कविता
सुनो , तुम अब भी चांद देखते हो क्या?
अपूर्वा दीक्षित
ऊब चुका हो मन जब दुनिया की हर रीत से,
याद आए पुराने फसाने जब किसी मधुरिम गीत से,
दूर होना पड़ जाए बीच राह में ही अपने मीत से,
हार चुकी हो रूह तुम्हारी संघर्ष कोई ऐसा जीत के,
बेबस से बैठे यूं रातों को,
तारों की आंच पर जज़्बात अपने तुम भी सेंकते हो क्या?
ठिठक गया हो मन जैसे हर मन पसंद चीज़ से,
रंगों की जब चाह न बची हो,
मन जा लगा हो उसी पुरानी सी काली कमीज़ से,
एकाएक रुक जाओ जब घर की दहलीज पे,
या चौंक कर उठ पड़ो गहरी नींद के बीच में,
बेताब से फिर झुंझला कर कभी अपनी ही तकलीफ से,
चीज़ें तुम भी फेंकते हो क्या?
क्या बिछड़ा था कोई रांझा कभी किसी हीर से,
या साहिबा मिली कभी किसी मिर्ज़ा मीर से,
बांधे गए होंगे कितने आशिक यूं हालातों की जंजीर से,
फ़र्क किसको पड़ता है यहां किसी की पीर से,
जब शब्द न चुन सको लिखने को और हो जाओ अधीर से,
फिर फेंक कर ये काग़ज़ कलम सब तुम भी चुप से हैरान से,
आसमान को तकते हो क्या?
सुनो! तुम अब भी चांद देखते हो क्या?….