भारतीय संसदीय प्रणाली: चुनौतियाँ और समाधान – एक विश्लेषण
डॉ. रामजीलाल
भारत के भविष्य को आकार देने के लिए, भारतीय संविधान सभा ने चार अलग-अलग शासन मॉडल की सावधानीपूर्वक जाँच की: गांधीवादी दृष्टिकोण, स्विस प्रणाली, अमेरिकी राष्ट्रपति संरचना, और ब्रिटिश संसदीय ढाँचा। जवाहरलाल नेहरू ने गांधीवादी मॉडल को सिरे से खारिज कर दिया—जिसे 20वीं सदी की जटिलताओं से निपटने के लिए अनुपयुक्त माना गया—जिसने इसके संभावित लाभों की अधिक गहन जाँच के अवसर को सीमित कर दिया। इस बीच, स्विस मॉडल, जिसमें संसदीय और राष्ट्रपति दोनों प्रणालियों के तत्व शामिल थे, भारत जैसे विशाल और विविध देश के लिए अव्यावहारिक माना गया। कुछ सभा सदस्यों, जिनमें काज़ी सैयद करीमुद्दीन, एस.एल. सक्सेना, और के.टी. शाह शामिल थे, ने अमेरिकी राष्ट्रपति मॉडल की पुरजोर वकालत की। उन्होंने इसकी स्थिरता, लोकप्रिय संप्रभुता पर ज़ोर, और व्यक्तित्व पूजा से बचने की क्षमता की प्रशंसा की। हालाँकि, सभा ने अंततः ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को भारत के लिए सबसे उपयुक्त ढाँचा माना।
भारत में संसदीय प्रणाली अपनाने के मुख्य कारण:
यह महत्वपूर्ण निर्णय कई महत्वपूर्ण कारकों से प्रभावित था, विशेष रूप से डॉ. बी.आर. अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, और सरदार पटेल जैसे नेताओं की शिक्षा और दृष्टिकोण। इन तीनों ने इंग्लैंड में पढ़ाई की थी और वे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से बहुत प्रभावित थे। इसके अलावा, ऐतिहासिक परिस्थितियों—जिसमें सांप्रदायिक दंगे, 1947 का विभाजन, मद्रास (अब चेन्नई) में विनाशकारी अकाल, और महात्मा गांधी की हत्या शामिल है—ने संघवाद पर आधारित संसदीय प्रणाली के लिए संविधान सभा की सोच को महत्वपूर्ण रूप से आकार दिया।
भारत में संसदीय प्रणाली अपनाने का एक और मुख्य कारण भारतीयों द्वारा शासन में भाग लेने से प्राप्त अनुभव था। सन्1909, सन्1919, और 1935 के सुधार अधिनियमों के आधार पर, भारतीय विधायी और कार्यकारी निकायों में सक्रिय रूप से शामिल थे, जिससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि संसदीय प्रणाली कैसे काम करती है. विशेष रूप से सन्1935 के सुधार अधिनियम ने व्यावहारिक अनुभव और संसदीय प्रणाली की गहरी समझ के लिए अधिक अवसर प्रदान किए. परिणामस्वरूप, भारतीय शासन के अन्य मॉडलों की तुलना में संसदीय प्रणाली की परंपराओं को अपनाने के लिए बेहतर रूप से तैयार थे.
भारत में संसदीय प्रणाली अपनाने के निर्णय को जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता वाली संविधान समिति ने दृढ़ता से समर्थन दिया. नेहरू ने इस प्रणाली के कई प्रमुख फायदों पर ज़ोर दिया, जिसमें भारत की प्राचीन परंपराओं के साथ इसकी अनुकूलता और विवादों को सुलझाने और असहमति के बीच भी आम सहमति तक पहुँचने के लिए शांतिपूर्ण तरीकों को बढ़ावा देना शामिल है. उन्होंने बातचीत को बढ़ावा देने और समाधान खोजने के लिए संसदीय ढांचे को ज़रूरी माना, जिससे सरकार की विधायिका और कार्यपालिका शाखाओं के बीच तालमेल बना रहे। नेहरू का पक्का मानना था कि संसद को मुख्य प्रतिनिधि संस्था के तौर पर काम करना चाहिए और संविधान में बताए गए अनुसार उसके पास अंतिम अधिकार होना चाहिए. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने पर ध्यान देना चाहिए, न कि एक अतिरिक्त विधायी निकाय के रूप में काम करना चाहिए. आखिरकार, 7 जून, 1947 को समिति इस नतीजे पर पहुंची कि ब्रिटिश-शैली की संसदीय प्रणाली भारत की खास परिस्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त है.
