पगली कोयल

पगली कोयल

नूर मोहम्मद नूर

आम नहीं ख़ाली डालो पर पत्ती डोल रही है
पगली कोयल फिर भी
कुहू कुहू बोल रही है
नीरव मे रस घोल रही है

अंधी पानी में
सारे मोजर झड़ गए कभी
बात समझ लेनी चहिए थी
इस कोयल को तभी
फिर भी अमराई मे अबतक
ससुरी डोल रही है
पगली कोयल,,,,

रंग उड़ गए, डालें टूटीं
पत्ते गए बिला
तेज़ हवाएं अंधी बनकर
सबकुछ गईं हिला
चुप रहना था दुख से
मुंह पर, अपना खोल रही है
पगली कोयल,,,,,

अमराई से प्रेम है इतना
उड़कर नहीं गई
यहीं रही टूटी डालो पर
डर कर, नहीं गई
उजड़ी अमराई मे ही
स्वर रंगत घोल रही है