अबाध गति से बढ़ता जा रहा है आस्था का सैलाब और तर्क का वीरानापन?

अबाध गति से बढ़ता जा रहा है आस्था का सैलाब और तर्क का वीरानापन?

मुनेश त्यागी

कांवड़ यात्रा को देखकर लगने लगा है कि जैसे कांवड़ लाने वाले अधिकांश बच्चे, नौजवान, बूढ़े, लड़कियां और औरतें सभी भोले भाले बन गए हैं। गीत गाने संगीत भी वैसे ही बना लिये गये हैं। इनमें से अधिकांश कांवड़िए सूखे बदन वाले और कमजोर जिस्म वाले थे। अधिकांश गरीबी, बेरोजगारी, अभावों और दूसरी समस्याओं से ग्रस्त थे। इनमें से अधिकांश चप्पल वाले थे, कम कपड़े वाले और अर्धनग्न थे। 12-12, 14-14 साल के बच्चे बच्चियां भी कांवड़ियों के रूप में दिखाई दिये। इन बच्चों को तो पता ही नहीं था कि वे कांवड़ क्यों ला रहे हैं? मां बाप के साथ बच्चे भी कांवड़ियां बन गए हैं। इनके अधिकांश मां-बाप गरीब और अभावग्रस्त मजदूर हैं।

एक अनुमान के अनुसार, इस बार पांच करोड़ से ज्यादा लोग कांवड़ लाने वालों में शामिल थे। इस प्रकार लगभग बीस बाइस करोड़ लोग और इनके सगे संबंधी, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कांवड़ यात्रा से जुड़े हुए थे। कावड़ यात्रा के कारण बहुत सारे शहरों का यातायात और व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। बाजार खाली पड़े थे, दुकानदार रो रहे थे। उनका कहना था कि पिछले कई दिनों से बिक्री नहीं हो रही है। यह भी हकीकत है कि इस यात्रा के कारण सरकार, व्यापारियों और जनता को करोड़ों रुपए की आर्थिक हानि हुई है।

यहीं पर यह जानना भी जरूरी है कि ये कावड़ लाने वाले लोग कौन हैं? जब इस बारे में जानकारी की गई तो पता चला कि इसमें सभी जातियों के गरीब, एससी का बड़ा हिस्सा, ओबीसी के लोग, बेरोजगार, अर्ध्दबेरोजगार, पढे लिखे बेरोजगार, वंचित, अभावग्रस्त, अनपढ़, गुमराह, हजारों साल के अंधविश्वास, धर्मांधता, अज्ञानता, मनुवादी सोच और मानसिकता के शिकार लोग शामिल थे। इनमें आर्थिक रूप से सम्पन्न कारोबारी, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, जज, नेता, अभिनेता, उद्योगपति, विद्वान, वैज्ञानिक, बारोजगार, और अमीर वर्ग और खाते पीते समूह और साधन सम्पन्न वर्गों का कोई भी आदमी शामिल नहीं था।

पिछले कई सालों से हम, कुछ कांवड़ियों से जिनमें पुरुष, औरतें और बच्चे शामिल थे, जिन्हें भोला, भोली और गणेश भी कहा जाता है, से बातचीत करते रहे हैं। हमने उनसे पूछा और जानकारी की कि वे कांवड़ क्यों ला रहे हैं? उनकी क्या मांगें हैं? क्या मन्नतें हैं? क्या समस्याएं हैं? क्या परेशानियां हैं?

तो उन सभी ने बताया कि उनकी मांगें और मन्नतें हैं कि हमारा घर ठीक चले, सुख शांति और समृद्धि हो, हमारे बच्चों को रोजगार मिले, हमें नौकरी मिले, महंगाई से निजात मिले, गरीबी दूर हो जाये, अभाव और वंचना से मुक्ति मिले, हमारी रोटी कपड़ा मकान शिक्षा स्वास्थ्य, रोजगार और बुढ़ापे की असुरक्षा की सभी समस्याएं खत्म हो जाएं और हमारे घर परिवारों में सुख, शांति और अमन-चैन हो।

इस बार जब कावड़ियों से कांवड़ लाने के बारे में पूछा गया तो उन सब का एक ही जवाब था कि वे अपनी आस्था और श्रद्धा से कावड़ ला रहे हैं। इसके अलावा उनकी कोई मन्नत नहीं है। बार बार पूछने पर उन सब का यही जवाब था।