संसदीय प्रणाली सफलता के सम्मुख प्रमुख चुनौतियां अधोलिखित है:
1संसद की बैठकों में गिरावट:
संसद (लोकसभा, राज्यसभा) की बैठकों में निरंतर कमी होना संसद में विभिन्न मुद्दों पर चर्चा तब हो सकती है जब लोक सभा की बैठकें वर्ष अधिक समय तक चले .परंतु बैठकों में गिरावट संसदीय प्रणाली के लिए एक चुनौती का विषय है.जब जवाहरलाल नेहरूप्रधानमंत्री के रूप मेंलोकसभा के नेता थे उसे समय प्रथम लोकसभा- सन् 1952 — सन् 1957 तक औसतन रूप में प्रति वर्ष कार्य दिवस 135 थे जबकि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंदर मोदी के नेतृत्व में 17वीं लोकसभा जून 2019 फरवरी 2024 तक 274 कार्य दिवस है अर्थात प्रति वर्ष औसत कार्य दिवस केवल 55 रहे हैं.
यदि क्रमानुसार देखें तो प्रथम लोकसभा सन्1952 से लेकर सन् 1957 तक औसतन प्रति वर्ष 135 दिन चली. – सन् 1952 से सन् 1970 तक औस्तन प्रति वर्ष में 121 दिन , छठी लोकसभा सन् 1977 – सन् 1980 से वार्षिक औसतन कार्य दिवस प्रतिवर्ष 100 रहे हैं .सन् 2000से, सन् 2019 तक 68 दिन प्रति वर्ष.और परंतु सर्वाधिक कम प्रतिवर्ष कार्य दिवस (55) है. 17वीं लोकसभा (सन् 2019- सन् 2024) की बैठकें (274) हुईं .यह संख्या पिछली चार लोकसभाओं की तुलना में सबसे कम है. इसके विपरीत, ब्रिटिश संसद के 150-170 और अमेरिकी कांग्रेस के 260 प्रतिवर्ष कार्य दिवस है .
XX17वीं लोकसभा ( 2019 से 2024 तक) 274 दिन चली यानी की वाषिकऔसतन केवल 55 बैठकें, 16वी लोक सभा( 2014 से 2019 तक),की कुल 331 बैठकें हुईं, यानी की वाषिकऔसतन केवल 66बैठके,14वीं लोकसभा(2009-2014) के कुल कार्य दिवस 332 ,लगभग बराबरथे.सन्2009 से सन््2014 तक 15वीं लोकसभा में 356 कार्य दिवस, यानी वार्षिक औसतन 71 दिन थे.1-19 दिसंबर का शीत कालीनमसेशन यूपीए सरकार का सत्ता में आने के बाद चौथा सबसे छोटा सेशन है.अत सन्2025 में संसद की कुल बैठकों की संख्या सिर्फ़ 62 रह गई।
2.अध्यादेश जारी करने की संख्या में वृद्धि: संसदीय प्रणाली के राज की अपेक्षा व्यवस्थाअध्यादेश राज में परिवर्तित
ब्रिटेन ,अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया ,कनाडा इत्यादि देशों में विधान पालिकाओं की बैठकों के कार्य दिवस अधिक होने के कारण अध्यादेश जारी नहीं किए जाते. परंतु भारत में संसद के कार्य दिवस कम होने के कारण ही सभी सरकारों के द्वारा कानून की अपेक्षा अध्यादेश (संविधान के अनुच्छेद 123) जारी कर दिए जाते हैं.
