नासिरा शर्मा की कविता- चलो चलते हैं गाजा…

गाजा में जो कुछ हो रहा है वह बहुत ही दर्दनाक है। समाचारों में रोजाना मरने वालों की संख्या पढ़ते-पढ़ते हमारी संवेदनाएं भी कुंद होती जा रही हैं। अभी वहां की एक पत्रकार ने बहुत ही खौफ़नाक दास्तां फेसबुक पर पोस्ट की। वहां लोग भूखों मर रहे हैं। आम नागरिकों की बात तो दूर अब तो पत्रकार भी भूख से मर रहे हैं। लेकिन दुनिया चुपचाप इस मंजर को देख रही है और इसराइल और नेतन्याहू के अपराध में चुपचाप शामिल हो रही है। अब वहां के हालात पर  अपने फेसबुक अकाउंट पर प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा ने अभी कुछ देर पहले ही एक कविता पोस्ट की है। प्रतिबिम्ब मीडिया बगैर उनकी अनुमति लिए क्षमायाचना समेत साभार उसे प्रकाशित कर रहा है-

 

कवि का वक्तव्य

दोस्तों!

मेरे अहसास आपके सामने हैं कविता है या तुकबंदी या फिर अक्षरों का कोलाज जो चाहें समझ सकते हैं लेकिन मेरे लिए इज़हार ज़रूरी था ।

 

चलो चलते हैं गाजा…

 

चलो चलते हैं ग़ाज़ा…

चलो भूख के क़ाफ़िले को देखने चलो

जहाँ बच्चे फिर रहे हैं लावारिस खंडहरों के बीच

ढूँढ रहे हैं खोये हुए माँ – बाप, दादा-दादी, बहन-भाई को

जो मलबे के नीचे दबे दम तोड़ चुके हैं

जो ज़िंदा हैं वह खा रहे हैं घाँस को

कट चुके हैं उनके ज़ैतून के दरख़्त दादा के लगाये

सूख गई हैं अंगूर की बेलें,अनार के पेड़

चलो बहुत रोमांचक रहेगा अपने समय के होलोकास्ट को देखना

एक नए रंग व रूप में , अत्याचार के तकनीकी बारूद में

चलो , दी पियानिस्ट फ़िल्म के दृश्यों को दोहराने

इस काल के चश्मदीद गवाह बनने

हमें देखेंगे सब इंस्टाग्राम पर ,गाएँगे गुनगान हमारी बहादुरी का ।

सिलसिला

बचपन में सुना था एक पैग़म्बर के बारे में

भूख से जब पेट चिपक जाता था उनका पीठ से

बाँध लेते थे पत्थर को पेट पर ताकि

पता न चले उनके फ़ाक़े का किसी को और

कुलबुलातीं बेचैन अतडियाँ भूख से उनकी शाँत हो जायें

ऐसे थे मेहनतकश पैग़म्बर कल के

अब वह ज़माना लद गया जब पैदा होते थे

पैग़म्बर

लेकिन आज भी दोहराते हैं लोग उनकी बातों को

फिलिस्तीन में

बाँध लेते हैं पत्थर को पेट पर ताकि सधा रहे शरीर उनका

धैर्य में रहे भूख, समझे ज़मीन से दर- बद्री का दर्द

जो दफ़्न हो रहे हैं ज़मीन में , बसा रहे हैं एक नया शहर

बातें कर रही हैं रूहें उनकी,सलाह मशविरा कर रहे हैं जो गुजरी पीढ़ियों से

जो नक़बे के चलते वह भी गिनते रहे थे अपने पुरखों के क़दम

जो छोड़ते घर और खेत , खदेडे जाते थे इन सब से दूर

देखते थे हसरत से मुड़ कर जली फसलों कटे पेड़ों और ताला पड़े घरों को

मंज़र वही है मगर बदल गए हैं पैग़म्बर,

अब वह ख़ुदा से बातें नहीं करते बस पुकारते हैं उसे

भूलते नहीं हैं किसी भी तरह अपने सिलसिले को।

ज़ायनवाद

जिस समंदर पर बनाया था रास्ता कभी मूसा ने

जिस पर चलकर पहुँचे थे फिलिस्तीन ,ज़ंजीरों से आज़ाद यहूदी

उसी पानी की लहरों पर तैर रही हैं हज़ारों बोतलें खाद्य सामग्री से भरी अरीज़े की तरह

ग़ाज़ा के उस पार से , जार्डन और मिस्र से भेजी गई हैं जो भूख से तड़पते लोगों के लिए

बनती बिगड़ती लहरें क्या पहुँच पायेंगी उन तक

जैसे पहुँचाया था कभी डाली में रखे नौनिहाल को

या फिर वह भी बेध दी जायेंगी गोलियों की बौछार से

या फिर समेट ली जायेंगी किसी नई तकनीक से

अब मुक़ाबला है हज़रते ख़िज़्र से नेतन्याहू का ।

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