भारतवर्ष के विपरीत है हिंदू राष्ट्र की अवधारणा
मुनेश त्यागी
आजकल हमारे देश में हमारी सरकार और भारतीय जनता पार्टी एक बिना रुके अभियान के तहत भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की बात कर रहे हैं। हिंदू राष्ट्र की यह अवधारणा हमारे संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है और इसी के साथ-साथ यह हमारे देश के महान नेताओं और शहीदों के विचारों के खिलाफ है जो भारत को किसी धर्म विशेष में बदलने के खिलाफ थे, बल्कि वे सब भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाना चाहते थे और इसी के लिए उन्होंने सारी जिंदगी संघर्ष किया और आर एस और और हिन्दू महासभा जैसी सांप्रदायिक ताकतों के हिंदू राष्ट्र के अभियान और नफरत भरी विचारधारा का विरोध किया था।
1906 में जब अंग्रेजों ने हिंदू महासभा की स्थापना की, तभी से भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात कही जा रही है। इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए सावरकर ने 1923 में अपने निबंध “हिंदुत्व” में यह स्थापित किया था कि “यहां दो राष्ट्र हैं, एक हिंदू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र, यह दोनों एक साथ नहीं रह सकते।” तभी से हिंदू महासभा और आरएसएस 1925 से भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की, स्थापना करने की बात कर रहे हैं।
मगर क्या यह अवधारणा भारतवर्ष की गंगा जमुनी तहजीब के विचारों के अनुरूप है? क्या भारत के सभी लोग ऐसा सोचते हैं? इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि भारत की अधिकांश पार्टियां, सिर्फ हिंदू महासभा और आर एस एस को छोड़कर, सारी पार्टियां, हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ हैं। वे भारत को भारतवर्ष बनाए रखना चाहती हैं। इस बारे में हमारे राष्ट्रीय नेताओं के, हमारे शहीदों के विचार जानना बहुत जरूरी है।
1939 के आसपास जब एक अमेरिकी पत्रकार ने महात्मा गांधी से पूछा कि आप तो सनातनी हैं और आप तो हिंदू राष्ट्र की स्थापना चाहते हैं, तो इस पर गांधी ने क्या कमाल की बात कही थी, आईये उसको देखते हैं। गांधी जी ने उसे जवाब दिया कि “हमारा देश एक संविधान से चलेगा, जो प्रजातंत्र और गणराज्य होगा, जिसमें धर्म का कोई स्थान नहीं होगा और हमारा मुल्क धर्म के आधार पर नहीं चलेगा। हमारा संविधान धर्म के विचार को राजनीति और राज्य के कार्यों से अलग रखेगा।”
सरदार बल्लभ भाई पटेल ने हिंदू राष्ट्र की सोच को एक पागलपन कहा था। उन्होंने कहा था कि-
“मेरे विचार से भारत ना हिंदू देश बन सकता है, ना हिंदू धर्म भारत सरकार का धर्म बन सकता है। हमें याद रखना चाहिए कि हमारे देश में अल्पसंख्यक भी रहते हैं और यह हमारा कर्तव्य है कि उनकी रक्षा का प्रबंध करें। यह देश सब का है, चाहे किसी का कोई धर्म हो, कोई जाति हो। हम उस रास्ते पर नहीं चल सकते, जिस रास्ते पर पाकिस्तान चल रहा है। हमें यहां याद रखना होगा कि हमारे धर्मनिरपेक्ष उद्देश्य सुरक्षित रहें। यहां हर मुसलमान, हर ईसाई और हर अन्य अल्पसंख्यक वर्ग को यह विश्वास होना चाहिए कि वे सुरक्षित हैं और उन्हें भारतीय नागरिक की हैसियत से बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। अगर हम उन्हें यह एहसास दिलाने में नाकाम रहे तो यह हमारी विरासत और देश का घोर अपमान होगा।”
हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर आइए देखें डॉक्टर भीमराव अंबेडकर क्या कहते हैं।” उनका कहना था कि हिंदू राज को रोको। वे एक भविष्यवक्ता थे। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि “हिंदू राज अगर हकीकत बनता है तो निसंदेह वह इस देश के लिए सबसे बड़ी त्रासदी का कारण होगा। हिंदू चाहे जो भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के लिए खतरा है। इसी वजह से वह जनतंत्र से असंगत बैठता है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर बनने से रोका जाना चाहिए।”
आजादी के दीवाने सुभाष चंद्र बोस भी सांप्रदायिकता और हिंदू राष्ट्र के घोर विरोधी थे। वे मूल रूप से समाजवादी और धर्मनिरपेक्षता वाले हिंदुस्तान के हामी थे। 14 मई 1940, को आनंद बाजार पत्रिका में छपे अपने लेख में सुभाष चंद्र बोस कहते हैं कि “हिंदू महासभा ने सन्यासियों और सन्यासनियों को त्रिशूल लेकर वोट मांगने के लिए भेजा है। हिंदू लोग भगवा रंग और त्रिशूल के सामने शीश नवाते हैं। इसका लाभ उठाते हुए हिंदू महासभा धर्म को राजनीति के साथ मिलाकर प्रदूषण फैला रही है। उनकी बात मत सुनिए। यह बात गलत है कि हिंदू, हिंदू राष्ट्र चाहते हैं क्योंकि वे बहुमत में है। हिंदू और मुसलमान के हित अलग-अलग हैं। यह बात सच्चाई से परे है। प्राकृतिक आपदाएं और महामारियां धर्मों में भेदभाव नहीं करतीं।”
सुभाष चंद्र बोस भारत को एक संप्रभु, जनतांत्रिक, स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, गणतांत्रिक राष्ट्र बनाना चाहते थे। वे जातिवादी और सांप्रदायिक गुलामी के खिलाफ थे। आजादी के दीवाने सुभाष चंद्र बोस, अपने कार्य और व्यवहार में बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष थे। जब वे दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन से जापान गए, तो सुभाष चंद्र बोस के साथ आबिद हसन थे और जब वह जापान से सोवियत यूनियन जा रहे थे तो अंतिम समय में ताईपेई में विमान दुर्घटना के समय हबीबुर्रहमान उनके साथ थे और जब उन्होंने सिंगापुर में अंतरिम सरकार बनाई थी तो उसमें चार हिंदू थे और चार मुसलमान थे। इस प्रकार सुभाष चंद्र बोस पूर्ण रूप से हिंदू राष्ट्र विरोधी थे।
हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर और सांप्रदायिकता को रोकने के लिए और भारत को भारतवर्ष बनाने के लिए हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों ने कमाल का परिचय दिया है। फांसी पर चढ़ने से पहले काकोरी काण्ड के शहीदों ने फांसी लगने से पहले 18 दिसंबर 1927 को पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान ने कहा था कि “हम इस देश वासियों से एक अपील करना चाहते हैं और वह यह है कि वे किसी भी दशा में, भारत में हिंदू मुस्लिम एकता कायम रखें। इसी से हमारा देश आजाद होगा और यही हमारे लिए असली श्रद्धांजलि होगी।”
इस प्रकार हमारे शहीद भारत में हिंदू मुस्लिम एकता का राज चाहते थे। वे भारत में धर्मनिरपेक्ष राज की स्थापना करना चाहते थे। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए शहीदे आजम भगत सिंह ने जून 1928 को कीर्ति में छपे अपने लेख में कहा था कि “सभी दगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो सांप्रदायिक एकता के आधार पर हो सकता है।” दंगों की विभीषिका पर उन्होंने कहा था कि “ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है। इन धर्मों ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे? इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है।”
“हमने देखा है कि अधिकांश लोग इस अंधविश्वास के भाव में बह जाते हैं। कोई विरला ही, हिंदू मुसलमान या सिख होता है जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के ये नामलेवा और अपने नामलेवा धर्म के रोग को कायम करने के लिए डंडे लाठियां और तलवार हाथों में पकड़े रहते हैं और आपस में सर फोड़ कर मर जाते हैं।”
“वे आगे कहते हैं कि लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इन के हथकंडों से बच कर रहना चाहिए और इनकी हत्थे चढ़कर कुछ भी नहीं करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के चाहे वह किसी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव भुलाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का पर्यत्न करो। इन प्रयत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ भी नहीं होगा। इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।”
उन्होंने आगे कहा कि “कलकत्ता में दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और ना ही वे आपस में गुत्थमगुत्था ही हुए। वरन सभी हिंदू और मुसलमान मजदूर बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते बैठते रहे और दंगे रोकने के भी पर्यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग चेतना थी और वह अपने वर्ग हितों को अच्छी तरह से पहचानते थे। वर्ग चेतना का यह सुंदर रास्ता ही है जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है।”
भगतसिंह ने आगे कहा कि “अब भारत के नौजवान जो धर्म आपस में लडना व घृणा करना सिखाते हैं, उन से तंग आकर हाथ धो रहे हैं और उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से, हिंदू, मुसलमान या सिख के रूप में नहीं, बल्कि सभी को अपने से पहले इंसान समझते हैं और फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहरा है और भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए बल्कि तैयार होकर प्रयत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण बने ही नहीं था कि दंगे हों।”
“1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है। इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं हो सकता। ना ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सब को मिलाकर एक जगह काम नहीं करने देती। इसलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें बढ़-चढ़कर फांसी पर चढ़े और हिंदू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।”
“इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। साम्प्रदायिक झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठा हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग अलग ही रहे। हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताएं इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय का जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे।”
उपरोक्त तथ्यों और हमारे महान नेताओं के कथनों के अनुसार, हम पूर्ण रूप से मुतमईन हो कर यह कह सकते हैं कि हमारे देश को जनतंत्र, गणतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और संप्रभुता ही बचा सकते हैं। हिंदू राष्ट्र का विचार भारतवर्ष के विचारों से, उसकी साझी संस्कृति से, उसकी गंगा जमुनी तहजीब से मेल नहीं खाता। यह विचार एकदम से विदेशी है, गैर भारतीय है। इसका भारतीय जनता की एकता और अखंडता से कोई लेना देना नहीं है।
यह विचार भारत की एकता और अखंडता के पूर्ण रूप से खिलाफ है। इस विचार को भारत में फूलने निकलने की इजाजत नहीं दी जा सकती। यह विचार एकदम से भारत विरोधी है, जन विरोधी है, जनता की एकता और अखंडता के विरोधी है। इसका हरचंद, हर परिस्थिति में विरोध किया जाना चाहिए। हम हिंदू राष्ट्र नहीं, भारतवर्ष के पैरोकार हैं, भारतवर्ष के समर्थक हैं। हम भारत को, भारतवर्ष बने रहना ही देखना चाहते हैं। लेखक के अपने विचार हैं।