सन् 1950 से अब तक 750 से ज़्यादा अध्यादेश जारी किए गए. सन् 2014-2023 के बीच 76 अध्यादेश जारी किए गए. वर्तमान शताब्दी में महत्वपूर्ण आपराधिक कानून (संशोधन) अध्यादेश, 2013, सिक्योरिटीज लॉ (अमेंडमेंट) ऑर्डिनेंस, 2014, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अध्यादेश, 2014 ( विशेष अदालतों की स्थापना), प्रतिभूति कानून (संशोधन) अध्यादेश, 2014 को 15वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान( तीन बार), तीन कृषि अध्यादेश 2020 महत्वपूर्ण हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी नीत एनडीए सरकार के द्वारा सर्वाधिक विवाद ग्रस्त बिना संसदीय बहस व स्वीकृति के तीन कृषि अध्यादेश 2020 जारी किए गए.
अध्यादेशों की शक्ति का प्रयोग विशेष हालत में होना चाहिए.परंतु विभिन्न सरकारों के द्वारा अपने राजनीतिक लाभ के लिए भी अध्यादेशों को जारी किया जाता है.प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी नीत एनडीए सरकार के द्वारा सर्वाधिक विवादग्रस्त बिना संसदीय बहस व स्वीकृति के तीन कृषि अध्यादेश 2020 जारी किए गए. अध्यादेशों के मामले में राज्यों की स्थिति और भी अधिक गंभीर है .उदाहरण के तौर परअर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. डीसी वाधवा ने जनहित याचिका (PIL) दायर कर बिहार के राज्यपाल द्वारा 1967 से 1981 के बीच 256 अध्यादेशों को बार-बार जारी करने (कुछ को 10-14 साल तक) की प्रथा को चुनौती दी, जिन्हें विधानमंडल के सामने पेश नहीं किया गया था. डी.सी. वधवा व अन्य बनाम बिहार राज्य (1986 ) मामले में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने कहा: “अध्यादेश जारी करने की शक्ति असल में एक असाधारण स्थिति से निपटने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शक्ति है और इसे “राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए गलत तरीके से इस्तेमाल” करने की अनुमति देने से इनकार करते हुए सभी अध्यादेशों को असंवैधानिक करार दिया और रद्द कर दिया.
अध्यादेशों में वृद्धि होने के कारण संसदीय प्रणाली के राज की अपेक्षा व्यवस्था’अध्यादेश राज’ में परिवर्तित हो जाती है. अत:, संसदीय प्रणाली की सफलता के लिए, संसदीय सत्रों के कामकाज के दिनों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए, और अध्यादेशों का इस्तेमाल केवल ‘असाधारण परिस्थितियों’ में ही किया जाना चाहिए.
3 संसदीय सत्रों में हंगामा और समय की बर्बादी : गरिमा को ठेस
वास्तव में लोकसभाऔर राज्य विधानसभाएं जनता का प्रतिनधित्व करती हैं..परंतु सदन में जाने के बाद प्रतिनिधि लगभग इस जिम्मेवारी को भूल जाते हैं कि सदन को चलाना पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों का कार्य है.परंतु सदनों में नारेबाजी, विपक्षीय दलों के सदस्यों को निलंबित करने अथवा सामूहिक रूप से निलंबित करना, विपक्षी दलों का बाहरी गमन सदनों की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं. सर्वाधिक चुनौती सांसदों की सदस्यता खत्म करना है.इसका महत्वपूर्ण उदाहरण राहुल गांधी सदस्यता खत्म करना है जो कि बाद में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बहाल कर दी गई.परंतु इसके लिए केवल विपक्ष को दोष देना गलत होगाक्योंकिसाधनों के अध्यक्षों कादृष्टिकोण तथष्ठ न होकरसत्ताधारी दल के पक्ष में होता हैऔरसदनों के अध्यक्षअपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए दिखाई देते हैं.
