रिपोर्ट
“तू बोल ना”, महाराष्ट्र में बोलना अपराध है
महेश राजपूत
दो अलग -अलग घटनाएं हैं बिल्कुल असंबद्ध लेकिन बेझिझक साबित कर देती हैं कि महाराष्ट्र में बोलना अपराध है।
पहली घटना एक रॉम-कॉम मराठी फिल्म की है, जिसे दक्षिणपंथियों की गुंडागर्दी के कारण अपना शीर्षक बदलना पड़ा। और, दूसरी घटना टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा की पुण्यतिथि पर कुछ छात्रों के एक कार्यक्रम करने पर छात्रों पर पुलिस का कहर टूट पड़ना है। दोनों ही मामलों में एक समान सूत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दिन दहाड़े गला घोंटा जाना है।
पहली घटना 10 अक्टूबर को प्रदर्शित हुई मराठी फिल्म “मनाचे श्लोक” का पुणे समेत महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में प्रदर्शन रोकने से सम्बद्ध है, जिसकी परिणिति फिल्म का शीर्षक बदलने में हुई। हुआ यूं कि मृण्मयी देशपांडे की फिल्म, जो लिव-इन रिलेशनशिप पर रोमांटिक कॉमेडी है, के शीर्षक पर हिंदुत्ववादियों ने आपत्ति की कि शीर्षक संत समर्थ रामदास के भजन संग्रह “मनाचे श्लोक” से मिलता-जुलता है और एक “कमर्शियल फिल्म” के लिए इस्तेमाल करना स्वामी रामदास का अपमान है।
हिंदू जनजागरण समिति के अनुसार मनाचे श्लोक ने सदियों से लोगों को धर्म, स्वअनुशासन और भक्ति का मार्ग दिखाया है और इसका इस्तेमाल मनोरंजन के लिए और फायदा कमाने के लिए करना हिंदू संस्कृति, संतों और आध्यात्मिक विरासत का अपमान करना है।
टीवी9 की एक रिपोर्ट के अनुसार फिल्म को प्रमाणपत्र न देने और इसका प्रदर्शन रोकने को लेकर एक संगठन, समर्थ सेवा मण्डल ने उच्च न्यायालय से गुहार लगाई थी लेकिन अदालत ने राहत देने से इनकार कर दिया। इसके बाद फिल्म प्रदर्शित की गई थी।
फिल्म प्रदर्शन के एक दिन बाद ही पिछले शनिवार को पुणे के कोथरूड में एक मल्टीप्लेक्स में फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया गया। फिल्म के खिलाफ इसी तरह के विरोध प्रदर्शन छत्रपती संभाजी नगर और पश्चिम महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में हुए जिसके बाद सिनेमाघर संचालकों ने सभी जगह फिल्म उतार दी। बाद में फिल्म निर्माताओं ने फिल्म का शीर्षक बदलकर इसे फिर से प्रदर्शित करने का फैसला किया। फिल्म की निर्देशक ने सोशल मीडिया में जानकारी दी है कि अब फिल्म का शीर्षक “तू बोल ना” कर दिया गया है और 16 अक्टूबर को इसे फिर से प्रदर्शित किया जाएगा।
महाराष्ट्र में फिल्म हो, नाटक हों या कोई कार्यक्रम बंद कराना इधर बहुत बहुत आसान हो गया है, खासकर जब निर्माता या आयोजक “बड़े लोग” न हों। सिनेमाघर, सभागृह जाकर हुड़दंग मचाओ, लोगों को डराओ। पुलिस-प्रशासन मुंह फेर लेंगे। थिएटर\वेन्यू संचालक पीछे हट जाएंगे। आपकी किस्मत अच्छी हुई तो हुड़दंग मचाने वालों पर मामला दर्ज करने की औपचारिकता होगी और किस्मत खराब हुई तो आप पर ही जन भावनाएं आहत करने, दो वर्गों में वैमनस्य पैदा करने समेत आरोपों में मामला दर्ज कर देंगे।
दूसरी घटना और गंभीर है। 12 अक्टूबर को प्रोफेसर साईबाबा की पहली पुण्यतिथि पर एक शैक्षणिक संस्थान में कुछ छात्र दस मिनट का एक कार्यक्रम करते हैं। दक्षिणपंथी छात्रों का एक गुट सोशल मीडिया में हल्ला मचा देता है, नारेबाजी हुई और संस्थान का प्रशासन और पुलिस हरकत में आ जाते हैं। छात्रों पर आपराधिक मामला दर्ज हो जाता है। छात्रों के पीछे ऐसे पड़ा जाता है कि जैसे वह कोई शातिर अपराधी हों, उनके फोन, लैपटॉप जब्त किए जाते हैं, उनसे पूछताछ होती है।
आरोप यह है कि छात्रों ने दिल्ली दंगों के मामले में कैद शरजील इमाम और उमर खालिद के समर्थन में नारे लगाए। छात्र इससे इनकार करते हैं। कोई 15-20 छात्र 10 मिनट के लिए प्रोफेसर साईबाबा की तस्वीर के साथ जमा हुए, मौन श्रद्धांजलि दी। छात्रों के अनुसार एक अफवाह के आधार पर तिल का ताड़ बना दिया गया।
एक छात्र ने इंडियन एक्स्प्रेस को बताया कि “हम जमा हुए थे एक ऐसे प्रोफेसर को याद करने, जिसे अन्यायपूर्ण मुकदमे का सामना करना पड़ा था, जैसा कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा था। लेकिन उसके बाद जो हुआ, वह शैक्षणिक संस्थानों में सिकुड़ते लोकतान्त्रिक स्पेस का प्रतिबिंब है। और यह तब है जब “विभाजनकारी” तो क्या कैसी भी नारेबाजी नहीं हुई।”
ट्राम्बे पुलिस के अनुसार आठ छात्रों पर मामला दर्ज किया गया है। मामला टीआईएसएस के प्रशासन की शिकायत पर दर्ज किया गया है। पुलिस ने स्पष्ट करना चाहा कि किसी छात्र को गिरफ्तार नहीं किया गया है।
इस प्रकरण में न सिर्फ टीआईएसएस के प्रशासन के ही नहीं बल्कि पुलिस और सरकार के रवैये पर भी सवाल उठाया जाना लाजमी है। सरकार और इसकी कठपुतली पुलिस को पता है कि मामला जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने का हो तो कहाँ मुंह फेर देना है और कहाँ अतिसक्रिय होकर छात्रों, नागरिकों पर हमलावर होना है। जनचौक से साभार