पुस्तक समीक्षा
आम आदमी के लफ्जों को बयां करती कविताएं
मनजीत सिंह
मंगतराम शास्त्री खड़तल हरियाणवी भाषा में कविताएं लिखते हैं। हाल ही में उनकी कविताओं की पुस्तक ” खड़तल कहणा ओक्खा सै” प्रकाशित हुई है। इस संग्रह की कविताएं आम आदमी से जुड़ी विसंगतियों, उसके सुख-दुख, प्यार संताप को चित्रित करती हैं। चूंकि कविताएं हरियाणवी में हैं तो उनकी शैली तीखी और मारक है। बात सीधे श्रोता तक पहुंचती है।
खड़तल शब्द अपने आप में एक प्रगतिशीलता का प्रतिनिधित्व करता है। जिसका मतलब खरी खोटी कहना। किसी वस्तु या विषय को देखने की पद्धति में ही कवि की जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि छुपी रहती है। विवेच्य कविता संग्रह खड़तल कहणा ओक्खा सै की भाषा में ग्रामीण परिदृश्य और जिला जींद एवं तहसील के नितान्त करीब की बोली साफ-साफ दिखती है। अपनी बोली में कवि अपनी कविताओं में ऐसे प्रतीकों से चित्र गढ़ते हैं कि सभी प्रसंग प्राणवाण हो उठते हैं। गाँव-देहात का अकृत्रिम जीवन, जीर्ण स्वास्थ्य, ठेठ दृश्यावली हर कोई देखता है। बानगी के तौर पर कुछ पंक्तियां देखिये-
आपणा खोट छुपाणा सीख, औरां कै सिर लाणा सीख ।
सारे यार करैंगे प्यार, चिकणी चुपड़ी लाणा सीख ।
कवि को पात्र अभाव, भूख, कुपोषण, शोषण के भुक्तभोगी दिखते हैं। बिम्ब में व्यंग्य का दंश तीक्ष्णतर करने में उन्हें सिद्धि प्राप्त है। किसी वस्तु या विषय को देखने की पद्धति में ही कवि की जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि छुपी रहती है जो मंगतराम शास्त्री की कविताओं में झलकती है।
मंगतराम की कविता की किसान- मजदूर को समर्पित पंक्तियां देखिये-
जिंदगी भर छान म्हं ढकते रहे सिर, उन कमेर्यां नै तेरे बंगले चिणे सैं।
बोझ नीच्चे बीत गी जिनकी जवान्नी,वें बडेरे नींव के पत्थर बणे सैं ।
नागरिक जीवन के दुख-दुविधा, सुख-सुविधा की समझ, जमाखोरी का विरोध, स्थापित समाज व्यवस्था की रूढ़ियों और जड़ मनस्थितियों का खण्डन, राष्ट्र एवं विश्वा के प्रति सजग दृष्टि; नीति मूल्य, जीवन-मूल्य, मानव-मूल्य, सम्बन्ध मूल्य की मौलिकता की समझ; जीवन की सहजता बाधित करने वाली जर्जर मान्यताओं, पद्धतियों का तिरस्कार, प्रगति और परिवर्तन के प्रति चेतना, समाज को मानवीय और नैतिक बने रहने, अधिकार-रक्षण हेतु संघर्षोन्मुख रहने की प्रेरणा, स्पष्ट सम्प्रेषण के प्रति सावधानी… प्रगतिशील काव्यधारा के ये कुछ मूल स्वभाव इनकी रचनाओं में आसानी से दिखते हैं।
यहाँ नए के प्रति बेवजह आग्रह नहीं है, पुराने के प्रति बेवजह घृणा नहीं है। पूरी तरह संयमित विवेक के साथ प्रगतिवाद का प्रवेश और आह्वान हुआ।
लाट्ठी देक्खी गोली देक्खी, बिफता औली सौली देक्खी ।
यह कविता सरसरी तौर पर सपाट लग सकती है, पर कवि की बड़ी जिम्मेदारी होती है। राष्ट्रीय संकट की घड़ी में ओछी लिप्सा त्यागकर प्रगतिशील कवियों ने अपना दायित्व जिस निष्ठा और समझ-बूझ के साथ निबाहा, वह इस कवि ने हरियाणवी कविता, ग़ज़ल, नज़्म,सांग नाटक आदि में देखने को मिलता है।
