मुनेश त्यागी
पिछले रविवार को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सिटिंग जज जस्टिस शेखर कुमार यादव के बयानों को लेकर सोशल मीडिया और न्यायिक हलकों में हलचल मची हुई है। अपने बयान में उन्होंने बहुत सारी बातें कहीं जो संविधान विरोधी, कानून विरोधी, भारतीय विचारों और साझी संस्कृति और गंगा जमुनी तहजीब के विचारों के बिल्कुल खिलाफ हैं। उनकी कई सारी बातें तथ्यों के विपरीत हैं। प्रयागराज में विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि “भारत बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार चलेगा” और दूसरे विवादित बयानों के साथ उनका दूसरा बयान है जिसमें वे मुसलमान के बारे में कह रहे हैं कि “कठमुल्ले देश के लिए घातक हैं”। “वे बेरहम और दया की भावना से वंचित होते हैं।”
इसी के साथ-साथ उन्होंने तीन तलाक और मुसलमानों द्वारा चार-चार बीवियां रखने की बात कही है और उन्हें भारत के लिए खतरनाक बताया है। उनके भाषण को सुनकर और पढ़कर लगा कि उनका पूरा भाषण हिंदुत्ववादी नफरत की मानसिकता से भरा हुआ है और वह पूर्ण रूप से मुसलमान विरोधी है । उनके भाषण को सुनकर नहीं लगता कि यह भाषण किसी हाईकोर्ट के जज का हो सकता है। अपने भाषण में वे हिंदू और मुसलमान में भेद कर रहे हैं हिंदुओं को “अपना” और मुसलमान को “वो” और “उनका” कहकर संबोधित कर रहे हैं।
इससे पहले भी उनके कई बयान बहुत विवादित रहे हैं, जैसे,,,, “गाय के घी से बारिश होती है”, “इससे सूरज को ऊर्जा मिलती है”, “गाय ऑक्सीजन छोड़ने वाला पशु है” और “गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए।” उनकी भाषा को सुनकर लगा कि उनकी भाषा, सोच और विचार एकदम गरिमा विहीन और मुसलमानों के प्रति नफरत पैदा करने वाले हैं। उनका यह भाषण भारत के संविधान के मूलभूत विचारों और सिद्धांतों के एकदम खिलाफ है और यह जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांतों पर और मूल्यों पर एक बड़ा कुठाराघात, हमला और उनको तोड़ने मरोड़ने वाला है। उनके बयान एकदम विज्ञान विरोधी और अज्ञानी अविवेक से भरे हुए हैं।
उनका यह बयान उनके द्वारा हाई कोर्ट का जज बनते समय ली गई संवैधानिक शपथ के खिलाफ है जिसमें उन्होंने भारत के संविधान के उद्देश्यों को और सिद्धांतों को आगे बढ़ाने की बात कही थी। यह एक सांप्रदायिक और नफरतभरी विकृत सोच का परिणाम है। उनका यह बयान भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका पर एक बड़ा हमला है और यह जजशिप के सम्मानित ओहदे के खिलाफ और अशोभनीय है। उनका यह बयान बता रहा है कि उनकी नियुक्ति ही गलत और मनमानी तरीके से की गई है। वे इस पद पर नियुक्त होने की काबिलियत ही नहीं रखते। उनकी नियुक्ति भारत के कॉलेजियम द्वारा की गई नियुक्तियों पर एक बड़ा सवाल उठा रही है।
वे मुसलमानों पर नॉनवेज खाने, निर्दयी होने और दया विहीन होने का आरोप लगा रहे हैं, जो एकदम गलत है। मानवीय इतिहास की उत्पत्ति में जानकारी दी गई है कि आदिमानव बहुत समय तक असभ्यता की स्थिति में कंदमूल और पशु पक्षियों का मांस खाता रहा था और यह बहुत दिनों तक जारी रहा था। आज भी हम देखते हैं कि हमारे देश में करोड़ों करोड़ लोग नोन-वेज और मांस भक्षण करते हैं, अंडा, मुर्गी बकरी गाय भैंस का मांस खाते हैं। इसके लिए केवल मुसलमानों को ही दोषी क्यों उठाया जाए? यह एक विकृत मानसिकता का मुस्लिम विरोधी रुख़ का परिचायक है।
