जनवादी लेखक संघ ने संवैधानिक मूलाधारों पर निरंतर हमले का लगाया आरोप
बांदा में हुए 11वें राष्ट्रीय सम्मेलन में पास किया इसके खिलाफ प्रस्ताव
जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में देश भर से आए हुए हिंदी, उर्दू समेत विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों ने संवैधानिक मूल्यों पर लगातार हो रहे हमलों पर चिंता जताते इसके खिलाफ प्रस्ताव पास कर संविधान में संशोधन कर नागरिकों को मिले समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों में कटौती की जा रही है, तो दूसरी ओर आम भारतीय नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त है उनमें भी कटौती किए जाने के आरोप लगाते हुए निंदा की गई है।
जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन बांदा में 19 से 21 सितंबर तक आयोजित किया गया। इस अवसर पर साहित्यकारों, लेखकों ने कई प्रस्ताव पारित किए। एक प्रस्ताव में कहा गया है कि यह दौर आज़ादी के बाद का सबसे संकटपूर्ण और चुनौती भरा दौर है। धर्म के नाम पर जिस तरह एक पूरे धार्मिक समुदाय को देश के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है और संविधान में मिले नागरिक अधिकारों से वंचित कर उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील किया जा रहा है. वह इस राजसत्ता के फ़ासीवादी चरित्र का ही प्रमाण है। भारत का यह फासीवाद अपने चरित्र में अतिदक्षिणपंथी भी है और ब्राहमणवादी भी। मौजूदा राजसत्ता के विरुद्ध संघर्ष उन सब भारतीयों का कर्तव्य है जो भारतीय संविधान में यकीन करते हैं और जो भारत की बहुविध धार्मिक, जातीय भाषायी और सांस्कृतिक परंपरा को बचाये रखना चाहते हैं क्योंकि असली भारत इसी परंपरा में निहित है जिसे हिंदुत्वपरस्त ताकते खत्म करना चाहती हैं।
प्रस्ताव कहता है कि भारतीय संविधान के मूल में यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संघ है क्योंकि भारत विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय भिन्नताओं और सांस्कृतिक बहुलताओं वाला देश हैं। इन भिन्नताओं को स्वीकार करके ही उनके बीच एकता की स्थापना की जा सकती है। इसीलिए भारत की सकल्पना संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक संघात्मक गणराज्य के रूप में की थी। इसके विपरीत आरएसएस भारत को हिंदुओं का ही देश मानता है और अन्य धर्मावलंबियों का या तो हिंदुओं में ही समाहित करता है या उन्हें विदेशी मानता है इसलिए वह एक राष्ट्र, एक धर्म, एक नस्ल, एक जाति की बात करता है।
भारतीय जनता पार्टी जब-जब सत्ता में आई है, चाहे राज्यों में या केंद्र में उसने उस दिशा में लगातार कदम उठाये जो आरएसएस की सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर तेजी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे सबद्ध सभी सगठन जमीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए सिनेमा सहित मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है कानूनों में बदलाव। भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बारबार दोहराती रही है। पहला, कश्मीर से धारा 370 हटाना, दूसरा, समान नागरिक संहिता लागू करना और तीसरा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। नरेंद्र मोदी के शासन काल में कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो चुका है जिसका उदघाटन स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया हैऔर कई राज्यों ने समान नागरिक संहिता को कानून बनाकर अपने यहाँ लागू कर दिया है।
जिस दौर में साप्रदायिक राजनीति का तेजी से फैलाव और उभार हो रहा था, उसी दौर में भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दक्षिणपथी करवट ले चुकी है। कह सकते हैं कि इस दौर में पूजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ा है और जो और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाए थी, वे या तो ढह गयी हैं, या कमजोर हुई हैं। इस दौर की तीन पहचानें हैं, निजीकरण उदारीकरण और भूमडलीकरण। इसी दौर की उपज आतंकवाद भी है।
आतंकवाद को विश्वव्यापी और खतरनाक बनाने में यदि अमरीका की सामाज्यवादी नौतिया जिम्मेदार हैं, तो उस प्रॉदयोगिकी का भी हाथ है जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौदयोगिकी के रूप में सामने आये हैं। भारत में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय है। लेकिन मीडिया आमतौर पर कथित रूप से जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही अपने हमले का निशाना बनाता रहा है। आतंकवाद यदि एक ओर देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का जरिया बनता है. तो दूसरी ओर, यह मीडिया को एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषयवस्तु भी प्रदान करता है। मीडिया दर्शकों के इस राजनीतिक दुराग्रह को मजबूत करता है कि ‘सभी मुसलमान आतकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं जबकि हिंदूत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खुखार रूप नै सामने आ चुका है। यहां यह नहीं भुला जाना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वस, उड़ीसा कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले भी आतंकवाद ही है। