बेबाक बोल
जयपाल की कविता पर एक टिप्पणी
लकड़बग्घा : एक सामयिक प्रतीक और नैतिक दस्तावेज़
एस.पी. सिंह
जयपाल की कविता “लकड़बग्घा” एक जीवित दस्तावेज़ की तरह है, जो इतिहास के नंगे पाँव साक्ष्य को वर्तमान की आग में खड़ा कर देती है। यह रचना केवल किसी साम्प्रदायिक दंगे की व्यथा-कथा नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के भीतर छिपे उस दरिंदे का दर्पण है जो अवसर मिलते ही धर्म, राजनीति और भीड़ के आवरण में प्रकट हो उठता है। कविता का “मैं” कोई व्यक्तिगत पात्र नहीं, बल्कि पूरी उस पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो जन्म से पहले ही मारी जाती है, जन्म के बाद भी डरी-सहमी रहती है, और अपनी जीवित उपस्थिति को अपराधबोध की तरह ढोती है।
भाषा अत्यंत सादी है, परंतु उसका व्यंग्य असह्य है। “लक्कड़बग्घा” यहाँ केवल जंगली प्राणी नहीं, बल्कि सत्ता संरचना, भीड़ मानसिकता और संस्थागत हिंसा का रूपक है। पुराने गाँव का लकड़बग्घा और आज के गौरव-यात्रा निकालने वाले लकड़बग्घे के बीच का अंतर पूरी सभ्यता की विडम्बना उजागर करता है। गाँव का लकड़बग्घा आदिम और मूर्ख है, पकड़ा भी जाता है, लाठी-गोली खाता है, उसमें अपराधबोध है — लेकिन आधुनिक लकड़बग्घा योजना बनाकर, व्यवस्था के संरक्षण में, संविधान और न्यायालय की आँखों के सामने न केवल हत्या करता है बल्कि महात्मा बन बैठता है।
कविता का सबसे करुण और भयावह बिंदु यह है कि माँ कहती है — “अच्छा होता मेरे गाँव का लक्कड़बग्घा मुझे बचपन में ही उठा ले जाता।” यह वाक्य केवल निराशा का नहीं, बल्कि इस समय के मनुष्य के प्रति गहरी हताशा और वर्तमान समाज की नैतिक पराजय का उद्घोष है। यहाँ कवि यह दिखाता है कि आदिम हिंसा से कहीं अधिक भयावह वह हिंसा है जो संस्थागत हो जाए, धर्म के नाम पर वैध कर दी जाए, और समाज उसे पुण्यकर्म मानने लगे।
जयपाल की रचना प्रश्न नहीं करती, वह आरोप लगाती है। यह कविता किसी ‘साहित्यिक मनोरंजन’ के लिए नहीं है — यह एक अभियोग-पत्र है। इसकी लय में शोक है, शब्दों में लहू की गंध है, और अंत में एक गहरी चुप्पी है जो पाठक के विवेक को झकझोरती है। यह रचना हमें स्मरण कराती है कि जब तक हम लकड़बग्घे को लकड़बग्घा नहीं कहेंगे, तब तक वह हमारे सिंहासन पर बैठा रहेगा।
निष्कर्ष—कविता केवल एक दंगे त्रासदी का वर्णन नहीं करती, बल्कि हमें हमारी सामूहिक चेतना का आईना दिखाती है। यह बताती है कि असली खतरा जंगलीपन में नहीं, बल्कि उस सभ्यतागत स्वीकृति में है जो हिंसा को महिमा-मंडित करती है। यह रचना हमें नैतिक रूप से असहज करती है और विवेक जगाने के लिए बाध्य करती है।