विधानसभा चुनाव
बिहार में किसका उद्धार करेगी बसपा?
विजय शंकर पांडेय
मायावती जी ने एलान कर दिया—बसपा बिहार में अकेले चुनाव लड़ेगी। अब सवाल ये है कि नैया किसकी पार लगाएंगी? बिहार की राजनीति का तालाब इतना कीचड़ भरा है कि वहां तो पहले से ही सौ नावें डूबी पड़ी हैं। बसपा की नैया किनारे तक पहुंचे, इससे पहले ही गड्ढे में अटकने का खतरा है।
जनता भी सोच रही है—”बसपा का, यूपी में तो वोट बैंक सिकुड़कर ‘पॉकेट एडिशन’ हो गया है, अब बिहार में आकर किसका उद्धार करेंगी?” दरअसल, चुनाव लड़ना बसपा के लिए अब राजनीति से ज़्यादा आत्म-संतोष का योगाभ्यास हो गया है—हार जीत की परवाह नहीं, बस “हम भी मैदान में हैं” का ऐलान भर करना है। वैसे बिहार की जनता के पास पहले ही इतने नेता हैं कि “अतिरिक्त” विकल्प देखकर माथा पकड़ लेती है। कह सकते हैं—बसपा का भविष्य वही है, जो पटना की ट्रैफिक लाइट का—सबको दिखती है, पर कोई रुकता नहीं।
बिहार की सियासत में मायावती जी ने नया मोर्चा खोल दिया है—बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी। सुनते ही लोग हंस पड़े, कुछ ने ताली बजाई और बाकी ने सोचा—“ठीक है, चुनाव का मौसम है, इस तरह की चौंकाने वाली घोषणाएं मुफ्त में आती रहती हैं।” अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि बसपा किसकी नैया पार लगाएगी?
बिहार की जनता के पास वैसे ही कई आप्शन पहले से ही है। लालू-राहुल की नाव है, नीतीश की नाव है, भाजपा की मोटरबोट है और चिराग की स्पीडबोट। ऐसे में बसपा की छोटी सी डोंगी बीच में उतरेगी तो लहरों से पहले ही डगमगाने लगेगी। जनता भी सोच रही है—“दीदी, यूपी की गंगा किनारे वाली नैया तो किनारे नहीं लगी, गंडक और सोन में क्या कमाल होगा?”
अब कयासबाज़ी शुरू है—क्या बसपा इंडिया ब्लॉक के वोटों में सेंधमारी कर एनडीए को फायदा पहुंचाना चाहती है? कुछ लोग कहते हैं—बसपा तो अब ट्रेलर जैसी पार्टी है, असली फिल्म तो कहीं और चलती है। वोटों का कटाव उसका ‘यूएसपी’ बन गया है। जहां बसपा उतरी, वहां समीकरण गड़बड़ाए, और आख़िर में फायदा उसी को हुआ जिसे कोई उम्मीद नहीं थी। यानि बसपा ट्रॉफी भले न उठाए, मैच में कइयों का मज़ा जरूर बिगाड़ देगी।
बिहार में बसपा के लिए हालात और कठिन हैं। यहां जातियों की गिनती कैलकुलेटर से नहीं, अब ऐप से होती है। हर जाति का अपना ठेकेदार है, अपनी पार्टी है। ऐसे में बसपा का नारा “बहुजन समाज” सुनकर लोग पूछते हैं—“बहुजन में कौन-कौन शामिल है, और टिकट किस जाति को मिलेगा?” अंत में यही कहा जा सकता है कि बसपा बिहार में चुनाव लड़कर किसी की नैया पार नहीं लगाएगी, बल्कि कई नावों में छेद कर देगी। एनडीए को थोड़ा फायदा हो सकता है, इंडिया ब्लॉक को थोड़ी मुश्किल। पर जनता के लिए नतीजा वही रहेगा—वोट दिया, नेता बदले, हालात वही के वही।
मायावती की पार्टी का भविष्य अब बस यही है—राजनीति की ‘फुटनोट’ पार्टी, जो हर चुनाव में याद तो दिला देती है कि “हम भी मैदान में हैं”, लेकिन जीत की फिनिश लाइन तक पहुंचना बस सपना ही रह गया है। कह सकते हैं, बसपा अब बिहार चुनाव का “कॉमिक रिलीफ” बन चुकी है—गंभीर सियासी फिल्म में हंसी का छोटा सा सीन।
राजनीतिक भविष्य? ये सवाल पूछना वैसा ही है जैसे किसी पुराने डिब्बे से पूछना कि तुम्हें अब म्यूज़ियम में जगह मिलेगी या कबाड़ी के पास। मायावती की राजनीति कभी हाथी पर सवार थी, अब पैदल चल रही है। बसपा के कार्यकर्ता भी सोचते होंगे—”हमारे वोट का काम अब सिर्फ दूसरों का वोट काटना रह गया है क्या?”

विजय शंकर पांडेय
