नफ़स अम्बालवी की ग़ज़ल
हसद की आग में जब लोग जलने लगते हैं
तो जान बूझ के रस्ता बदलने लगते हैं
अजीब रस्म है रहते हैं हम जिन आंखों में
फिर एक दिन उन्हीं आंखों में खलने लगते हैं
अब ऐसे लोगों से क्या गुफ्तगू करें आख़िर
जो बात बात में लहजा बदलने लगते हैं
बहुत सुकून भी मिलता है पहली बारिश में
हाँ च्यूंटियों के मगर पर निकलने लगते हैं
मैं मुद्दतों से कड़ी धूप के सफ़र में हूं
कभी कभी तो मेरे पाँव जलने लगते हैं
ये रेगज़ार ये तन्हाइयां ये ख़ामोशी
जहां भी जाऊं मेरे साथ चलने लगते हैं
उफ़क़ पे जब भी किसी दिन का क़त्ल होता है
अँधेरे शाम का सूरज निगलने लगते हैं
ये मैक़दा है यहां लग़ज़िशें न देख ‘नफ़स’
यहां तो रिंद भी पी कर सँभलने लगते हैं
हसद – जलन, ईर्ष्या
रेगज़ार – रेगिस्तान
उफ़क़ – क्षितिज
लग़ज़िशें – लड़खड़ाहट