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में मुसलमानों की भीड दवारा हत्या, उनके घरों पर बुलडोजर चलवाना और उन्हें निरपराध होते हुए भी गिरफ्तार करके लंबे समय के लिए जेल भेज देना भी आतंकवाद ही है। मणिपुर नै पिछले दो साल से कुकी आदिवासी समूह और मैतेई लोगों के बीच गृह युद्ध की सी स्थिति बनी हुई है। सत्ता समर्थक मैतेई समूहों (जो अधिकतर हिंदू हैं और बताया जाता है कि आरएसएस उनके बौच सक्रिय है) दवारा कुकी अल्पसंख्याकों (जो अधिकतर ईसाई हैं) हिंसक हमले किये जा रहे हैं, वह भी एक तरह का आतकवाद ही है। अब तक 150 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। लगभग छह हजार घरों को जलाया जा चुका है। लगभग 250 चर्च नष्ट किये गये हैं। 60 हजार लोग विभिन्न शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं। हजारों की संख्या में हथियार लूटे जा चुके हैं। कई महिलाओं को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया है। इतनी भयावह स्थिति के बावजूद प्रधानमंत्री ने मणिपुर जाना जरूरी समझा और न वहां शांति स्थापित करने के लिए कोई कदम उठाया है। इन दस सालों में मनुवादी, दलितविरोधी, पितृसत्तावादी, मुस्लिम विरोधी, हिंदुत्वपरस्त ताकतों को अच्छी तरह से एहसास हो चुका है कि यह राजसत्ता उनकी है।
यह अकारण नहीं है कि इन दस सार्ला में लगातार मुसलमानों पर ही नहींमहिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य कमजोर वर्गों पर हमले बढ़े हैं। शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण लगातार कम किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र के उदयोगों को बेचने की मुहिम का नतीजा है कि इन सभी कमज़ोर वर्गों के रोज़गार के रास्ते लगातार बद होते जा रहे हैं।
लेकिन इन सबसे अधिक खतरनाक है, कानूनों में ऐसे बदलाव जिसके कारण जहां एक ओर मुसलमानों को संविधान में मिली समानता और स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है, तो दूसरी ओर आम भारतीय नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त है उनमें भी कटौती की जा रही है। इसके साथ ही पिछले दस सालों में संवैधानिक सस्थाओं को लगातार कमजोर किया जा रहा है। अभी हाल ही में संसद् में जिस 130वा संविधान संशोधन प्रस्तावित किया गया है, अगर वह ससद दवारा स्वीकार कर लिया जाता है तो केंद्र की सरकार कभी भी किसी भी राज्य सरकार के मुख्यमंत्री को और वहा की सरकार को बर्खास्त कर सकती है।
2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही है जिसका मकसद हिंदुओं को एकजुट करना है ताकि वे एकजुट होकर भाजपा को वोट दे। उनके और मुसलमानों में इस हद तक विभाजन पैदा करना है जिससे न केवल हिंदू एकजुट हो बल्कि धार्मिक अल्पसख्यको विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला, गोमास या गोतस्करी का हो या लव जिहाद का या जय श्रीराम बोलने का मकसद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाए जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग करलें। उनका मकसद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत और घृणा भर दे (और भय भी) कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सके और मौका लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाए। हिंदू यह मानने लगे कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही है। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध अपराध की श्रेणी में नहीं आता। इसके लिए वे दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक कश्मीर के मुसलमान जो उनकी नज़र में अलगाववादी है और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद के समर्थक हैं और इसी प्रचार का परिणाम है, कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिए और देश के लिए खतरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसीके लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया है और जिसका अगला कदम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) होगा। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो. उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों के अलग कर दिया गया है।
पिछले दस साल में मोदी सरकार ने धारा 124 का काफी इस्तेमाल किया है। इसी तरह यूएपीए जैसा कानून का भी इस सरकार ने सबसे अधिक इस्तेमाल किया है जिसमें बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है। भीमा कोरेगांव मामले में पिछले आठ साल से ज्यादा समय से बहुत से बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाये जेलों में बंद है। इसी तरह बिना किसी सबूत के और बिना मुकदमा चलाये फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए साप्रदायिक दंगे भड़काने के आरोप में उमर खालिद, शर्जील इमाम और आठ अन्य को पिछले पांच साल से जेल में बंद रखा गया है और उनकी जमानत तक नहीं होने दी जा रही है। कानूनों में जो बदलाव किये जा रहे हैं उससे स्पष्ट है कि सरकार के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक विशेष रूप से मुसलमान हैं जिन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा आदि भाजपा शासित राज्यों में तुरत-फुरत न्याय के नाम पर मुसलमानों के घर, दुकानें और व्यवसायिक भवनों को बुलडोजर के दवारा धराशायी किया गया है। अभी कुछ ही दिनों पहले हरियाणा में नूह में हुए दंगे के बाद बहुत बड़ी सख्या में मुसलमानों के घर, दुकानें और कई भवन बुलडोजर से धराशायी कर दिये गये। न्याय करने का यह गैरकानूनी तरीका है लेकिन इसे रोकने वाला कोई नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी करते हुए इस पर रोक लगायी थी कि क्या यह जातीय नरसंहार का मामला है? इस मामले में इन दो न्यायाधीशों दवारा आगे सुनवाई हो उससे पहले ही उन दोनों न्यायाधीशों से केस हटा दिया गया। यही नहीं बुलडोजर मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की खुले आम अवहेलना की जा रही है.
