हरियाणाः जूझते जुझारू लोग – 61

एम.पी. सिंह – सच्चा इन्सान, समर्पित नेता

सत्यपाल सिवाच

साथी महिन्द्रपाल सिंह जिन्हें लोग  एम.पी. सिंह नाम से पहचानते हैं, का जन्म 20 फरवरी 1963 को नौलथा जिला करनाल (अब पानीपत) में हुआ था। इनके दादा जी चैल हिमाचल प्रदेश के निवासी थे। इनके पिता का नाम सरदार हरजिन्द्र सिंह, माता का नाम संतोष कौर है। इनके बचपन का कुछ समय कुटेल (करनाल) में भी बीता, उसके बाद जगाधरी में रहने लगे। एम.पी. सिंह ने 1985 में गुरु नानक खालसा कॉलेज यमुनानगर से बी.एस.सी. परीक्षा पास की। सन् 1986 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से बी.एड. की डिग्री हासिल की। 2 जनवरी 1987 को रा.उ.वि. अंटावा में तदर्थ आधार पर गणित अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। बाद में 01 जनवरी 1991 से उनकी सेवाएं नियमित हो गईं। सेवा के दौरान ही 1995 में एम.ए. (अंग्रेजी) पास की तथा 15 नवम्बर 1995 को प्राध्यापक के पद पर पदोन्नत हुए।

जब मैं उन्हें जानने लगा तब वे बी.एस.सी. के छात्र थे। उनके पिता जी का कामरेड अजमेर सिंह के घर आना जाना था। वहीं मेरी मुलाकात एम.पी. से भी हुई। इनके परिवार का वामपंथी आन्दोलन से संपर्क हो गया था। इनके बड़े भाई डॉक्टर एस.पी. सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार में बी.वी.एस.सी. करते हुए एस.एफ. आई. के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उसी का प्रभाव इन पर पड़ा और ये भी एस.एफ.आई. जुड़ गए।

जैसे ही इनकी बी.एड. पूरी हुई और इन्हें कुरुक्षेत्र जिले में नौकरी मिल गई तो ये अस्थायी एवं बेरोजगार अध्यापक संघ के राज्य प्रधान बन गये। सन् 1991 मे संगठन के राजकीय अध्यापक संघ में विलय होने तक  इस पद पर लगातार 2 टर्म तक बने रहे। साथ ही हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ के आमंत्रित सदस्य व 1989 बनी अध्यापकों की सयुंक्त कमेटी के राज्य नेतृत्व का हिस्सा रहे। 1986 में ही सर्वकर्मचारी संघ में जुड़ गए। बाद में अध्यापक संघ, सर्वकर्मचारी संघ में अनेक पदों पर रहे। इनके लिए पद का कभी महत्व न रहा, बस जो काम दे दिया उसे पूरी तन्मयता से पूरा करते।

जब इनकी नौकरी लगी तब तक सर्वकर्मचारी संघ का आन्दोलन शुरू हो चुका था। ये निडर होकर बेझिझक उस संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। मात्र डेढ़ महीने की नौकरी हुई थी जब इन्हें हड़ताल में शामिल होने के कारण बर्खास्त कर दिया गया। इसके अलावा इन्हें प्रशासन की शह पर स्कूल में झगड़े के झूठे मुकदमे में फंसाया गया जिसमें सर्वकर्मचारी संघ के दर्जन भर कार्यकर्ताओं के नाम शामिल थे। सन् 1993 की हड़ताल में भी इन्हें बर्खास्त किया गया। उसके बाद कोई भी संघर्ष चला, एम पी सिंह उसमें अगली कतार में रहे। संघर्षों के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा व पुलिस हिरासत में भी रहना पड़ा।

