‘कलाकार’ अपने पेट के बजाय अपने ‘कलात्मक’ आलोक से आलोकित होते हैं !
कलाकारों का अर्थ उपार्जन और जीविका !
मंजुल भारद्वाज
हर प्राणी को ब्रह्माण्ड में जीने के लिए ‘भोजन’ की आवश्यकता अनिवार्य है चाहे वो मिट्टी हो, पानी हो, वनस्पति, मांस या अन्य धातु जिससे शरीर स्वस्थ रहे, पेट भरे और प्राणी जीवित रहे। प्रकृति ने सभी प्राणियों के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया कराये हैं या उपलब्ध हैं । मनुष्य को छोड़ सभी प्राणी अपना भरण पोषण प्रकृति के अनुसार करते हैं या मनुष्य द्वारा स्थापित ‘व्यवस्था’ के अनुसार अपना भरण पोषण करते हैं। हाँ, मनुष्य के जीवन यापन के लिए अर्थ सृजन की आवश्यकता होती है । मनुष्य सभ्य है, सभ्यता का निर्माण किया है, ‘व्यवस्था , सत्ता कायम की है और हर ‘व्यवस्था’ के जीवन यापन के सूत्र अलग अलग होते हैं या यूँ कहें कायदे कानून बने हुए है या सरकारें हर समय ‘रोज़गार’ शब्द के सप्तरंगी छतरी के नीचे लोक लुभावन सपने बिखेरती रहती हैं। हर व्यवस्था, सत्ता के यह प्रशासकीय हथकंडे और सूत्र होते हैं ।
मनुष्य जितना ‘सभ्य’ होता जा रहा है उसका ‘पेट’ अन्य प्राणियों के मुकाबले बढ़ता जा रहा है । जो जितना बड़ा, जितना विकसित, जितना आधुनिक , जितना तानाशाह या जितना लोकतान्त्रिक उतना ही उसका ‘पेट’ बड़ा हो जाता है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र ‘अमेरिका से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ‘भारत’ तक। इसकी वजह ‘पेट’ का आकार नहीं ,अपितु ज़रूरत के बजाय ‘लालच’ को ‘विकास’ मान लेने के भ्रम की है। वैज्ञानिक युग ,विज्ञान के तौर तरीकों और विज्ञान से उपजी ‘तकनीक’ के व्यापारिक, मुनाफाखोरी, ‘खरीदने और बेचने’ के वर्चस्ववादी युग के ढकोसलों की है।
सारी धरती प्रकृति की है … ये ‘विकसित’ मनुष्य को स्वीकार नहीं हैं , “सारी धरती उसकी” ये मन्त्र है इस ‘विकसित’ मनुष्य का , इसलिए ‘ज़रूरत को अनिवार्य ‘लालच’ का रूप देने के लिए चौबीस घंटे हजारों चैनल पूरे ब्रह्माण्ड में ‘मुनाफ़े’ के लिए पूरे ‘ब्रह्माण्ड’ के संसाधनों को ‘लूट’ रहे हैं। ऐसे में चंद ‘लोग’ ऐश कर रहे हैं और बाकी अपना पेट भरने के लिए हर पल मारे मारे फिर रहे हैं … ’फिर’ भी मनुष्य अपने आप को ‘शिक्षित और सभ्य” कहता है बड़ी शान से और पूरी प्रकृति उस पर ‘हंसती’ है , खैर …
आदिम काल से लेकर आज के ‘वैज्ञानिक सभ्यता” के दौर तक मनुष्य को जीवन यापन के लिए अपने शारीरिक बल का उपयोग करना पड़ता है। उत्क्रांति के ‘ पैदल, पहिये और पंख’ के हर उपादानों के दौर में मनुष्य के शारीरिक श्रम का अर्थ उपार्जन में अहम भूमिका है। आदिम काल में ‘शारीरिक बल’ ही श्रेष्ट था । जिसका जितना बल उतनी उसकी सम्पत्ति। बुद्धि के विकास ने ‘शारीरिक बल’ को ‘अर्थ’ उपार्जन के सबसे निचले पायदान पर फेंक दिया। आज जो मनुष्य केवल और केवल ‘शारीरिक श्रम’ से अपनी जीविका चला रहा है वो इस ‘सभ्य और शिक्षित’ समाज के हाशिये पर हैं , जो ‘शारीरिक श्रम’ के साथ थोड़ा कौशल का उपयोग करते हैं …वो थोड़ा बेहतर … जो केवल ‘लैंगिक’ व्यवहार का उपयोग करते हैं वो ‘बेहतर और बदतर’ …जो बुद्धि का उपयोग करते हैं वो ‘समाज’ के उपर वाले तबके में हैं । यानी मनुष्य के इस दौर में अर्थ उपार्जन के चार तरीके हैं 1.शारीरक श्रम एवम् कौशल 2. भाव भंगिमा और कौशल 3. लैंगिक व्यवहार 4. चेतना ,बुद्धि और विचार !