यह निश्चित है कि इस बार कांवड़ियों को अलग-अलग जवाब देने और कारण बताने से रोकने का अभियान चला कर उन्हें एक ही जवाब देने के लिए ट्रेंड किया गया है।

कुछ कांवड़िए असाध्य रोगों को दूर करने के लिए कावर लाने लगें हैं, तो कोई लड़का पैदा हो जाए, लड़की पैदा हो जाए, इम्तिहान में पास हो जाए, नौकरी लग जाए, रोजगार मिल जाए, हमारे रोजगार धंधे सही तरीके से चलने लगें जैसी मिन्नतें लेकर कांवड़ लाने लगें हैं। सभी कांवड़िए, इसी तरह की मांगें लेकर आ रहे हैं।

कोई भी कांवड़िया ऐसा नहीं है जिसकी कोई मांग या मन्नतें न हो। यहीं पर बहुत गजब की और आश्चर्यचकित करने वाली हकीकत यह है कि सारे के सारे कांवड़िए इस बात को सच माने हुए हैं कि कांवड़ लाने से उसकी सारी समस्याएं, उनकी सारी मांगें, उसकी सारी मन्नत पूरी हो जाएंगी और उनके सारे कष्ट दूर हो जाएंगे और शिवजी महाराज उनकी सभी समस्याओं का समाधान निकाल देंगे।

यहीं पर सवाल उठता है कि अभी तक कांवड़ ढोने वाले करोड़ों लोगों में से, कितनों की मन्नतें पूरी हुईं? कितनों को रोजगार मिला? कितनों की गरीबी, बेरोजगारी और अर्ध बेरोजगारी दूर हुई? कितने लोगों के असाध्य रोग ठीक हुए? कितनों के घरेलू झगड़े खत्म हुए? इसका कोई विवरण सरकार या समाज के पास नहीं है। बस यही सोच, आस्था और विश्वास कि शिव जी महाराज उनकी समस्याओं का हल करेंगे, इसी मान्यता के तहत ये लोग कांवड़ ला रहे हैं।

यह अज्ञानता, अंधविश्वास, धर्मांधता और पाखंडों को बनाए बचाए रखने का एक मनुवादी उपक्रम है। यह कोरी आस्था और विश्वास का मामला है। इसका हकीकत, तथ्यों, तर्क, विवेक, ज्ञान विज्ञान और वैज्ञानिकता से कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि शिक्षा मिलना, रोजगार मिलना, गरीबी दूर होना, असाध्य रोगों से मुक्ति मिलना, बच्चे पैदा होना, इन सबके पीछे अर्थशास्त्र और राजनीति है और सरकार की नीतियां हैं और कुछ प्राकृतिक कारण हैं।

हकीकत और सच्चाई यह है कि कांवड़ लाने से किसी को भी रोजगार नहीं मिलेगा, किसी की गरीबी दूर नहीं होगी, किसी को शिक्षा नहीं मिलेगी, कोई पास फेल नहीं होगा, किसी को लड़का या लड़की की प्राप्ति नहीं होगी, किसी की पारिवारिक समस्याएं दूर नही होंगी।

आज समाज में जरूरी है कि इन सारी समस्याओं पर गंभीरता के साथ सोच विचार हो। इन भ्रम के शिकार और गुमराह लोगों को ज्ञान, विज्ञान, आधुनिक शिक्षा, राजनीति और अर्थव्यवस्था से परिचित कराया जाए और उन्हें जानकारी दी जाए जाए कि कावड़ लाने से उनकी किसी समस्या का समाधान होने वाला नहीं है बल्कि उनकी सभी समस्याओं का समाधान सरकार द्वारा बनाई गई राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक जनसमर्थक नीतियों से होगा।

हां, ये अधिकांश कांवड़ लाने वाले सीधे साधे लोग,  चालाक सत्ता प्रेमी पूंजीपतियों का, धन्ना सेठों का, सत्ताधारियों का और मनुवादी समाज को बनाए रखने वालों का शिकार हो सकते हैं। इनकी तो किसी की मन्नतें पूरी नहीं होंगी, मगर इनको प्रयोग करने वाले, इनका शिकार करने वाले, मनुवादी और सत्ताधारी लोगों की मन्नतें जरूर पूरी हो जाएगी और पूरी हो रही है।

