आजादी, आजादी की रक्षा और मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन है महाराष्ट्र ‘विशेष जन सुरक्षा विधेयक
आकार पटेल
इसी सप्ताह हमने स्वतंत्रता दिवस मनाया, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम का चरमोत्कर्ष था। लेकिन आज़ादी और किससे आज़ादी? विदेशी शासन से और दमनकारी कानूनों से—चाहे उन्हें हम पर किसी ने भी थोपा हो। महाराष्ट्र के राज्यपाल सी पी राधाकृष्णन के पास राज्य सरकार द्वारा पारित एक विधेयक विचाराधीन है, जिसे ‘महाराष्ट्र विशेष जन सुरक्षा विधेयक’ कहा गया है।
मैंने एम्नेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की तरफ से राज्यपाल को इस बारे में लिखा है और इस विधेयक पर हस्ताक्षर न करने का आग्रह करते हुए इससे सहमत होने से इनकार करने का अनुरोध किया है। इस विधेयक को ऐसे लोगों से निपटने वाला बताया गया है जिन्हें ‘शहरी नक्सल’ या अर्बन नक्सल कहा जा रहा है, लेकिन यह विधेयक संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित मानवाधिकारों के लिए खतरा है। नक्सलवाद को दशकों पुराने ग्रामीण और कम्युनिस्ट-प्रेरित आंदोलन के तौर पर माना जाता है। इन दिनों “शहरी नक्सलवाद” को लेकर जो चर्चा होती है, उसका तात्पर्य संभवतः बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों और अन्य लोगों द्वारा इस आंदोलन को दिए जा रहे कथित समर्थन से है।
भारतीय कानून में “शहरी नक्सलवाद” शब्द की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। अपनी अस्पष्ट भाषा, भेदभावपूर्ण फोकस, न्यायिक निगरानी के अनुपस्थिति और इस कानून के दुरुपयोग की बहुत अधिक संभावना के कारण, यह विधेयक हमारे सबसे बड़े राज्यों में से एक में ऐसी असहमति को अपराध ठहराने वाला है जो वैध हैं। इस विधेयक में अस्पष्ट, अतिरंजित और वैचारिक रूप से पक्षपातपूर्ण प्रावधान हैं, जो अंतरराष्ट्रीय और संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकारों के लिए खतरा पैदा करते हैं और राज्य में किसी भी असहमति को अपराध बना देंगे।
जैसी कि उम्मीद थी, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस विधेयक के बारे में ज़ोर देकर कहा है कि इस क़ानून का इस्तेमाल सरकार के आलोचकों की आवाज दबाने के लिए नहीं किया जाएगा। लेकिन अगर भारत में “शहरी नक्सलवाद” शब्द की कोई क़ानूनी परिभाषा नहीं है, तो फिर यह क्या है? ये एक जुमला और राजनीतिक रूप से उकसाने वाला मुहावरा है – जो मीडिया और राजनीतिक विमर्श में खूब इस्तेमाल होता है, लेकिन न्यायशास्त्र में कहीं नहीं है।
इस विधेयक में बहुत कुछ स्पष्ट न होना ही इसे नागरिक समाज के खिलाफ हथियार बनाने का मौका देती है, और इस तरह शांतिपूर्ण असहमति को राजद्रोह या आतंकवाद से प्राय: जोड़ दिया जाता है। इस बाबत एक परेशान करने वाली मिसाल है।
भीमा कोरेगांव मामला हमारे सामने है, जिसमें 16 सामाजिक कार्यकर्ताओं को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था। उस केस से हमारे सामने आया है कि कैसे इस लेबल (शहरी नक्सल) का इस्तेमाल लोगों को बिना मुकदमे के सालों तक हिरासत में रखने के लिए किया गया है या किया जा रहा है।
इस मामले में जिन भी लोगों को गिरफ्तार किया गया, उनमें से कई आरोपी किसी भी हिंसा से जुड़े नहीं थे, बल्कि सिर्फ़ आलोचनात्मक विचारों की अभिव्यक्ति, हाशिए पर पड़े समुदायों की वकालत, या नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा से जुड़े थे। गौरतलब है कि ये गिरफ्तारियां 2018 में देवेंद्र फडणवीस के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में पहले कार्यकाल के दौरान शुरू हुई थीं। सात साल बाद भी, इस मामले में मुक़दमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई हैं, छह कार्यकर्ताओं की ज़मानत खारिज कर दी गई है, और एक आरोपी, फादर स्टेन स्वामी की तो हिरासत में मौत ही हो चुकी है।
शहरी नक्सल नैरेटिव ने अहिंसक राजनीतिक विरोध और हिंसक उग्रवाद के बीच की रेखा को ख़तरनाक रूप से धुंधला कर दिया है। यह एक ऐसा घालमेल है जो न केवल भारत के संवैधानिक मूल्यों के साथ असंगत है, बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय कानूनी जिम्मेदारियों का भी उल्लंघन करता है।