4.उत्पादकता में कमी: हर मिनट 2.5 लाख रुपये का खर्च
सदनों में हंगामा ,नारेबाजी और वाकआउट के कारण उनकी उत्पादकता में कमी आती है सदनों में हंगामा ,नारेबाजी और वाकआउट के कारण संसद के सन् 2000- सन् 2007 की अवधि में औसत कार्य घंटे कुल समय के 50% से भी कम थे. लेजिस्लेटिव (रिसर्च PRS )के अनुसार सन् 2018 के बजट सत्र का दूसरा भाग 2000 के बाद से सबसे खराब व सबसे कम उत्पादक सत्रों में से एक रहा हैं. राज्यसभा ने सरकारी बिलों पर आवंटित समय का सिर्फ तीन मिनट ( 6 %) जबकि लोकसभा ने आवंटित समय का 14 मिनट( केवल 1%) ही काम किया. बजट सत्र में दोनों सदनों में कुल मिलाकर 250 घंटे से ज़्यादा समय व्यवधानों में बर्बाद हुआ The Times of India April 7, 2018)सन् 2024 के शीतकालीन सत्र में 65 घंटे और 15 मिनट की हानि हुई. 17वीं लोकसभा (2019-2024) में पिछली चार लोकसभाओं की तुलना में सबसे कम बैठकें (274) हुईं और कुल 1,615 घंटे काम किया. यद्यपि यह 16वीं लोकसभा से 20% अधिक है परंतु सभी पूर्णकालिक लोकसभाओं के औसत (2,689 घंटे) से 40% कम है.
संसदीय सत्रों में हंगामा ,नारेबाजी और वाकआउट के कारण उनकी उत्पादकता में कमी आती है.उदाहरण के तौर 18वीं लोकसभा जुलाई 2025 के मानसून सत्र के दौरान दोनों सदनों में लगातार रुकावटें आती रहीं और इस वजह से, लोकसभा की प्रोडक्टिविटी लगभग 31% और राज्यसभा की लगभग 39% रही. इस सेशन के दौरान लोकसभा में कुल उपलब्ध 120 घंटों में से सिर्फ़ 37 घंटे ही चर्चा हो पाई और राज्यसभा में सिर्फ़ 41 घंटे 15 मिनट ही चर्चा हुई. परिणाम स्वरूप लगभग 75% से अधिक समय हंगामों की भेंट चढ़ गया. परिणाम स्वरूप संसद की उत्पादकता में बहुत बड़ी गिरावट आती है. (https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2159426®=3&lang=2).
यही कारण है कि सन्1952 में पहले आम चुनाव के बाद नवंबर-2019 तक संसद के कुल 3,818 अधिनियम बनाए गए..
संसद चलाने में एक्टिव सेशन के दौरान हर मिनट 2.5 लाख रुपये का खर्च आता है. तीन दिनों में राज्यसभा 4.4 घंटे और लोकसभा 0.9 घंटे चली.राज्यसभा में हंगामे की वजह से टैक्सपेयर्स को 10.2 करोड़ रुपये और लोकसभा में 12.83 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ .. संसद चलाने में एक्टिव सेशन के दौरान हर मिनट 2.5 लाख रुपये का खर्च आता है. तीन दिनों में राज्यसभा 4.4 घंटे और लोकसभा 0.9 घंटे चली है. राज्यसभा में हंगामे की वजह से टैक्सपेयर्स को 10.2 करोड़ रुपये और लोकसभा में 12.83 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.
यही कारण है कि सन्1952 में पहले आम चुनाव के बाद नवंबर-2019 तक संसद के कुल 3,818 अधिनियम बनाए गए हैं.
5.सांसदों का निलंबन: ‘विपक्ष मुक्त’ संसद
संसद सदस्यों को सदनों में हंगामा करने, असंसदीय या अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने, या कार्यवाही में बाधा डालने के लिए सस्पेंड किया जाता है, ताकि संसदीय कार्यवाही बिना किसी रुकावट के जारी रह सके. हैं। निलंबित करने कार्रवाई सत्रों के दौरान व्यवस्था , अनुशासन व सदनों की गरिमा को बनाए रखने के लिए सांसदों का निलंबित का अधिकार लोकसभा में स्पीकर तथा राज्यसभा में अध्यक्ष को दिया गया है.