कला और कलाकार का अर्थ उपार्जन कैसे हो? कला ‘चेतना’ है , विद्रोही है , मनुष्य को मनुष्य बनाने और बनाये रखने का माध्यम है । इस दुनिया में कई ‘व्यस्थाएं’ रहीं है जो ‘कला और कलाकार’ को अपने दरबार में अपनी सत्ता के प्रचार प्रसार के लिए उपयोग करती है, आज भी कर रहीं हैं। ‘व्यस्थाएं’ इन कलाकारों को भोग और विलासता के सारे संसाधन मुहैया कराती हैं। आजकल ग्रांट, अनुदान इनके लिए उपयुक्त शब्द हैं। चूँकि ‘कला और कलाकार’ विद्रोही होते हैं …इसलिए सत्ता से उनका संघर्ष होता है , जन सरोकारी होने की वजह से ऐसे ‘कलाकार’ जनता के बीच ‘जनता’ की तरह अपना गुजर बसर करते हैं . और सत्ता के दमन की तरह तरह की यातना सहते हैं …चाहे हो सरकारी हो या सामजिक हो !
भौतिक विकास, लालच, सत्ता और शोहरत की चकाचौंध ने कलाकारों को सम्भ्रमित किया है। सत्ता ने एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत ‘कला’ को पेट भरने का साधन मात्र बना दिया है और कलाकारों को एक पेट भरने वाली भीड़। सत्ता ने ये इसलिए किया है ताकि ‘सत्ता’ जनता का शोषण करती रहे और उसको ‘सवाल’ पूछने वाले कलाकार , जनता को जागरूक करने वाले कलाकार, कला को चेतना का सर्वोपरि माध्यम मानने वाले कलाकार पैदा ही ना हो। ..ऐसा करके सत्ता अपने खिलाफ़ ‘विद्रोह’ को दबाती है। कला और कलाकारों की एक ऐसी भीड़ का निर्माण करती है जो ‘सत्ता’ के टुकड़ों पर बन्दरबांट करते रहे ! ऐसे समाज का निर्माण करती है सत्ता जहाँ ‘कला और कलाकार’ को मात्र नाचने गाने वाले ‘तुच्छ’ तबके के रूप में देखा जाता है या उपभोग के ‘भोग्यात्मक’ रूप में । कोढ़ में खाज पढ़ा लिखा अनपढ़ , शोहरत पिपासु ‘मध्यम वर्ग’ जो हर तरह का सुख भोगना चाहता है किसी भी कीमत पर। आज की शोषणवादी व्यवस्था का ‘वाहक’ है ये ‘‘मध्यम वर्ग’। ‘लालच’ का सिरमौर’ है ये ‘मध्यम वर्ग’। आधी अधूरी ‘सोच’, आधा अधुरा ज्ञान, आधा अधूरा जीवन, और सपने पूरी दुनिया पर कब्जा करने के। इन्हीं रंगीन सपनों को पाने के लिए “विकास’ के अभिशाप महानगरों का निवासी है ये ‘मध्यम वर्ग’ !
