संस्मरण
हरिचांद गुरुचांद की वंशज मेरी ताई हेमलता और एक अदद शुतुरमुर्ग
कल अनसुनी आवाज़ के रुद्रपुर दफ्तर से लौटकर हरिदासपुर में बेटी गायत्री की दुकान पर बैग रखकर खड़े ही हुए थे कि तीन चार कुत्ते लड़ते हुए मेरे पैरों से पीछे से टकरा गए।संतुलन खोकर गिर गए हम और मामूली सी चोट लगी। आवारा घुमंतू पशुओं के कारण सड़क दुर्घटनाएं अब रोजमर्रा की आम बात है।
आगे कोई किताब लिखने की किंचित संभावना नहीं है। प्रिंट में छपने के लिए कहीं स्पेस नहीं है। जिंदगी में इतना प्यार मिला है हर कहीं देशभर में कि इस प्यार का कर्ज और फर्ज दोनों मेरे वजूद पर भारी है। इसके बारे में कहीं कुछ दर्ज न कर सकूं तो ठीक नहीं होगा।
हमारी जिंदगी को शक्ल देने वाले लोगों के बारे में अब कुछ लिखने की कोशिश करूंगा।
सबसे पहले मेरी ताई, हरिचांद गुरु चांद की वंशज हेमलता जी के बारे में।
उनकी मां यानी हमारी नानी प्रभा देवी प्रमथ नाथ ठाकुर की बहन थी। जो 1964 के दंगों के बाद अपनी इकलौती बेटी के पास रहने आई।
वह पूर्वी पाकिस्तान में ठाकुर परिवार के गांव ओडाकांदी से आई थी।उनके आने के बाद ठाकुरनगर ,पश्चिम बंगाल से केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर की दादी और हमारी नानी की भाभी ,पीआर ठाकुर की पत्नी वीणा पानी देवी अपने बड़े बेटे और शांतनु के ताऊ कपिल कृष्ण ठाकुर के साथ उत्तराखंड के हमारे गांव हमारे घर होकर गए।
हाईस्कूल की परीक्षा देकर हम 1973 में ठाकुरनगर जाकर पिताजी पुलिनबाबू के साथ तत्कालीन सांसद पीआर ठाकुर से भी मिलकर आए। मतुआ संघ अधिपति सांसद कपिल कृष्ण ठाकुर जो बसंतीपुर आए थे और सांसद भी थे तृणमूल के,पहले माकपा में थे और उनसे हमारी कोलकाता में अंतरंगता थी।
मातु आ आंदोलन के लड़ाके और मातबर थे हमारे दादा, चारों भाई। जमींदारों के खिलाफ घर में मोर्चा संभालती थी स्त्रियां। हमारी दादी शांतिदेवी भी किसान योद्धा थीं।
बसंतीपुर में उनका निधन हुआ।
प्रभा देवी ने गुरु चांद ठाकुर को देखा था और ठाकुर परिवार के शिक्षा आंदोलन के तहत पढ़ी लिखी भी थी। हमने हरिचांद गुरुचांद के किस्से और संस्मरण अपनी नानी से बचपन में सुने थे। आंदोलन के बारे में तो बहुत बाद में जान सका।
मुझे सही मायने में मेरी सीधी सादी नाबालिग सी मां बसंती देवी ने नहीं, मेरी ताई हेमलता ने पाला। मैं उन्हीं की देख रेख में बड़ा होता गया।
तराई का जंगल तब आबाद हो रहा था। गांव के भीतर और बाहर जंगल और दलदल थे।
पलाश के पेड़ बहुत थे।दहकते हुए पलाश को देखकर ताई जी यानि जेठी मां ने मेरा नाम भी पलाश रख दिया। हमारे महकने की कोई संभावना नहीं थी,लेकिन वे शायद मुझे दहकते हुए देखना चाहती होंगी।
जेठी मां घर की मुखिया थी।घर से बाहर सबकुछ पिताजी थे।गांव,घर और इलाके के लिए।खेती बाड़ी संगीतकार जेठमशाय के जिम्मे थी और घर जेठी मां की जिम्मेदारी में था।उनका फैसला ही अंतिम थी।बहुत आजाद थी। अकेली रुद्रपुर आती जाती थी साठ के दशक में।
साझा परिवार था हमारा। दादी,नानी, छोटो काका,काकी मां, बुआ सरला देवी ,जिन्होंने 1954 के आंदोलन के दौरान तराई के जंगल में पुनर्वास के लिए पहलीबार भूख हड़ताल की थी,जेठा मशाय,पिताजी,मीरा दीदी, वीणा और सुभाष। घर में बच्चों को पढ़ानेवाले गृह शिक्षक और संगीत शिक्षक अलग थे।
कचहरी घर में मेला लगा रहता था। तीन भाइयों की खेती साझा होती थी। हर मौसम में दासियों कामगार होते थे जो ज्यादातर पूरब से आते थे।