भारत में सांसदों को सस्पेंड करने वाले नियम 1952 से हैं, जिससे संसदीय कार्यवाही सुचारू रूप से चलती रहे. हालांकि, 2001 में, लोकसभा ने गंभीर स्थितियों से निपटने के लिए स्पीकर को और ज़्यादा अधिकार दिए. निलंबन के कुछ खास मामलों में 1989 में 63 लोकसभा सांसदों, 2019 में दो दिनों में 45 सांसदों, 2015 में 23 सांसदों और एक और मामले में 18 सांसदों (23 +18=41) का सस्पेंशन शामिल है. सन् 2023 में 146 निलंबित किया जाना भारतीय संसदीय प्रणाली के इतिहास में एक रिकॉर्ड है. विपक्षी दलों के 146 सदस्यों को निलंबित करने से ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ‘विपक्ष मुक्त’ संसद हो गई हो. यह प्रवृत्ति संसदीय प्रणाली के आधारभूत सिद्धांतों के विपरीत है.
6.संसद की सदस्यता समाप्त :
सन् 1988 से अब तक 42 सांसदों की संसद की सदस्यता समाप्त की गई.14वीं लोकसभा में सबसे ज़्यादा सदस्यों को सदन से निकाला गया – 10 को संसद में सवाल उठाने के लिए रिश्वत लेने और जुलाई 2008 में UPA-I सरकार द्वारा मांगे गए विश्वास मत के दौरान क्रॉस-वोटिंग करने के लिए 9 सांसदों को सदस्यता खोनी पड़ी.
(https://indianexpress.com/article/india/42-lost-membership-of-parliament-since-1988-maximum-19-in-14th-lok-sabha-8596323/) इंडियन एक्सप्रेस,7 मई 2023
6.संसदीय नियंत्रण में कमी और प्रधानमंत्री और कैबिनेट ज़्यादा शक्तिशाली होना:
संसदीय सत्रों में कमी और सांसदों के अनुशासनहीन व्यवहार से होने वाली रुकावटों के कारण प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद पर संसद का नियंत्रण न के बराबर रह जाता है। संसदीय नियंत्रण धीरे-धीरे कम होता जाता है, और प्रधानमंत्री और कैबिनेट ज़्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं . नतीजतन, प्रधानमंत्री और कैबिनेट चुने हुए तानाशाही के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए दिखते हैं. संक्षेप में, संसदीय शासन प्रणाली ‘’प्रधानमंत्रित्व शासन प्रणाली’’ में बदल जाती है. प्रधानमंत्री को लगभग उतनी ही शक्ति मिल जाती है जितनी राष्ट्रपति शासन प्रणाली में ‘राष्ट्रपति’ को मिलती है. ऐसी स्थिति में, ‘निर्वाचित अधिनायकवाद’ की संभावनाअधिक बढ़ जाती है. डॉ अंबेडकर ने कहा ‘इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो. चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है.” उनकी यह आशंका ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है.जर्मनी में हिटलर चुनाव के माध्यम से सत्ता में आया था और तानाशाह बन बैठा.
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लोकसभा और राज्यसभा: कुल महिला सांसद 117
लोकसभा चुनावों में चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की कुल संख्या 1957 में 3% से बढ़कर 2024 में 10% हो गई है. निर्वाचित महिला सदस्यों की कुल संख्या, जो प्रथम लोकसभा में 22 और द्वितीय लोकसभा में 27 थी, सत्रहवीं लोकसभा में बढ़कर 78 और अठारहवीं लोकसभा में कम होकर 75 हो गई है (जो कुल सदस्यों का लगभग 14% है). राज्यसभा में भी 1952 में महिला सदस्यों की कुल संख्या 15 थी, जो वर्तमान में 42 है. यह कुल सदस्यों का लगभग 17% है. (https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2150216®)
संक्षेप में लोकसभा और राज्यसभा में कुल महिला सांसद 117 हैं (लोकसभा 75 + राज्यसभा 42). महिला मतदाताओं की संख्या लगभग पुरुष मतदाताओं के बराबर होने के बावजूद भी, महिला सांसदों की संख्या बहुत कम है. यही कारण है कि वैश्विक रैकिंग में महिला प्रतिनिधित्व के संबंध में भारत का स्थान149वां है. जबकि वैश्विक रैकिंग में क्रमशः रवांडा में 61.3% (विश्व में प्रथम स्थान),क्यूबा में 53.4%, निकारगुआ में 50.6%, व मेक्सिकों में 50% महिला प्रतिनिधित्व है.