दरअसल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई अंग ऐसा नहीं है जो इस साप्रदायिक फासीवादी सरकार के निशाने से बाहर है। ससद का हाल हम देख रहे हैं जिसकी बहसों में शामिल होना प्रधानमत्री अपना अपमान समझते हैं। बहुत से जरूरी विधेयक बिना बहस मुबाहिसे के पास हो जाते हैं। अगर विपक्ष का कोई सांसद ज्यादा विरोध करता है तो उसे निलंबित कर दिया जाता है। इससे कुछ भिन्न स्थिति न्यायपालिका की नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर मामलों में न्यायालय के फैसले न्याय से नहीं बल्कि सत्ता की राजनीतिक जरूरतों से तय होते हैं। राहुल गांधी का मानहानि के मामले में जिस तरह से अधिकतम सजा दी गयी वह इसका ठोस प्रमाण है। अरुण गोयल को चुनाव आयोग का सदस्य नियुक्त करने का जो तरीका अपनाया गया वह इतना अधिक पक्षपातपूर्ण था कि पांच जजों की बेंच ने यह व्यवस्था की कि जब तक ससद कानून नहीं बनाता तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों दवारा होगी उनमें प्रधानमंत्री, विपक्षी दल का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन अपने बहुमत के बल पर मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को हटाकर प्रधानमंत्री दवारा एक केन्द्रीय मंत्री को मनोनीत करने की व्यवस्था कर दी गयी है.
ये सब बदलाव जो हो रहे हैं, वह लोकतंत्र को कमजोर करने वाले हैं और संविधान की मूल आत्मा का हनन है। इसका एक मकसद हिंदू राष्ट्र की दिशा में कदम बढ़ाते जाना है, तो दूसरी तरफ भारत के लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे की बुनियाद को कमजोर करना है। ये दोनों मकसद दरअसल एक ही हैं।
कहा है कि हो सकता है कि फौरी तौर पर मुसलमानों की इस हालात को देखकर हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे राष्ट्रवाद की विजय के रूप में देखे और इस बात से प्रसन्न हो कि पाकिस्तान की तरह हम भी एक धार्मिक राष्ट्र बन गये हैं लेकिन इन सबकी आड़ में जो शोषणकारी पूंजीवादी राजसत्ता जनता के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और आगे ये मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती जाएगी उसे वे कैसे और कब तक भूल पायेंगे। देश पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और मंदी की मार से त्रस्त है और इनके पास इन समस्याओं से निपटने के जो तरीके हैं, उनसे निश्चय ही सकट और गहराता जाएगा तब हिंदू राष्ट्र के प्रति गर्व भावना और मुसलमानों के प्रति नफरत उनकी कोई मदद नहीं करेगी। यही नहीं सघ की विचारधारा केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के ही विरुद्ध नहीं है वह दरअसल ब्राह्मणवादी विचारधारा भी है और उसका एक बड़ा हिस्सा जितनी नफरत मुसलमानों से करता है उससे कम दलितों से नहीं करता। वे यह भी चाहते हैं कि दलितों को संविधान ने जो बराबरी का अधिकार दिया है, आरक्षण की सुविधा दी है वह भी उनसे छीन ली जाए। सच्चाई यह है कि सघ का पूरा वैचारिक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और संघीय संरचना के विरोध में निर्मित हुआ है। उनके हमले का मूल निशाना यह संविधान ही है जिसे वे खत्म न कर सकें तो पूरी तरह से कमजोर और निष्प्रभावी जरूर बना देना चाहते हैं। 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार यही काम कर रही है। संविधान हमारे लोकतंत्र का ही नहीं इस देश के प्रत्येक नागरिक की आज़ादी का भी रक्षक है और उसी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
प्रस्ताव में कहा गया है कि जनवादी लेखक संघ का यह ग्यारहवा राष्ट्रीय सम्मलेन मोदी सरकार दवारा भारतीय संविधान के मूलाधारों पर किये जा रहे हमले का विरोध करता है और संविधान की रक्षा के लिए सघर्ष करने का आह्वान करता है।