मैं मुस्कुराता नहीं हूं…!

One thought on “अपूर्वा दीक्षित की कविता – अन्तर्द्वंद

  1. यह कविता “अन्तर्द्वंद” एक सूक्ष्म आत्मकथन है, जहाँ कवि ने आंतरिक पीड़ा, भावनात्मक टूटन और आत्मसंयम को बेहद सरल, मगर गहरे शब्दों में उकेरा है।

    दार्शनिक दृष्टि से यह रचना अस्मिता के संकट और परिपक्वता की दहलीज़ पर खड़े व्यक्ति की मानसिक दशा को उजागर करती है। यहाँ मौन, आत्मनियंत्रण और भावों का दमन — सब कुछ जीवन की अनिवार्य प्रक्रियाएँ प्रतीत होते हैं।

    भाषा में सहजता और आत्मीयता है, जो पाठक को सीधे हृदय से जोड़ देती है। आलोचनात्मक दृष्टि से यह कविता अत्यधिक भावुकता में भी संतुलित है और अनावश्यक अलंकरण से बची है। इसमें सकारात्मक संकेत यह है कि कवि आत्मसंवाद कर रहा है, जो आत्मचेतना की पहली सीढ़ी है।

    संक्षेप में – यह कविता एक गहरा मनोवैज्ञानिक दर्पण है, जो पाठक को अपने भीतर झांकने के लिए विवश करती है।

    धन्यवाद।

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