पुण्यतिथि पर विशेष
हिंदी के सबसे क्रांतिकारी, चमकदार गज़लकार दुष्यंत कुमार
मुनेश त्यागी
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है यह सूरत बदलनी चाहिए।
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त मगर थी कि बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर गली हर गांव से हर सड़क हर शहर से,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
मेरे सीने में ना सही तेरे सीने में ही सही,
हो कहीं भी मगर आग जलनी चाहिए।
यह पिछले 50 सालों की सबसे ज्यादा पढ़ी और गाई जाने वाली रचना है। इस पूरी ग़ज़ल का कमाल है कि यह गज़ल दुनिया में सबसे ज्यादा गाई गई है। मीटिंगों का आगाज होने पर, सभाओं में, बैठकों में, स्कूलों में, कॉलेजों में, यूनियनों में, विधानसभा के पटल पर, संसद के पटल पर, क्रांतिकारी आंदोलनों में, संघर्ष के मैदानों में, किसानों मजदूरों नौजवानों विद्यार्थियों और महिलाओं के आंदोलनों में, यह गजल सबसे ज्यादा गाई जाती है। इसका कोई तोड़ नहीं है। कोई भी क्रांतिकारी प्रोग्राम शुरू होता है तो उसका आगाज भी इसी गजल से होता है और अब तो यह भी कमाल हो गया है कि जन विरोधी, देश विरोधी, मनुष्य विरोधी, सांप्रदायिक, जातिवादी और वर्णवादी ताकतें भी इस ग़ज़ल का प्रयोग कर रही हैं। यहीं पर गजल सम्राट दुष्यंत कुमार कबीर, तुलसी, मीर और गालिब की पंक्ति में खड़े हो जाते हैं।
हिंदी में ग़ज़ल का आगाज करने वाले, हिंदी के महान कवि और गज़लकार दुष्यंत कुमार ( दुष्यंत कुमार त्यागी) को उनकी पुण्यतिथि (३० दिसंबर १९७५) के मौके पर पर, शत शत नमन, वंदन और क्रांतिकारी सलाम।
भारतीय साहित्य का एक देदीप्यमान सितारा ऐसा चमका की अल्पायु में ही सबको चकाचौंध करके चला गया। यह साहित्यिक नक्षत्र और कोई नहीं बल्कि महान गजलकार दुष्यंत कुमार ही थे। उन्होंने विस्फोटक गजलें लिखकर, हिंदी कविता का रचनात्मक मिजाज ही बदल दिया था। उनकी गजलें आदमी की पीड़ा भरी आवाजें हैं। वे कहते हैं…मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूं।” कहने वाले दुष्यंत कुमार कभी चुप नहीं रहे, बल्कि औरों की भी चुप्पी तोड़ गए।
उनकी कलम से सत्ता और सिंहासन हिलते थे। उन्होंने जो देखा और भोगा, वही व्यक्त किया। वे अपने समय की असंगतियों और निराशाओं से भागे नहीं, बल्कि लोगों को इनसे जूझने और संघर्ष करने का आह्वान किया। उनकी गजलें आदमी की आवाज बन गईं। उनकी रचनाएं निरर्थक और बौद्धिक बोझलता से सदैव दूर रहीं । उन्होंने चौकाने वाले या आतंकित करने के लिए नहीं, बल्कि समाधान प्रस्तुत करने के लिए, अपनी कविता को धार दी।
दुष्यंत कुमार अपने को आमजन का कवि मानते थे। उनका कहना था कि “मैं प्रतिबद्ध कवि हूं।” यह प्रतिबद्धता उनकी आदमी से थी, आमजन से थी। कवि कमलेश्वर उनके बारे में कहते हैं कि “दुष्यंत एक साहित्यकार बनकर आए और एक महान और जनता का साहित्यकार, बनकर चले गए।” उन्होंने समाज की गरीबी, भुखमरी और बदहाली पर कविताएं लिखी और इन्हें बदलने के लिए समाज और कवियों को ललकारा। उनकी गजलों में निराशा का भाव नहीं है, वहां आशा और विश्वास है। वे समाधान प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताएं क्रांतिकारी हैं। वे इस वर्तमान जनविरोधी समाज व्यवस्था को बदलने का आह्वान करती हैं।
उनकी महानता और अमरता का कारण उनकी भाषा है। उनकी भाषा आमजन की भाषा है। वे हिंदी और उर्दू को सिंहासन से उतार कर, आमजन के पास ले गए और फिर यह भाषा इन्हीं की भाषा होकर रह गई और इन दोनों भाषाओं को आमजन की भाषा बना दिया। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने युग की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई और जनता के दुख दर्द को अपनी रचनाओं का रुधिर और मज्जा बनाए रखा।
उनकी रचनाओं में किसान, मजदूर, कारीगर, लोक समर्पित कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी शामिल थे। वे भी इन सब की तरह, सारी मानसिक और राजनीतिक जड़ता का खात्मा करना चाहते थे। उन्होंने हिंदी साहित्य की इंकलाबी मंशाओं, आकांक्षाओं, क्षमताओं और संवेदनाओं को दिशा दी। उन्होंने ग़ज़ल के जरिए, साहित्य को सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का जरिया बनाया। उन्होंने देश, समाज और जनता के मुद्दों और समस्याओं को अपनी रचनाओं में उकेरा और उनका समाधान पेश किया।