गांव बसंतीपुर और बंगाली विस्थापित समाज का साझा परिवार और साझा चूल्हा भी हमारे परिवार के साथ ही थे। एक विराट साझा परिवार में हमारा बचपन बीता।
अपने गांव ही नहीं, दिनेशपुर ही नहीं, पूरी तराई में बंगाली, पंजाबी, पहाड़ी, पुरबिया,देशी घरों में मेरे बचपन की कितनी ही स्मृतियां बिखरी पड़ी है।
अनगिनत स्त्रियों के अंचलभरे प्यार की छांव में पला है मेरा बचपन। वे नहीं होती तो इतनी संवेदनाओं की सुनामी में जिंदगीभर न फंसा रहता।
स्त्री मेरे लिए विमर्श नहीं, अस्मिता नहीं, साक्षात् मनुष्यता है। सभ्यता और संस्कृति हैं।
विमर्श भी अंततः स्त्री को स्त्री अस्तित्व में समाहित कर देता है। जबकि सामाजिकता का प्रारंभ स्त्री की कोख से और विस्तार उसके आंचल से होता है।
यह अहसास मुझे मेरी मां,ताई, छोटो काकी मां,मेरी गांव की सभी औरतों और तराई की हर स्त्री के सान्निध्य में हुआ कि यह सरासर गलत है कि स्त्री सिर्फ देह है।मन अगर है तो स्त्री मन। पुरुष का कोई मन होता है क्या? संवेदनाएं, सहानुभूति, दया,करुणा, सहायता , स्नेह और प्रेम सारे मानवीय तत्व हर स्त्री में है,चाहे वह जहां हो,जैसी भी हो।
डोडो के साथ रात दिन ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजरते हुए हजारों हजारों साल की धारावाहिक स्मृतियों की अनंत नदी समुंदर की तरह मेरे सारे वजूद पर छा जाती है। बच्चों की वे सुनहली झांकियां बिजली की तरह मेरे मानस आकाश को व्याप जाती हैं।
तब घर में, गांव में जंगली जानवर और जहरीले सांप अक्सर घुस आते थे। तराई आबाद होने से पहले कोटद्वार से लेकर टनकपुर खटीमा और चंदिया हजारा टाइगर प्रोजेक्ट, माला टाइगर प्रोजेक्ट का समूचा इलाका विश्व प्रसिद्ध जिम कार्बेट पार्क से जुड़ा हुआ था।
बच्चे खूब होते थे, जिंदा बचते थे बहुत कम।कुपोषण,बीमारी,महामारी, गरीबी, भूख, सर्पदंश और जंगली जानवरों की भेंट चढ़ जाते थे।
तराई आबाद होते वक्त जन्मे जो बच्चे जिंदा रह गए,जिनमें हम भी एक हैं,अगर आज जिंदा हैं तो इन्हीं अदम्य स्त्रियों के अनंत स्नेह,प्रेम और नेतृत्व से।
डोडो की आंखों से जेठी मां और उन सभी दिवंगत स्त्रियों की छवियां साफ नजर आती हैं।
आपदाओं के बीच हमर बच्चों बहुत आजाद था। दिन में जंगल,खेत और पेड़ों पर बसेरा, चरवाहा बनकर पढ़ना लिखना,अनिवार्य कृषि के अलावा असंख्य पहाड़ी नदियों में छलांग लगाकर तैरना सीखना और इन सबके बावजूद जो भी इक्के दुक्के स्कूल थे,उनके शिक्षकों के निरंतर प्रयास से मनुष्य होने का अभ्यास करते थे हम। जिंदगी बीत चली,लेकिन पता नहीं चला अभीतक कि कितना मनुष्य हो सका अंततः…
जेठी मां कहती थी कि पलाश का मन बहुत नरम है। किसी का दुख दर्द कष्ट देख नहीं सकता। रोग शोक मृत्यु की स्थिति में मुझे बहुत कष्ट होता था बचपन में। इन स्थितियों में गांव घर से दूर खेत और जंगल में भाग कर हरियाली की शरण लेता था।
डोडो भी अत्यंत संवेदनशील है। शायद बचपन में मैं भी इतना ही संवेदनशील रहा हूं। वक्त की मार ने संवेदनाओं के समुंदर को सूखा कर दिया।अब वह जंगल, वे खेत और हरियाली भी नहीं है,जहां आत्मा को चैन मिल सके।
एक उजाड़ रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग की जिंदगी जी रहा हूं।
यह जिंदगी भी कोई जिंदगी है?
महकना था नहीं।
दहकना था, दहक नहीं सके।
शुतुरमुर्ग बन गया आखिरकार।