(Source: statista.com/statistics)
यह चिंता की बात है क्योंकि इससे महिलाओं के मुद्दों पर होने वाली चर्चाओं में उनकी भागीदारी सीमित हो जाती है. “संपूर्ण-सरकार” और “संपूर्ण-समाज” दृष्टिकोण अपना कर ही महिला सशक्तिकरण किया जा सकता है
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राजनीति का अपराधीकरण:राजनीतिक अपराधीकरणऔर अपराधियों का राजनीतिकरण :
20वीं शताब्दी के 1970 दशक से भारतीय राजनीति में अपराधियों का प्रवेश होता चला गयाऔरराजनीति का अपराधीकरण और अपराधियों का राजनीतिकरण हो गया.धीरे-धीरे विधानसभाओं से लेकर संसद तक निर्वाचित अपराधियों की संख्या में वृद्धि होती चली गई..एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2024 के चुनाव में 18वीं लोकसभा में 543 सदस्यों से 251 सदस्य आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं.अन्य शब्दों में यह संख्या लोकसभा में बहुमत से केवल 21 कम है . भारत में लगभग 30% सांसदों और विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं.लोकसभा में गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले सांसदों की हिस्सेदारी 2009 के बाद से दोगुनी से अधिक हो गई है. संविधान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि क्या है? डॉ अंबेडकर के अनुसार “संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले लोग अच्छे नहीं हैं, तो यह बुरा साबित होगा. संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले लोग अच्छे हैं, तो यह अच्छा साबित होगा.”
9.मुस्लिम प्रतिनिधित्व अंतराल: जनसंख्या की दृष्टि से बहुत कम
इस समय भारत में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 15% है. परंतु वर्तमान लोकसभा (2024)में मुस्लिम केवल मुस्लिम सांसद केवल 24 (कुल लोकसभा सदस्यों का4.4%) हैं. सन् 1952 में लोकसभा में 25 मुस्लिम सांसद( 5 . 11%)निर्वाचित थे.परंतु सन्1980 में लोकसभा में 49 मुस्लिम निर्वाचित हुए जो कुल सदस्यों का 9.04% था. यह प्रतिनिधित्व अभी तक एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड है. परंतु वर्तमान लोकसभा (2024)में मुस्लिम सांसद केवल 24 (कुल लोकसभा सदस्यों का4.4%) हैं जो सन् 1952 से एक कम है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी नीत सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का लोकसभा में कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है. : भारत की संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्वजनसंख्या के अनुपात से बहुत कम होने के कारण मुसलमानों संबंधित नीतियों पर प्रभाव,हताशा व निराशा,राजनीतिक बदलावों और समावेशी शासन के लिए प्रमुख चुनौतियां हैं. Source: Statistical Reports of the Election Commission of India, various years.
https://www.theindiaforum.in/politics/decline-muslim-legislative-representation-and-its-consequences
10.लोकसभा में सांसदों की नियमित भागीदारी
17वीं लोकसभा (सत्र जून 2019 से फरवरी 2024तक ) की 274 बैठकें हुईं, जो पिछली सभी पूर्णकालिक लोकसभाओं में सबसे कम हैं. औसतन, 17वीं लोकसभा के दौरान सांसदों (स्पीकर और मंत्रियों को छोड़कर) की उपस्थिति 79% थी.
( .https://prsindia.org/parliamenttrack/vital-stats/participation-of-mps-in-the-17th-lok-sabha)
अतः सांसदों को नियमित रूप में बैठकों में निमयित भाग लेना चाहिए ताकि वह संसद की कार्रवाई में अधिक से अधिक योगदान कर सके. लोक सभा की बैठक में नियमित उपस्थिति काफी नहीं है अपितु उनको कार्रवाई में सक्रिय भाग लेना चाहिए तथा विभिन्न मुद्दों पर सरकार से प्रश्न पूछना चाहिए.17 वीं लोकसभा औसतन, सांसदों ने 45 बहसों में हिस्सा लिया.परंतु नौ सदस्यों ने एक भी प्रश्न नहीं पूछा.