इनकी सोच, सत्ता और शासन को इन कांवड़ियों से कोई डर नहीं है क्योंकि कावड़ लाने वाले अधिकांश लोग, सरकार और जनविरोधी सत्ता की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ कोई आंदोलन करने नहीं जा रहे हैं, कोई अभियान छेड़ने नहीं जा रहे हैं, उनकी जनविरोधी नीतियों पर कोई सवाल उठाने नहीं जा रहे हैं। उनमें से कोई भी है सवाल पूछने वाला नहीं है कि उनकी ये समस्याएं आजादी प्राप्त करने के 78 बाद आज भी क्यों बनी हुई है?

इन समस्याओं को आज तक भी क्यों दूर नहीं किया गया है और इन सारी समस्याओं का शिकार अधिकांश गरीब वंचित और आर्थिक रूप से शोषित, पीड़ित और वंचित समाज के लोग ही क्यों है?

यह सब पिछले काफी समय से चली आ रही अंधविश्वासी, धर्मांध, अवैज्ञानिक, अविवेकी सोच और शिक्षा का परिणाम है, क्योंकि रोजगार, शिक्षा, गरीबी और उनकी लगातार जारी बदहाली और बदहवासी को लेकर, कभी इन लोगों से सोच-समझकर बातचीत नहीं की गई और इन लोगों को इनके बारे में नहीं बताया गया।

इसका एक खेदजनक पहलू यह भी हो गया है कि कई सरकारों के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों ने, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को तिलांजलि देकर, इनका समर्थन करना शुरू कर दिया है और फूल बरसाने शुरू कर दिए हैं ताकि सत्ता में बने रहने का और सत्ता अपनाने का अभियान जारी रहे।

इस बार कांवड़ यात्रा में हिंसा और अपराध की घटनाएं बढ़ी हैं और कावड़ यात्रा की जगह, ज्ञान विज्ञान की यात्रा करने की बात कहने और लिखने वाले लेखकों और कवियों को डराया धमकाया गया है। एक शिक्षक के खिलाफ तो एफआईआर की गई और उसे माफी मांगने को मजबूर किया गया।

अपनी इन मांगों, मन्नतों और समस्याओं को लेकर ये करोड़ों लोग लगातार परेशान और गुमराह हो रहे हैं और कुछ शातिर लोगों की राजनीतिक हबस का शिकार हो रहे हैं। यह एक दुर्भाग्य पूर्ण अभियान है जो साल दर साल बढ़ता जा रहा है।

यहीं पर तमाम तर्कशील, विवेकवान और वैज्ञानिक शिक्षा में प्रवीण लोगों, किसानों, मजदूरों लेखकों कवियों, साहित्यकारो, और जागरूक पत्रकारों के संगठनों का कर्तव्य और जिम्मेदारी बनती है कि इन करोड़ों कांवड़ियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक नीतियों और गतिविधियों के साथ-साथ, इन ज्वलंत और गंभीर समस्याओं पर भी चर्चा की जाए ताकि इन सबको, इस धर्मांध और अंधविश्वासी सोच और मानसिकता से बाहर निकाला जा सके।

इन लगातार बनी हुई समस्याओं के बारे में इन लोगों से बातचीत की जाए। किसानों, मजदूरों और नौजवानों के जनसंघर्षों के साथ साथ और इन परेशान लोगों की समस्याएं कैसे दूर हो सकती है? इनका क्या समाधान हो सकता है?

इस पर विस्तार से विचार विमर्श किया जाए, इन्हें जागरूक और ज्ञानी बनाया जाए, विवेकवान बनाया जाए और तर्कशील बनाया जाए और इन्हें जानकारी दी जाए कि वर्तमान सामंती, धन्नासेठों और साम्प्रदायिक ताकतों के गठजोड़ की लुटेरी व्यवस्था, उनकी किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती और किसानों मजदूरों के जनसंघर्षों के साथ मिलजुल कर साझे संघर्षों के बल पर ही और किसानों मजदूरों की समाजवादी सत्ता और सरकार क़ायम करके ही, उनकी समस्याओं और परेशानियों का सच्चा और सही समाधान निकाला जा सकता है।