आज हम एक भयानक विडम्बनामय दौर से गुज़र रहे हैं। आमतौर पर विकसित दुनिया में और हमारे देश में भी विकास के जो तौर तरीके अपनाए गए हैं कवि ने अपनी ग़ज़लों में उन पर गहन दृष्टि डालते हुए बेहतरीन वर्णन किया है।
दुनिया को ज़्यादातर आबादी को बदहाली, भुखमरी, असुरक्षा और अनिश्चय की ओर
धकेल रही हैं। खुद मानव जाति का बड़ा हिस्सा आज भी विकास के अवसरों से वंचित बेरोज़गारी, गरीबी, सामाजिक हिंसा, दिमागी बीमारियों से पिस रहा है। इन विपत्तियों से अनेक प्रकार से गरीब देशों का दोहन करने के बावजूद विकसित देश भी नहीं पाये हैं। ये विकसित देश अपने संकट को टालने की गरज से युद्ध तक की शरण में आने से नहीं कतराते हैं।
एक अरसे में जनतन्त्र, समानता और धर्मनिरपेक्ष के आदर्श उभरें लेकिन अन्याय, शोषण और लूटखोरी पर आधारित व्यवस्था इन आदर्शों को खोखला करती रही। भुखमरी, निरक्षरता, जहालत और दासता को बनाए रखने वाली शक्तियों ने जनतन्त्र को अपना बन्धुआ बनाया और अनप-शनाप आर्थिक-सामाजिक सत्ता बटोरी। आबादी के बड़े हिस्से अभाव, अपमान, अज्ञान, गतिशीलता और अपराध की दलदल में लाभकारी होने के लिए छोड़ दिये गये। उदीयमान हरियाणा के पीछे का पिछड़ता-लिथड़ता हरियाणा बहुत कम लोग देख पा रहे हैं। हरियाणा का घटता लिंग अनुपात यहां के समाज की क्रूरता का लज्जाजनक प्रतीक है। आस्था की आड़ में अंधविश्वास और कूपमंडूकता का बाज़ार गर्म है।
धीरे-धीरे वैज्ञानिकता की जगह तकनीकवाद ने ले ली है। इसने मानव जाति के विनाश के दरवाज़े भी खोल दिए हैं। ज्ञान विज्ञान की ताकत आज एक ऐसी प्रभावशाली शक्ति बन चुकी है जिसका न्यायसंगत प्रयोग करके दुनिया की हर समस्या को सुलझाया जा सकता है। मगर इसके निरंकुश इस्तेमाल से दुनिया को, पृथ्वी को और पूरी मानवजाति को विनाश की तरफ़ भी धकेला जा सकता है।
हरियाणवी साहित्य और हरियाणा की राज्य स्तरीय अस्मिता के लए अप्रतिम उदाहरण है। शायद यही कारण है कि समकालीन कविता में भी इनकी चेतना और समझ बूझ की पद्धति जीवित है। शास्त्री की एक ओर पर्यावरण संरक्षण पर कविता की पंक्तियां हैं-
खाद-पाणी के बिना ज्यू रूख नी फलदा। न्यू ए बात्ती-तेल बिन दीवा नहीं बल्दा ।।
आग नफरत की जलावै सै घरां नै तो सिर्फ तात्ते पाणियां तै घर नहीं जलदा।
क्यूं कबुत्तर की तरां तू आंख भीच्चै सै आंख मीच्चण तै कदे खतरा नहीं टलदा।
आदमी म्हं जहर इतना हो लिया इब तो आसतीन्नां म्हं भी डरदा सांप नी पलदा।
सांझ – तड़का सै जमीं की चाल का नीयम बादलों के छाण भर तै दिन नहीं ढल्दा।
एक और कविता देखिए-
जै बडेरी नै संभालणियें घरां होन्दे तो खटोल्ली म्हं पड़ी का गात नी गलदा।
बख्त पै माणस रलै सै आसरा बण कै आंट म्हं ‘खड़तल’ कै कोये और नी रल्दा। अंत में यही कहूंगा कि यह युवाओं के लिए एक बेहतर किताब है। सभी को एक बार इस किताब को जरूर पढ़ना चाहिए।
पुस्तक – खड़तल कहणा ओक्खा सै
कवि- मंगतराम शास्त्री ‘खडतल’
प्रकाशन -मनुराज प्रकाशन,जींद
कीमत-320 रुपये

समीक्षक- मनजीत सिंह
