हकीकत से अनजान ही नहीं पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं नेहरू को कोसने वाले

राम मंदिर, सोमनाथ मंदिर, नेहरू-कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता और भाजपा

ओम प्रकाश तिवारी

संविधान से शासित राष्ट्र और उसके प्रमुख को कैसा व्यवहार करना चाहिए? यह सवाल आज प्रमुख हो गया है। अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के संदर्भ में यह सवाल अहम तो है ही कांग्रेस और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर आक्षेप लगाने के संदर्भ में भी अहमियत रखता है कि सत्ताधारी दल भाजपा के नेता और उसके समर्थक लोग यह कह रहे हैं कि कांग्रेस ने 22 जनवरी के राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में जाने से इनकार करके हिंदुओं का अपमान किया है। हिंदू धर्म का अपमान हिया है। इसी संदर्भ में यह कहा जा रहा है कि जवाहर लाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर को बनाने और प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का विरोध किया था। उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक दैनिक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा है कि नेहरू को सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार का अवसर मिला पर वह डिस्कवरी लिखते रहे। विरासत को भूल गए।


सबसे पहले योगी जी के इस कथन पर गौर करते हैं। उनका यह कथन क्या सही है? इसके उत्तर को जानने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि सोमनाथ मंदिर का ​पुनरुद्धार कब हुआ? नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया यानी भारत एक खोज कब लिखी? और उसके क्या लिखा? जवाब है कि डिस्कवरी ऑफ इंडिया नेहरू में जेल में रहते लिखी और उसके भारत की विरासत का ही जिक्र है। जबकि सोमनाथ मंदिर आजादी के बाद बना।


विकीपीडिया में लिखा गया है कि डिस्कवरी ऑफ इंडिया को जवाहरलाल नेहरू ने 1942-1945 में भारत की आजादी से पहले ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा वर्तमान भारतीय राज्य महाराष्ट्र के अहमदनगर किले में कैद रहने के दौरान लिखा था। पुस्तक 1944 में लिखी गई थी, लेकिन प्रकाशित 1946 में हुई।


द डिस्कवरी ऑफ इंडिया की यात्रा प्राचीन इतिहास से शुरू होती है, जो ब्रिटिश राज के अंतिम वर्षों तक जाती है। नेहरू उपनिषदों, वेदों और प्राचीन इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के अपने ज्ञान का उपयोग पाठक को सिंधु घाटी सभ्यता से भारत के विकास, हर विदेशी आक्रमणकारी द्वारा लाए गए सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव और वर्तमान परिस्थितियों से परिचित कराने के लिए करते हैं। नेहरू को अन्य भारतीय नेताओं के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए जेल में बंद किया गया था। उन्होंने इस समय का उपयोग भारत के इतिहास के बारे में अपने विचारों और ज्ञान को लिखने के लिए किया। यह पुस्तक भारतीय इतिहास, दर्शन और संस्कृति का व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जैसा कि अपने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे एक भारतीय की नजर से देखा जाता है।


वहीं, सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार के बारे में विकीपीडिया में लिखा गया है कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का आरंभ भारत की आजादी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने करवाया। पहली दिसंबर 1955 को भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इस मंदिर को राष्ट्र को समर्पित किया।


जाहिर है कि साक्ष्य योगी आदित्यनाथ के बयान से मेल नहीं खाते हैं। यह आक्षेप अच्छी भावना से नहीं लगाया गया है। अतार्किक विरोध का उदाहरण है जोकि एक गलत अवधारणा से निकला है। यह भी परिल​​क्षित करता है कि कहने वाला पूर्वाग्रह से ग्रसित है। वह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का सम्मान नहीं करता है और उनकी छवि को खंडित करने का प्रयास करता है।


यह सही है कि नेहरू सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार के लिए उस समय सहमत नहीं था। उसका कारण था कि वह उस समय देश यानी भारत राष्ट्र का निर्माण और पुनरुद्धार करना चाहते थे।

