कर्मचंद केसर की हरियाणवी ग़ज़ल
चिड़िया बरगी धी नैं उड़ण नहीं देंदे।
मणस बाज से हाँड़्डण फिरण नहीं देंदे।
कलम बेच जो पड़े भूप के चरणांँ मैं,
झूठ फल्यावैं सच की चळण नहीं देंदे।
जाफर पैदा होर् ये सैं इब घर-घर मैं,
कितना बचले माणस,बचण नहीं देंदे।
मानवता के दुसमन ,सत्ता के लोभी,
भाई नैं भाई तै मिलण नहीं देंदे।
औरां काऩ्नी देख – देखकै जीवाँ साँ,
दुनियां आळे मन की करण नहीं देंदे।
म्हाभारत करवा दी सुगनी बरग्याँ नैं,
हम तो इसे-इस्याँ नैं बड़ण नहीं देंदे।
फिरैं दंगाई दंगा करते बस्ती मैं,
अमन-चैन,सुख-स्यान्ती रहण नहीं देंदे।
बणे चौधरी पूत करैं इब मनमरजी,
मात-पिता की कतिए चलण नहीं देंदे।
ओच्छे माणस ओच्छी हरकत कर-करकै,
केसर नैं बी सुख तै बसण नहीं देंदे।