इस कानून में भेदभाव जैसे विचलित करने वाले अन्य तत्व भी हैं। इसके शुरुआती पैराग्राफ में “वामपंथी उग्रवादी संगठनों या इसी तरह के संगठनों” को इसके केंद्र में बताया गया है। इस तरह इस विधेयक में अपराधीकरण के लिए विचारधाराओं को चिन्हित किया गया है और नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन करता है, जो राजनीतिक विचारों की परवाह किए बिना कानून के तहत समान सुरक्षा की गारंटी देता है और जिस पर भारत ने हस्ताक्षर किए हैं। हिंसा भड़काने या उसमें भागीदारी के सबूत के बिना केवल विचारों के आधार पर किसी संगठन की सदस्यता को दंडित करना भी भारतीयों के अधिकारों का उल्लंघन है।
कानून में “गैरकानूनी गतिविधि” को अस्पष्ट और व्यक्तिपरक शब्दों का प्रयोग करके परिभाषित किया गया है, जैसे “सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा” या “कानून के प्रशासन में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति।” इन परिभाषाओं में शांतिपूर्ण विरोध या सविनय अवज्ञा, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम के मूलभूत तत्व हैं, शामिल हो सकते हैं।
कानून की धारा 3 कार्यपालिका को संगठनों को “गैरकानूनी” घोषित करने का अधिकार देती है, लेकिन इसमें फौरी और निष्पक्ष न्यायिक समीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे कदमों की समीक्षा करने वाले सलाहकार बोर्ड में केवल सरकार द्वारा नियुक्त लोग शामिल होंगे, यानी वे कंगारू अदालतें होंगी।
कानून की वे धाराएं जो सिर्फ किसी अधिकारी की “राय” या “व्यक्तिगत जानकारी” के आधार पर तलाशी और ज़ब्ती की अनुमति देती हैं, न्यायिक सुरक्षा उपायों को खत्म कर देती हैं और मनमानी कार्रवाई का रास्ता खोल देती हैं। यह तलाशी के दौरान निष्पक्ष सुनवाई और उचित प्रक्रिया की गारंटी देने वाले उन अधिकारों का उल्लंघन करता है, जो व्यक्तियों को उनके घर, संपत्ति और निजता में गैरकानूनी हस्तक्षेप से बचाता है।
इसकी धारा 14 अपील पर रोक लगाती है, जबकि धारा 17 सरकारी अधिकारियों को दुर्व्यवहार के मामलों में भी पूरी तरह से छूट देती है। ऐसे प्रावधान जवाबदेही को खत्म कर देते हैं।
जैसा कि चलन बन गया है, जेल में बंद लोगों पर औपनिवेशिक शैली (अंग्रेजों के जमाने में जैसा होता था) का अत्याचार इस कानून में भी मौजूद है। धारा 15, विधेयक के तहत सभी अपराधों को गैर-जमानती और संज्ञेय बनाती है, भले ही उनकी परिभाषाएं अस्पष्ट हों। इससे न्यायिक जांच के बिना मुकदमे से पहले लंबी हिरासत में रखने की छूट मिल जाती है।
बाकी सब बातों के अलावा, इस कानून की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि भारत में पहले से ही आतंकवाद-रोधी और आपराधिक कानून, जैसे कि यूएपीए, मकोका और भारतीय न्याय संहिता (बीएनएश) मौजूद हैं जो बेहद प्रतिबंधात्मक हैं, जो समान या इससे मिलते-जुलते कथित आचरण को अपराध मानते हैं। इस तरह नया विधेयक असहमति को दबाने के लिए एक और हथियार के रूप में सामने आता है, जो कानूनी प्रक्रिया को ही सज़ा में बदल देता है और नागरिक स्वतंत्रताओं को और कम करता है।
अगर इस विधेयक पर हस्ताक्षर करके राज्यपाल ने इसे लागू कर दिया, तो सुरक्षा की आड़ में यह कानून मौलिक अधिकारों की कीमत पर राज्य की शक्ति का गंभीर और अनावश्यक विस्तार करेगा। महाराष्ट्र की सुरक्षा करने के बजाय, यह असहमति, बहस और जवाबदेही को अपराध बनाता है। “शहरी नक्सल” जैसे अस्पष्ट शब्दों के दुरुपयोग से पहले ही भारी नुकसान हो चुका है। इस विधेयक को मंजूरी देने से एक ऐसे ढांचे को वैधता मिलेगी जो न्याय के बजाय दुरुपयोग और न्याय के बजाय सजा को बढ़ावा देता है।
इसीलिए मैंने राज्यपाल महोदय से अत्यंत सम्मान के साथ इस विधेयक पर अपनी स्वीकृति रोकने का आग्रह किया है। स्वतंत्रता दिवस का उत्सव केवल ध्वजारोहण, सलामी और लंबे भाषणों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। हमें स्वतंत्रता, नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा, मानवाधिकारों के संरक्षण और न्याय तक पहुंच के प्रति अपनी निरंतर प्रतिबद्धता का सम्मान करना चाहिए। यह कानून इन सभी का उल्लंघन करता है और इसीलिए आशा है कि यह भारतीयों पर थोपा नहीं जाएगा।(नवजीवन से साभार)
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