फिर यहीं पर यह बात है कि क्या नॉनवेज या मांस भक्षण करने वाले सभी लोग खराब और दुष्ट होते हैं, निर्दयी और बेरहम होते हैं। यह बात एकदम विवेकहीन और अमान्य है, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने मुसलमानों पर चार-चार बीवी रखने का आरोप लगाया है। यह बात भी तथ्यों के एकदम खिलाफ है। अगर हम सोच विचार कर देखें कि क्या सभी मुसलमान चार-चार बीवियां रखते हैं? अगर ऐसा है तो फिर हर एक मुसलमान के चार-चार बीवियां होनी चाहिए और इस प्रकार हमारे देश में लगभग 20 करोड़ मुसलमान है तो फिर 4 करोड़ मुसलमानों की चार गुनी यानी सोलह करोड़ बीवियां होनी चाहिए। इस प्रकार मुस्लिम महिलाओं की संख्या मुसलमान पुरुषों से चार गुनी होनी चाहिए जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है। यह बयान जनसंख्या के आंकड़ों के एकदम खिलाफ है। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में एक अरब, 21 करोड़, 93 हजार 422 जनसंख्या थी जिसमें 62 करोड़ 37 लाख हिंदू पुरुष थे और 58 करोड़ 64 लाख महिलाएं थीं।
आंकड़ों के हिसाब से 1000 पुरुषों में 951 महिलाएं का अनुपात है। पिछले 10-12 सालों के अंदर यह भी देखा गया है कि इस दौरान हिंदू महिलाओं की संख्या मुसलमान महिलाओं की संख्या के अनुपात में बढ़ी है, जिसमें यह संख्या 1000 में 931 महिलाओं से 939 तक बड़ी है। जब हमने अपने आसपास के मुसलमान दोस्तों के बारे में जानकारी की तो पता चला कि उनमें से किसी की भी एक से अधिक पत्नियां नहीं हैं। इस प्रकार जज एस के यादव द्वारा दिया गया बयान और आंकड़े एकदम झूठे, निराधार और अमान्य हैं। वे भारत के संविधान, कानून के शासन, गंगा जमुनी तहजीब और भारत के पुरातन सिद्धांतों के खिलाफ हैं जिसमें विभिन्न धर्मों में विश्वास रखने वाले आदमियों के खिलाफ कोई भेदभाव प्रकट नहीं किया गया है, बल्कि उनमें तो विश्व-बंधुत्व और वसुधैव-कुटुम्भकम की बात की गई है। वहां पर किसी धर्म के मानने वालों में भेदभाव नहीं किया गया है। हालांकि बाद में इसमें मनुवादी वर्णवादी व्यवस्था कायम करके, जनता को वर्ण यानी चार वर्ण ,,,,ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांट दिया गया, जो आज भी जारी है।
इस प्रकार उनके बयान किसी तरह से भी मान्य नहीं हैं। उनका यह भाषण संवैधानिक मूल्यों पर खतरनाक हमला है और समाज में मुसलमान के खिलाफ नफरत बढ़ाने वाला है और उनमें मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक नफरत की बू आती है। उनके इन बयानों को पढ़कर, सुनकर और देखकर यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वह भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक योग्य न्यायाधीश नहीं हैं और वे भारत की जनता के साथ किसी भी तरह से न्याय नहीं कर सकते। बहुत अच्छा होगा कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय, भारत के मुख्य न्यायाधीश और भारत की राष्ट्रपति महोदया, ऐसे संविधान विरोधी, नफरतभरी सोच और मानसिकता वाले न्यायिक अधिकारी के खिलाफ तुरंत दंडात्मक कानूनी कार्यवाही करें और उन्हें तुरंत पद से हटायें, तभी जाकर भारत की निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका, भारत के संविधान और कानून के शासन की रक्षा की जा सकती है। उनका न्यायाधीश जैसे निष्पक्ष और सम्मानित पद पर बने रहना संविधान के हित में नही है।
लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। विचार उनके निजी हैं।