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बात बेबात
सरकार के हाथ लंबे हैं तो चुनाव बाद जनता की ज़ुबान
विजय शंकर पांडेय
बिहार में चुनावी मौसम आते ही सरकार और जनता के बीच एक नया सामाजिक अनुबंध सामने आया है—“पैसा आया है तो वोट जाएगा, पैसा गया तो वोट भी जाएगा।” मुख्यमंत्री रोजगार योजना के तहत महिलाओं को 10 हजार देने की घोषणा हुई, मगर लोकतंत्र की तरह योजना भी सर्वसमावेशी निकली। दरभंगा के जाले प्रखंड में कुछ पुरुषों के खातों में भी नारी सशक्तिकरण की रकम उतर आई।
अब जब सरकार ने नोटिस भेजा—“गलती से पैसा चला गया है, कृपया लौटाएं”—तो ग्रामीणों ने लोकतांत्रिक परिपक्वता दिखाते हुए जवाब दिया, “ठीक है साहब, पैसा ले लीजिए, लेकिन वोट भी वापस कर दीजिए।” आखिर बिना रसीद के पैसा लिया हो तो अपराध, और बिना काम के वोट दिया हो तो परंपरा।
कुछ ग्रामीणों का कहना है कि उन्होंने पैसे खर्च भी कर दिए—किसी ने बीज खरीदे, किसी ने मवेशी, किसी ने मोबाइल रिचार्ज कर लोकतंत्र को और मजबूत किया। अब सरकार कह रही है कि पैसा लौटाओ, जनता कह रही है कि भरोसा लौटाओ।
महिला उद्यमिता के नाम पर पुरुषों को मिला ये बोनस बताता है कि बिहार में योजनाएं जेंडर न्यूट्रल हैं, बस गलती-सेंसिटिव है। चुनाव से पहले सरकार का हाथ लंबा है और चुनाव के बाद जनता की ज़ुबान।
कुल मिलाकर, जाले में यह साफ हो गया है कि बिहार में वोट बैंक नहीं, “रिफंड बैंक” बन चुका है—जहां पैसा गया तो वोट आया, और पैसा मांगा तो लोकतंत्र नाराज़ हो गया।

लेखक- विजय शंकर पांडेय