इन महानगरों में अपने सपनों को पाने के लिए हर पल ‘भीड़’ में विशेष होने के अभिनय में माहिर हो गया है ये ‘मध्यम वर्ग’। हर तरह के कृत्रिम बाज़ार का ग्राहक है ये ‘मध्यम वर्ग’। हर तरह की लताड़ सहने में माहिर है ये ‘मध्यम वर्ग’। सबका साथ और सबका विकास का भक्त है ये ‘मध्यम वर्ग’। पर अफ़सोस ये मध्यम वर्ग “थोड़ा है ..थोड़े की ज़रूरत है” के चक्रव्यूह को नहीं तोड़ पाता और अपने ही दिखावटी सपनों के जाल में फंसकर ‘शोषित’ होता रहता है और ‘विकास’ का भजन गाता रहता है । इस शोषण चक्र से इस ‘मध्यम वर्ग’ को मुक्ति दिलाता है या दिला सकता है ,वो है ‘कलाकार’! पर ये ‘मध्यम वर्ग’ पूंजीवादी व्यवस्था के षड्यंत्र सूत्र “मनोरंजन के लिए कला’ का भक्त है। इस भक्तिभाव के ‘तहत’ वो एक ऐसे ‘कलाकारों’ के समूह को प्रोत्साहित करता है जो कला के ‘भोगवादी’ पक्ष के प्रचार प्रसार में माहिर हो। ऐसे कलाकारों को ये ‘मध्यम वर्ग’ अपने एस ऍम एस से चुटकी बजाकर सुपर स्टार बनाता है और शोहरत के आसमान पर बिठाता है। पर ‘कला के चेतनात्मक’ पक्ष का सबसे बड़ा ‘शत्रु’ है ‘मध्यम वर्ग’ !
विकास के महानगरीय ‘विनाश’ टापुओं में “मनोरंजन के लिए कला’ को मानने वाले ‘कलाकारों’ की भीड़ है। जो मध्यम वर्ग के इशारों पर नाचती है और ‘मध्यम वर्ग’ की तरह ही कहीं नहीं पहुँचती। बस घूमती रहती है अपने ही भ्रम जाल में, और शोषण वादी ‘सत्ता’ का राजपाट इसी ‘मध्यम वर्ग’ के भ्रमजाल के ‘पहिये’ पर चलता है।
कलाकार का मकसद केवल पेट भरना नहीं होता। इसका मतलब ये नहीं है की ‘कलाकार’ को जीवन यापन की मौलिक सुविधाओं की दरकार नहीं है। जो ‘कलाकार’ है उसे जीवन यापन की कला भी आती है। और जो रोज़गार की भीड़ में लगा है उसकी बात और है। कलाकार को ‘कला’ का मकसद समझना होगा , विकास के नाम पर ‘विनाशलीला’ के षड्यंत्र को समझना होगा। सत्ता के षड्यंत्र को समझना होगा, उसके अनुदान के टुकड़ों से आगे सोचना होगा, समाज की ‘चेतना’ की जड़ता को तोड़ना होगा । कलाकार केवल गाना गाने वाले, नाचने वाले हुनरमंद ‘शरीर’ नहीं होते अपितु ‘चेतना’ से आलोकित जनसरोकारी व्यक्तित्व होते हैं जो हर पल ‘मध्यम वर्ग और सत्ता’ के शोषणवादी चक्रव्यूहों को अपनी कला से भेदते हैं! क्योंकि कला ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है।
आज ‘कलाकारों’ को तय करना है की वो ‘अर्थ’ उपार्जन में अपने आप को कौन सी श्रेणी में रखना चाहते है 1.शारीरक श्रम एवम् कौशल 2. भाव भंगिमा और कौशल 3. लैंगिक व्यवहार 4. चेतना ,बुद्धि और विचार !
आओ मनुष्यता और इंसानियत को बचाने के लिए कला ‘चेतना’ के विवेकशील प्रतिबद्ध स्वरूप को अपनाएं। कला के इंसान को इंसान बनाने वाले ‘कलात्मक’ पक्ष को अपनाएं और सत्ता के अनुदानी टुकड़ों का तिरस्कार कर अपने आप को रोजगार वाली भीड़ से मुक्त करें। क्योकि ‘कलाकार’ अपने पेट के बजाय अपने ‘कलात्मक’ आलोक से आलौकित होते हैं।