आजादी के बाद जो देश मिला था उसे संभालना बहुत जरूरी था। यही वजह थी कि वह चाहते थे कि पहले राष्ट्र का पुनरुद्धार हो जाए उसके बाद मंदिर का हो जाएगा। उनकी इस भावना या विचार को गलत कैसे कहा जा सकता है? धर्म या मंदिर निजी मसला है, जबकि देश सभी देशवासियों का होता है। देश और उसके नागरिकों का विकास और संपन्नता चाहना गलत कैसे हो सकता है? उन्होंने कहा था कि मंदिर को बाद में और भव्य तरीके से बनाया जा सकता है। लेकिन उनके ही सरकार के गृहमंत्री और एक अन्य मंत्री नहीं माने। नेहरू ने उन्हें मंत्रिमंडल से नहीं निकाला। उस समय के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल हुए जबकि नेहरू नहीं चाहते थे।

नेहरू चाहते थे कि मंदिर का निर्माण जनता करे। उसकी वह ऐसा इसलिए चाहते थे की वह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को मानते थे।सरकार शामिल न दिखे। वह ऐसा इसलिए चाहते थे कि वह धर्मनिरपेक्ष मूल्य को मानते थे। उनकी ऐसी छवि थी और संविधान देश की सरकार को धर्मनिरपेक्ष रहने के लिए निर्दे​शित करता है। नेहरू केवल अपनी छवि के लिए नहीं ब​ल्कि सरकार, देश की छवि के लिए असहमत ​थे। वह चाहते थे कि संविधान के मूल्य की रक्षा की जाए उसकी छवि बनी रहे। इसमें वह गलत थी नहीं ​थे। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतां​त्रिक देश की सरकार का और उसके मु​खिया का यही कर्तव्य भी होता है।


इस समय अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए जो कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है वह कहीं से भी ​धार्मिक नहीं लग रहा है। वह धार्मिक होते हुए भी सत्ता प्रयोजित है और राजनीतिक बना दिया गया है। यह धर्म निरपेक्ष संविधान के विपरीत कृत्य है। धर्म निरपेक्ष लोकतां​त्रिक देश की छवि को खंडित करने वाला है। मंदिर के अधूरे या पूरे होने का मसला धार्मिक है। उसे धर्माचार्य बेहतर जानते हैं और बता सकते हैं। बता भी रहे हैं, लेकिन वहां पर देश के प्रधानमंत्री का जाना और उनकी पार्टी के अनुषांगिक संगठनों के माध्यम से इस पर राजनीति करना उचित नहीं प्रतीत होता है।

यह धर्मनिरपेक्ष संविधान के मूल्यों के ​खिलाफ है। इससे देश की छवि पूरी दुनिया में एक धर्म विशेष की बनती है। जिसका संदेश पूरी दुनिया में सही नहीं जा रहा है।


हालत यह है कि इस कार्यक्रम की वजह से सरकार अन्य महत्वपूर्ण कामों से विमुख सी हो गई है। आने वाले लोकसभा में चुनावी फायदे के​ लिए यह आयोजन किया गया है। ऐसे में कांग्रेस के तीन नेताओं का वहां नहीं जाने का फैसला सही है। जिस प्रधानमंत्री ने उन्हें संसद में नहीं बोलने दिया। बहाने से बाहर का रास्ता दिखा दिया।

उस प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए वह अयोध्या क्यों जाएं? एक मंदिर तो मन में भी होता है। मंदिर घर में भी होता है। मंदिर में जाने के लिए किसी के बुलावे की जरूरत नहीं होती है। जब एक राजनीतिक दल किसी धार्मिक कार्यक्रम का राजनीतीकरण करता है तो दूसरे सियासी दलों को इससे दूरी बना ही लेनी चाहिए। खास करके तब जब कि देश की छवि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की हो। संविधान धर्मनिरपेक्ष हो।