6 जून 2013 को हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ की फरीदाबाद में प्रांतीय कन्वेंशन से वापस आ रहे थे तो उनकी कार ट्रैक्टर-ट्राली से टकरा कर दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिसमें वे गंभीर रूप से घायल हो गए और बच नहीं पाए। मैं एक दिन पहले ही फरीदाबाद में उनसे मिला था। अगले दिन रोहतक से जीन्द चलने को था कि सोनीपत से कामरेड बलबीर दहिया का फोन आ गया – एक्सीडेंट हो गया है। एम.पी. सिंह को काफी चोट लगी है। उन्हें मेडिकल लेकर आ रहे हैं। मैं रोहतक पीजीआई में पहुंच गया। घायलों की गाड़ी आ गई। साथ में सोनीपत के कार्यकर्ता थे लेकिन एम.पी. सिंह रास्ते में ही पूरे हो चुके थे। देर शाम तक उनका बेटा मोहित सिंह और उनकी जीवन साथी सुनीता भी रोहतक पहुंच गए थे। हमारे लिए यह बहुत विकट समय था। बहुत ही होनहार और जिन्दादिल साथी को खो दिया था। दिल के गुब्बार को थामे कामरेड सुरेन्द्र सिंह व वीरेन्द्र मलिक के घर बातों-बातों में रात बिताई। अगले दिन पोस्टमार्टम के बाद बॉडी लेकर रादौर पहुंचे। वह दृश्य आज भी आँखों के सामने मौजूद है। हजारों की संख्या में उनके चाहने वाले इन्तजार में खड़े थे।

साथी एम.पी. सिंह काफी हंसमुख प्रवृत्ति के इंसान थे। वे हर इंसान के सुख-दुःख में बिना स्वार्थ सहारा देने की ललक रखते थे। जहां भी जाते थे, वहां के साथियों में तुरन्त घुल-मिल जाते थे। अंटावा स्कूल से आते तो रास्ते में महीपाल के घर चमरोड़ी चले जाते। तब दादी जीवित थीं। एम.पी. दादी का लाडला था। “दादी मैं मक्का की रोटी और साग खाने आया हूँ।” दोनों का खास रिश्ता बन गया था। उनमें गलत को गलत और सही को सही कहने का साहस था। ऐसा करते वक्त अपने-पराए का भेद न करते। साथ ही अपनी गलती बताए जाने पर तुरंत सहमत हो जाते और ठीक कर लेते।

वे परिवार में लोकतंत्र पर अमल करने का सचेत प्रयास करते। प्रतिदिन शाम को परिवार, पत्नी, बेटा, भाई, दोस्त, संगठन के साथी सभी भूमिकाओं को लेकर अपने रुख की चर्चा करते और आत्मावलोकन भी करते। घर की बातें सुनीता से साझा करते। वे रिश्तों के भीतर इगो, ईर्ष्या, झूठ, साजिश, स्वार्थ आदि पर खुलकर बात करते थे। रिश्तों की जीवंतता बनाए रखने के लिए शादी के पच्चीसवें वर्ष पर मित्र मिलन समारोह किया जिसमें पुरुष मित्रों को ही नहीं, महिला मित्रों व बच्चों को भी बुलाया। मेरे लिए तो वे परिवार के सदस्य हैं। सुनीता मेरे अजीज भीमसिंह सैनी की बेटी हैं। इस नाते से हमारे घर एम.पी. की जगह दामाद की तरह थी।

किताबें पढ़ना उनका शौक था, खाना बनाने का भी शौक था। साथी अंधविश्वास के घोर विरोधी थे। वे जाति प्रथा, लिंग भेद, धर्मांधता, सांप्रदायिकता खिलाफ थे। सुनीता के साथ उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह किया था और बहुत सादगी व बिना दहेज के। वे बहुत खुले हाथ के थे। जब तक जेब में पैसे रहते तब तक क्या मजाल कोई दूसरा पेमेंट कर दे। सुनीता और मेरी पत्नी शान्ति ने बहुत प्रयास से उन्हें जेब में जरूरत के मुताबिक पैसे रखने के आदत डलवाई थी। वरना पूरा वेतन जेब में रहता और खत्म हो जाने पर ही चैन पड़ता। इनके परिवार में पत्नी सुनीता हैं प्राध्यापिका पद से सेवानिवृत्त हुई हैं। बेटा मोहित व उसकी पत्नी और दो बच्चे हैं। मोहित अपना काम करता है और पुत्रवधू सरकारी नौकरी में हैं। (सौजन्य ओम सिंह अशफ़ाक)

लेखक : सत्यपाल सिवाच

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