संक्षेप में विधान निर्माण की खराब गुणवत्ता, सार्थक बहस का अभाव और सदस्यों की कम भागीदारी , राजनीतिक ध्रुवीकरण, भ्रष्टाचार और मुस्लिम प्रतिनिधित्व अंतराल और महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व मुख्य बाधाएं व मुख्य चुनौतियां हैं.
संसद की गरिमा की वृद्धि के लिए सुझाव:
- प्राथमिकता वाली लिस्ट:संसद सत्र शुरू होने से पहले, सत्ताधारी पार्टी और विपक्षी पार्टियों को सत्र के दौरान उठाए जाने वाले मुद्दों की एक प्राथमिकता वाली लिस्ट तैयार करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसका ठीक से पालन हो.
2.गुणवत्तापूर्ण तैयारी और गरिमा:
सांसदों और मंत्रियों को संसदीय बहस में भाग लेने के लिए उच्च स्तरीय गुणवतापूर्ण तैयारी के साथ जाना चाहिए ताकि सार्वजनिक महत्व के मुद्दों से ध्यान न भटके. विभिन्न मुद्दों पर बहस के लिए निश्चित समय में नैतिक ईमानदारी के साथ आपसी सम्मान को ध्यान में रखते हुए, इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को सावधानी से चुनना चाहिए ताकि दोनों पक्षों के सदस्यों की भावनाओं को ठेस न पहुँचे.
3.स्पीकर का निष्पक्ष आचरण: हालांकि स्पीकर किसी खास पार्टी से होते हैं और इंग्लैंड के स्पीकर की तरह स्पीकर बनने के बाद अपनी पार्टी से इस्तीफा नहीं देते, फिर भी उन्हें सदन में अनुशासन बनाए रखने में एक जज की तरह निष्पक्ष और तटस्थ रहना चाहिए, क्योंकि वे पूरे सदन की गरिमा के अंतिम प्रतीक होते हैं लोकसभा के सदस्यों का निलंबन अथवा निष्कासन के लिए उसे अत्यधिक सावधानी, निष्पक्षता, ईमानदारी और नैतिकता के साथ काम करना चाहिए ताकि उसके पद,व सदन की गरिमा को ठेस न पहुचे.अन्य शब्दों में लोकसभा राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है और लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा का प्रतिनिधित्व करता है.
4.कानून और अध्यादेश
कानून बनाना संसद का मुख्य काम है. कानून बनाते समय विभिन्न हितों, विशेषकर प्रमुख हितों को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जाना चाहिए, ताकि विरोध की स्थिति में तीन कृषि कानूनों की तरह इसे भी रद्द न करना पड़े. हालांकि असाधारण परिस्थितियों में अध्यादेश ज़रूरी हो सकते हैं, लेकिन संविधान के अनु. 123 के तहत छह महीने के अंदर संसद से उनकी मंज़ूरी लेनी ज़रूरी है. इसलिए, बार-बार अध्यादेश जारी करना संसद की गरिमा को कम करता है
अन्य सुझाव: संसद की गरिमा बढ़ाने के लिए, महिलाओं और अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में असमानताओं को दूर किया जाना चाहिए, और राजनीतिक अपराधियों को नियंत्रित करने के लिए उपायों की ज़रूरत है. इनके अतिरिक्त संसदीय समितियों को मजबूत बनाना, आचार संहिता और कठोर अनुशासन लागू करना ,दक्षता में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी के प्रयोग को बढ़ावा देना इत्यादि मुख्य हैं.
संक्षेप में संसद हिंदुस्तान के 140 करोड़ से अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए सांसदों को कार्य करना चाहिए ताकि प्रजातंत्रात्मक संसदीय प्रणाली का भविष्य उज्जवल हो.
लेखक रामजीलाल सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल हैं
