सत्यप्रकाश – जुझारू, बेबाक और भरोसेमंद कर्मचारी नेता

हरियाणाः जूझते जुझारू लोग-59

सत्यप्रकाश – जुझारू, बेबाक और भरोसेमंद कर्मचारी नेता

सत्यपाल सिवाच

लम्बे समय तक ज्ञान-विज्ञान आन्दोलन, साक्षरता अभियान, अध्यापक संघ और कर्मचारी आन्दोलन में विश्वसनीय साख रखने वाले सत्यप्रकाश से राज्य के अधिकतर कार्यकर्ता परिचित रहे हैं। वैसे तो मैं उनसे छात्र आन्दोलन के दौर में ही मिल चुका था, लेकिन उनके अस्थायी शिक्षक बनने के बाद घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध कायम हो गए। इसीलिए उन्हें सार्वजनिक और निजी जीवन – दोनों क्षेत्रों में बहुत करीब से देखने समझने का मौका मिला।

सत्यप्रकाश ने 16 अप्रैल 1958 को रोहतक के गांव टिटौली में एक मध्य किसान परिवार में सुश्री अतरोदेवी और श्री रामचन्द्र के घर जन्म लिया। वे तीन भाई और दो बहनें हैं। छोटे भाई भूपेन्द्र सिंह और उनका मकान जसबीर कालोनी रोहतक में साथ-साथ है। बीच वाले अजीत सिंह का परिवार गांव में रहता है। दो बहनें – संतरो और निर्मल हैं। दोनों अपने अपने परिवार में सुखपूर्वक हैं। सत्यप्रकाश ने जाट हीरोज मेमोरियल कॉलेज रोहतक से बी.एस.सी. करके बी.एड. की। वे छात्र जीवन में प्रगतिशील छात्र आन्दोलन एस.एफ.आई. के साथ जुड़ गए थे। उन्होंने अपने अभिन्न मित्र रहे सुरेन्द्र सिंह के साथ मिलकर रोहतक में काफी काम किया।

दरअसल मेरी उनसे पहली मुलाकात भी इकट्ठे ही हुई थी। बाद में दोनों ही छह माह आधार पर अध्यापक बन गए (तब छह माह के लिए अध्यापकों की नियुक्ति की जाती थी) । मैं उन दिनों अस्थायी एवं बेरोजगार अध्यापक संघ में सक्रिय हो चुका था। सत्यप्रकाश ने भी इस मंच पर काफी काम किया। वे इस संघ के उपाध्यक्ष बने। कुछ समय बाद सुरेन्द्र सिंह ने नौकरी छोड़ दी और एम.ए. इतिहास विभाग में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ने लगे।

सत्यप्रकाश अध्यापक आंदोलन में ऐसे दौरे में आए जब गंभीर सांगठनिक संकट की स्थिति थी। व्यक्तिवादी कार्यप्रणाली के चलते संगठन का विभाजन हो गया था। सन् 1985-86 में ऋषिकान्त शर्मा, सत्यप्रकाश और सत्यपाल इन तीन युवा साथियों ने कई पुराने नेताओं के साथ मिलकर संगठन के पुनर्निर्माण में स्मरणीय योगदान दिया था। बी.एस.सी., बी.एड. के बाद उन्होंने एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। पश्चात् उन्होंने 1982 में अस्थायी और 01 नवंबर 1986 तक अनुभव आधार पर नियमित सेवा की।

वास्तव में उनका संघर्षों का 1976-77 में जाट कॉलेज रोहतक एस.एफ. आई. के साथ था। सन् 1982-83 में अस्थायी एवं बेरोजगार आंदोलन में सक्रिय रहे तथा 1985 में इसके अध्यक्ष मनोनीत किए गए। बाद में सोनीपत व रोहतक में संघ के जिला प्रधान भी रहे। सोनीपत जिले में संघ से नौकरी के शुरुआती समय से ही जुड़ गए थे। जब 1985 में अध्यापक संघ विभाजित हो गया तो उनका कार्यकर्ता बनना अपने आप में चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि दूसरे गुट के लोग पूरी धींगामस्ती के साथ पेश आते थे। हमारे पास पूरे सोनीपत जिले में शुरू में और कोई कार्यकर्ता नहीं था। सत्यप्रकाश ने अदम्य उत्साह के साथ गुण्डई का मुकाबला किया।

