कभी फुर्सत मिले तो सोचना !

कभी फुर्सत मिले तो सोचना !

-मंजुल भारद्वाज

 

तुम स्वयं

एक सम्पति हो

सम्पदा हो

इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में

कभी पिता की

कभी भाई की

कभी बेटों की !

आदि काल से आज तक

युद्ध

तुमको हासिल कर जीते गए

हार गए तो तुम्हें

जीते हुए को सौंपकर

तख़्त-ओ-ताज बचाए गए !

रिश्ते भावनात्मक जाल हैं

जिससे पितृसत्तात्मक व्यवस्था

शोषण करती है तुम्हारा

कभी देखो रिश्तों की

परत खोलकर

उनमें गज़ बजाती कीडनाल

नज़र आएगी !

किताब पढ़कर

बाज़ार में बदन बेचकर

तुम स्वतंत्र नहीं हुई

उल्टा और गहरे

झेरे में फंस गई हो !

कभी अंदाज़ा लगाया है

शोषण,अमानवीयता के

अंधे गहवर में

युगों –युगांतर में फंसी हुई हो तुम !

पितृसत्तात्मक व्यवस्था के श्रृंगार से सजी

वो चंद्रयान भेजने वाली

तुमने मणिपुर में

उस महिला का बयान सुना

उस महिला ने कहा

मेरे बेटे ने, मेरी कौम के लिए

महिलाओं को निर्वस्त्र करके

सरेआम घुमाया !

माँ का यह कैसा रूप है?

सोचा?

हाँ, एक ने कहा तो …

सब एक जैसी थोड़े ना है …

दहेज़ में जलने वाली

भूखा मरने वाली

लड़के को मर्द बनाने वाली

लड़का -लड़की में भेद करने वाली

यह एक एक करके अनेक हो जाती हैं !

कभी सांस लो

शरीर के अलावा

मुक्त इंसान बनकर !

धर्म ने, जात ने तुम्हें

इंसान नहीं माना

पर संविधान ने

तुम्हें इंसान भी माना

और बराबरी का संवैधानिक हक़ भी दिया !

पर 75 साल में तुमने

कभी संविधान को नहीं समझा

बस धर्म के कर्मकांडों में उलझी रही

ऐसे बेटों को जनती रही

जो कौम के लिए

महिलाओं से बलात्कार करें !

आधी आबादी हो

लोकतंत्र में हो

क्यों नहीं

अपने बहुमत का

परचम संसद में लहराती !

कभी फुर्सत मिले तो सोचना …