उन्हें यह भी बताया जाए कि उनकी इन हजारों साल पुरानी गरीबी, शोषण, जुल्मों सितम, अशिक्षा, कूशिक्षा, बेरोजगारी, अर्ध्द-बेरोजगारी और पारिवारिक समस्याओं को दूर करने के लिए, इस जनविरोधी और गरीब विरोधी समाज में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है, जनता की जनवादी व्यवस्था और समाजवादी व्यवस्था कायम करने की जरूरत है, जिसकी वकालत शहीद-ए-आजम भगत सिंह, उसके साथियों और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने की थी, तभी अंधविश्वास, अज्ञानता और धर्मांधता से भरपूर इस बढ़ती जा रही प्रथा का अंत किया जा सकता है, अन्यथा यह आस्था का सैलाब और तर्क का वीराना, यूं ही जारी रहेगा और परेशान जनता इस बहकावे में आती रहेगी और इन परेशान लोगों की समस्याओं का कभी समाधान नहीं निकल सकता।

यहीं पर यह बेहद अफसोस की बात है कि जैसे-जैसे सांप्रदायिकता और अंधविश्वास की बाढ़ आई हुई है, गरीब और आर्थिक रूप से वंचित लोग इस अज्ञानता, अंधविश्वास और सांप्रदायिक मुहिम का शिकार होते चले जा रहे हैं, वैसे-वैसे भारत की अधिकांश विपक्षी पार्टियां, लेखक, कवि, साहित्यकार, पत्रकार और बुद्धिजीवी इस बढ़ती संप्रदायिक एकता और अंधविश्वासी मुहिम पर कुछ कहने को तैयार नहीं हैं, सरकार और शोषक वर्ग की साजिश की पोल खोलने को तैयार नहीं हैं ।

अब तो ऐसे लगता है कि जैसे ये सब अंधे, गूंगे और बहरे होकर इस सांप्रदायिक और अंधविश्वास की मुहिम को बढ़ाने में सांप्रदायिक ताकतों की दिल खोलकर मदद कर रहे हैं। वे इस जन विरोधी और संविधान विरोधी, ज्ञान विज्ञान की संस्कृति विरोधी मुहिम के खिलाफ कुछ बोलने, लिखने और करने को तैयार नहीं हैं। यह रुख बेहद खतरनाक और चिंताजनक है। चिंतन और राजनीति की इस गरीबी पर बेहद अफसोस है।

कांवड़ लाने वालों को यह जानकारी देनी जरूरी है कि कांवड़ लाने की यह सारी प्रथा कोरी और कोरी आस्था और भ्रम है, अंधविश्वास, अज्ञानता और धर्मांधता है। विवेक, तर्क, तथ्यों, ज्ञान विज्ञान, अनुसंधान और विश्लेषण से इसका कोई लेना देना नहीं है और इससे उनकी किसी समस्या, परेशानी, कष्ट और दुख दर्द का समाधान होने वाला नहीं है।

समस्त कांवड़ियों और उनके परिवार जनों को यह बताने की सबसे बड़ी जरूरत है कि उनकी ये समस्याएं क्यों बनी हुई हैं? ये समस्याएं क्यों दूर नहीं हो रही हैं? और ये समस्याएं कैसे दूर होंगी? उनको यह बताने की भी सबसे बड़ी जरूरत है कि उनकी बुनियादी समस्याएं दूर करने और डॉक्टर, शिक्षक, वकील, जज, इंजीनियर, कलाकार, चित्रकार और कलमकार बनने के लिए सबको आधुनिक शिक्षा, सबको अनिवार्य रोजगार देने की जरूरत है और सबसे ज्यादा “कलम और किताब” उठाने की जरूरत है, कावड़ की नहीं।

उन्हें यह बताने और समझाने कि जरुरत है कि सबसे ज्यादा जानकार, विवेकवान और तर्कशील होने की जरूरत है। कावड़ उठाने से और कावड़ लाने से मन को झूठी शांति तो मिल सकती है, मगर उससे उनकी किसी बुनियादी समस्या और रंज-ओ-गम का समाधान होने वाला नहीं है।

यह लेखक के अपने विचार हैं। संपादक की सहमति अनिवार्य नहीं है।

लेखक- मुनेश त्यागी