उनके सतत प्रयास से जिले में स्वर्गीय कुलानंद शास्त्री से मिलकर अच्छी टीम तैयार हो गई। वे 1986-87 के आन्दोलन में पूरे जिले में अकेले ही प्रचार में लगे हुए थे। अध्यापकों में से अकेले हड़ताल पर थे। जब जिला शिक्षा अधिकारी को पता चला तो वे चिंतित हुए, क्योंकि कच्चे कर्मचारियों को हटाने का आदेश आ गया था। वे स्वयं धनाना स्कूल में आए और सत्यप्रकाश कि हाजिरी लगवाने के लिए स्टाफ से कहा। सत्यप्रकाश तो प्रचार के लिए बाहर गए हुए थे। कुछ लोगों ने उपहास उड़ाया कि जैसी करेगा, भुगतेगा। इस पर जिला शिक्षा अधिकारी ने कहा – सोचना तो आपको चाहिए। कुछ शर्म करो। एक आदमी कच्ची नौकरी में भी सबके लिए हड़ताल पर है और आप उसी का मजाक बना रहे हैं।

सन् 1991 में वे साक्षरता अभियान के लिए पानीपत चले गए तथा 2007-08 के बाद पुनः अध्यापक संघ में अपना योगदान दिया। बाद में उन्होंने रोहतक के अध्यक्ष के रूप में संगठन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
जब हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ ने मासिक पत्रिका निकालने का निर्णय लिया तो लगता था कि वह बहुत मुश्किल होगा। हमारे संसाधन नहीं थे। रोहतक में कार्यकर्ताओं का भी अकाल था। सत्यप्रकाश इसके पहले संपादक बने और फरवरी 1988 के पहले अंक से अगस्त 1989 तक मुख्य सम्पादक ही नहीं, पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर — सब काम अकेले ही करते थे। पत्रिका भेजने के लिए तैयार करने में मदद हेतु मैं रादौर से एक दिन के लिए रोहतक आ जाता। वे समर्पित होकर जुटे रहते।

वे साहसी, निडर और बहादुर थे। मैं पत्रिका के काम से रोहतक आया हुआ था। सुबह रोडवेज की हड़ताल होनी थी। नयी यूनियन बनी थी। दूसरे संगठनों के लोगों को बस स्टैंड पर मदद के लिए पहुंचना था। हम भी जनवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ वहाँ पहली बस के समय पहुंच गए। पुलिस ने लाठीचार्ज किया। दर्जनों कार्यकर्ताओं को चोटें लगीं। सब डटे रहे और धीरे-धीरे बसों का चक्का जाम करने में सफलता मिली। वे किसी भी प्रकार की खराब स्थिति में घबराते नहीं थे।

निजी जीवन में बेहद भरोसेमंद और मर मिटने वाले साथी सत्यप्रकाश के अभिन्न मित्रों में साधारण से विशिष्ट सभी प्रकार के लोग रहे हैं। मुख्यमंत्री के वर्तमान प्रधान सचिव राजेश खुल्लर से उनके निकट मैत्री सम्बन्ध रहे। उन्होंने ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में भी बड़े जीवट कार्यकर्ता को भूमिका निभाई है। वे प्रगतिशील वैज्ञानिक सोच के धनी रहे। वे लड़कियों के अधिकारों, समानता, स्वतंत्रता, शिक्षा और आत्मनिर्भरता को बहुत महत्व देते थे। परिवार की अनिच्छा के बावजूद बहनों को पढ़ाने में विशेष रुचि ली। उन्हें परिवार एकजुट रखने की भी फिक्र रहती थी। परिवार में उनकी पत्नी गीता है जो प्राध्यापिका अंग्रेजी पद से सेवानिवृत्त हुई हैं और अध्यापक संघ में जुड़ी रही हैं। बेटा दीपेन, पुत्रवधू संस्कृति और दो पौत्र हैं। सेवाकाल के दौरान ही 19 अगस्त 2013 को काला ज्वर से सत्यप्रकाश की मृत्यु हो गई। सौजन्यः ओमसिंह अशफ़ाक

लेखक- सत्यपाल सिवाच

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *