इराकी कवि दुन्या मिखाइल की इक्कीस कविताएं

इराकी कवि दुन्या मिखाइल की इक्कीस कविताएं

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(1)

 

कछुए की तरह

घूमती रहती हूं मैं यहां से वहां

अपनी पीठ पर लादे हुए अपना घर।

 

(2)

 

दीवार पर टंगा आईना

नहीं दिखाता उनमें से किसी भी चेहरे को

जो गुज़रते हैं उसके सामने से।

 

(3)

 

मृतक

चन्द्रमा जैसे होते हैं

पीछे छोड़ कर पृथ्वी को

वे दूर निकल जाते हैं।

 

(4)

 

ओह, नन्हीं चींटियो,

कैसे आगे बढ़ती रहती हो तुम

पीछे मुड़ कर देखे बिना।

काश मैं उधार ले पाती तुम्हारे ये पांव

केवल पांच मिनटों के लिये भी!

 

(5)

 

हम सभी पत्ते हैं शरद ऋतु के

हर समय गिरने को तैयार।

 

(6)

 

मकड़ी अपना घर ख़ुद से बाहर ही बनाती है।

वह कभी भी उसे नहीं कहती निर्वासन।

 

(7)

 

मैं कबूतर नहीं हूं

कि याद रख सकूं अपने घर का रास्ता।

 

(8)

 

ठीक इसी तरह,

उन्होंने गट्ठर बनाया हमारे हरित वर्षों का

एक भूखे भेड़ की भूख मिटाने के लिये।

 

(9)

 

बेशक आप ‘प्यार’ शब्द को देख नहीं पायेंगे

मैंने पानी पर लिखा था उसे।

 

(10)

 

पूरा चांद

एक शून्य की तरह दिखायी देता है

जीवन गोल है

अपनी परिणति में।

 

(11)

 

दादा ने देश छोड़ा था एक सूटकेस के साथ

पिता ने ख़ाली हाथ छोड़ा

पुत्र ने छोड़ा हाथों के बिना ही

 

(12)

 

नहीं, मैं ऊब नहीं गयी हूं तुमसे

चन्द्रमा भी तो आता ही है बिला नागा हर रोज़

 

(13)

 

उसने अपने दर्द का चित्र बनाया :

एक रंगीन पत्थर

भीतर समुद्र की अतल गहराई में।

मछलियां गुज़रती हैं वहां से,

वे उसे छू नहीं सकतीं।

 

(14)

 

वह बिल्कुल सुरक्षित थी

अपनी मां के गर्भ की गहराइयों में।

 

(15)

 

लालटेनें रात की अहमियत जानती हैं

और वे कहीं अधिक धैर्यशील हैं

बनिस्बत सितारों के।

वे टिकी रहती हैं सुबह होने तक।

 

(16)

 

पृथ्वी इतनी साधारण है

कि आप एक आंसू या एक हंसी के साथ

उसकी क़ैफ़ियत दे सकते हैं।

पृथ्वी इतनी जटिल है

कि उसकी क़ैफ़ियत देने के लिये

आपको एक आंसू या एक हंसी की ज़रूरत पड़ सकती है।

 

(17)

 

जो संख्या देख पा रहे हैं आप

वह अनिवार्य रूप से बदल जायेगी

अगले ही पासे के साथ।

ज़िन्दगी नहीं दिखाती अपनी सारी शक़्लें

एकबारगी।

 

(18)

 

सुहाना पल समाप्त हो चुका है।

मैं एक घंटे बिता चुकी

उस पल के बारे में सोचते हुए।

 

(19)

 

तितलियां पराग कण लाती हैं

अपने नन्हें पांवों के साथ,

और उड़ जाती हैं।

फूल ऐसा नहीं कर पाते।

इसीलिये इसकी पत्तियां होती हैं स्पन्दित

और इसके मुकुट

सिक्त रहा करते हैं आंसुओं से।

 

(20)

 

हमारे कितने ही आदिवासी साथी

युद्ध में मारे गये।

कुछ स्वाभाविक मौत मर गये।

उनमें से कोई भी ख़ुशी के मारे नहीं मरा।

 

(21)

 

जनता चौक पर खड़ी वह औरत

ताम्बे से बनी है।

वह बिकाऊ नहीं है।

 

(अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र, 8 अप्रैल, 2018)

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