दुष्यंत कुमार उस साहित्य का हिस्सा है जो लोगों के लिए जीता मरता है, उनमें आशा और अजेयता का संचार करता है, अंधेरों से लड़कर रोशनी पैदा करता है। वह गुमराह, भटके हुए और दिशाहीन लोगों को सही दिशा प्रदान करता है। उन्होंने शासन और सत्ता के विरुद्ध नारे रचे। उनकी कविताएं और गजलें देश काल का अतिक्रमण करके, दिलो-दिमाग में उतर जाती हैं। तभी तो वे कहते हैं कि,,,,,
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
हिंदी में ग़ज़ल की शुरुआत करने वाले महान कवि और गजलकार दुष्यंत कुमार ने अपनी जिंदगी में हर मौके के अनुसार सैकड़ों, हजारों शेरों और गजलों की रचना की है और ग़ज़ल को ठेठ उर्दू से निकालकर हिंदी में लाए हैं। हिंदी में यानी जनता की आम भाषा में ग़ज़ल कहने का सबसे पहला श्रेय गज़लकार सम्राट दुष्यंत कुमार को ही जाता है। उनके कुछ खास शेरों को हम आप सबके साथ साझा कर रहे हैं।
दुष्यंत कुमार अपनी रचनाओं में बेबाक व्यंग करते हैं, चिंगारी की बात करते हैं, अंधेरा खत्म करने की बात करते हैं, कुरान, उपनिषद और अंधविश्वासों पर करारी चोट करते हैं, यह उनके निम्नलिखित शेरों से देखा जा सकता है…
यह जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।
यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है।
एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों
इस दीए में तेल की भीगी हुई बाती तो है।
कैसी मशालें लेकर चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही।
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो रो के बात कहने की आदत नहीं रही।
गजब है सच को सच कहते नहीं वो
कुरानो उपनिषद खोले हुए हैं।
मजारों से दुआएं मांगते हैं
अकीदे किस तरह पोले हुए हैं।
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं है आदमी, हम झुंझुने हैं।
दुष्यंत कुमार अपनी रचनाओं में रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा होने से बचने की बात करते हैं, जन विरोधी सियासत पर बेबाक चोट करते हैं, पूरे हिंदुस्तान की बात करते हैं, अंधेरों पर चोट करते हैं और अंधा तमाशबीन बनने से मना करते हैं। उनके निम्नलिखित शेरों से यह सब देखा जा सकता है…
रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।
कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे यह तो हद है।
मस्लहत आमेज होते हैं सियासत के कदम
तू न समझेगा सियासत तू अभी नादान है।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं
हर गजल अब सल्तनत के एक बयान है।
मेरी जुबान से निकली तो सिर्फ नज्म हुई
तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई।
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है।
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए
इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।
गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में
सरकार के खिलाफ यह साजिश तो देखिए।
रौनके जन्नत जरा भी मुझको रास आई नहीं
मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार।
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
हमने अपने जीवन में बहुत करीब से देखा है कि जब हम दुष्यंत कुमार की इन क्रांतिकारी रचनाओं को अपने जजों और विभिन्न सरकारी अधिकारियों के सामने 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर और 10 मई मेरठ से शुरू हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की वर्षगांठ के मौकों पर आम सभाओं में दुष्यंत कुमार की इन रचनाओं को पेश करते थे और गाकर सुनाया करते थे तो ये समस्त अधिकारीगण और जज साहेबान इन रचनाओं से बहुत प्रभावित होते थे और इनके असर से हमारे द्वारा रखी गई बातों को गौर से सुनते और जनता को सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध कराते थे। जब हमने संबंधित कर्मचारियों से मालूम किया तो उन्होंने बताया कि वे दुष्यंत की इन रचनाओं से बहुत प्रभावित होते हैं इसके अतिरिक्त दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल और रचनाओं ने भारत के करोड़ों किसानों, मजदूरों, छात्रों, नौजवानों और आम जनता को प्रभावित किया है और उसे लड़ने और संघर्ष करने का हौसला प्रदान किया है। सच में क्रांतिकारी रचनाकार दुष्यंत कुमार आज भी जिंदा है। दुष्यंत कुमार की इन्हीं चार लाइनों से उन्हें अपनी क्रांतिकारी श्रद्धांजलि पेश कर रहे हैं,,,
हो गई पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है यह सूरत बदलनी चाहिए।

लेखक- मुनेश त्यागी
