बिरसा मुंडा की जयंती पर विशेष :
कविता
बिरसा मुंडा के लिए कुछ कविताएँ
हर भगवान चावला
1.
तबीयत
आठ साल का बिरसा देखता-
माँ महुआ के बीज ओखली में कूट रही है
माँ कूटेगी, दादी पीसेगी, तब तेल निकलेगा
और घर में बत्ती जलेगी
माँ सबके सामने घाटो परोसती
सारा नमक बच्चों और उनके बाप को दे देती
और ख़ुद अलोना बेस्वाद घाटो खाती
इसी से लगातार दुबली होती जाती
बिरसा की तबीयत होती कि वह जल्दी से बड़ा हो जाए
कई बोरे नमक और कई टीन मिट्टी का तेल लाकर
अपनी माँ करमी को रानी बना दे।
2.
तू सब की तरह बन
तू सब की तरह क्यों नहीं है रे बिरसा?
कहाँ कंद है, कहाँ मीठे बेर, कहाँ खट्टे आँवले
कहाँ जंगली अरबी, कहाँ ख़रगोश, कहाँ साही –
ये सारी बातें तुझ अकेले को ही क्यों मालूम हैं?
सारे ताल, तलैया, नदियाँ जब सूख जाती हैं
तब तुझे कैसे पता चलता है कि जंगल के पेट में
अब भी कहीं जीवित है पानी का कोई सोता
जंगल अपने सारे भेद अकेले तुझे ही क्यों देता है?
लोग तेरे बाप से कहते हैं – तेरा यह बेटा गज्जब है
कभी उसकी बाँसुरी सुनी है, कैसे अलौकिक सुर हैं
उसकी बंसी को सुन जंगल के हिरण, ख़रगोश
भयानक सुअर तक शान्त होकर दो घड़ी रुक जाते हैं
मुंडा लोग अपने सारे काम भूल उसकी बंसी सुनते हैं
जो सब की तरह होता है, माँ-बाप की गोद में बना रहता है
मुझे बहुत डर लगता है रे बिरसा तू सब की तरह बन।
3.
धरती का आबा
बिरसा जंगल के भीतरी हिस्से में था
जंगल सारे मुंडाओं की माँ है, वह जानता था
आज उसकी जंगल माँ रो रही थी
माँ कराह रही थी – मुझे बचा बिरसा!
दिकू लोगों ने मुझे अपवित्र कर दिया है
मैं फिर से शुद्ध और पवित्र होना चाहती हूँ
जंगल माँ रो रही थी और बिरसा सुन रहा था
बिरसा ज़मीन पर सिर रगड़ रहा था
पेड़ों से बदन रगड़ रहा था, वह चीख़ा –
मैं तुम्हें शुद्ध करूँगा, पवित्र करूँगा माँ!
यह एक दुस्साहसी और असंभव वचन था
जंगल माँ कह रही थी – मेरा रोना कोई नहीं सुनता
बिरसा ने कहा – मैं सुनूँगा
– मेरी तरफ़ कोई नहीं देखता
– मैं देखूँगा, पर तुम हो कहाँ माँ?
– तेरे कलेजे में, तेरे ख़ून में
बिरसा का शरीर छोटा नागपुर की धरती हो गया
उसका ख़ून नदी की धारा हो गया
उसी नदी के किनारे पर उसकी माँ खड़ी थी
जंगल माँ – निरावृत्त मुंडारी युवती सी
– तुम्हें किसने नंगा किया माँ?
– जिन्होंने अपवित्र किया था
– मैं तुम्हारी लाज ढक दूँगा
– ढक दे, पर सोच ले, बहुत कष्ट होगा
– क्यों?
– भगवान हुए बिना यह संभव नहीं
– तो मैं भगवान बनूँगा
– वे तुम्हें ज़िंदा नहीं रहने देंगे
– किसी भगवान को ज़िंदा नहीं रहने दिया जाता
बिरसा चिल्लाया – मैं सबको सुख दूँगा
मैं भगवान बनूँगा, बिरसा भगवान!
मैं धरती का आबा बनूँगा
मुझमें चुटिया और नागु का रक्त है
वज्रपात हुआ, बिजली से आकाश झुलस गया
कहीं हाथी ने चिंघाड़ मारी, बाघ गरजा
बिरसा ने आकाश की ओर मुँह उठाया
वर्षा के जल से मुँह को भरते हुए कहा –
सब मेरा है, यह सारा जंगल मेरा है
मैं धरती का आबा हूँ।
4.
भगवान की माँ
चार दिन से आँधी चल रही थी
आकाश ग़ुस्साए हाथी की तरह
सूँड से पानी बरसाए जा रहा था
बिजली ज़ोरों से कड़क रही थी
हवा के चाबुक से साल, महुआ
केंदू के वृक्षों में हाहाकार मचा था
और बिरसा की माँ सिर पीटती
ज़ोर से रोती कह रही थी –
सबकी आँखें मेरे बिरसा पर क्यों गड़ी हैं?
बिरसा के जन्म के समय क्यों तीन तारे दिखाई दिए?
क्यों सबने कहा – तेरे घर में आबा ने जन्म लिया है?
मुझे धरती का आबा नहीं, मेरा बेटा चाहिए
मैं अपने बेटे को कलेजे में रखना चाहती हूँ
तभी उसके दरवाज़े के सामने नगाड़ा बजने लगा
नगाड़े की आवाज़ इतनी भीषण और गंभीर
कि दिल के साथ उसका ख़ून तक काँप गया
दरवाज़ा खुलने पर करमी ने देखा –
बिजली के नीले प्रकाश में काली चमड़ियों पर
वर्षा का जल उन्हें धोकर बह रहा है
सब तरफ़ एक ही आवाज़ गूँज रही थी –
धरती के आबा को ध्यान से देखो
आकाश की ओर दोनों हाथ उठाये बिरसा आ रहा था
उसकी आँखों और मुँह पर वर्षा का जल था
करमी के मुख से सिसकी की तरह निकला – बिरसा!
– बिरसा मत कहो मुझे माँ, मैं भगवान हूँ
इन लोगों ने भगवान चाहा था, एक ऐसा भगवान
जो भूत प्रेत और अभिशाप का डर न दिखाये
जो अधिकारों के लिए सचेत करे, जो कहे –
ज़रूरत हो तो मर जाओ, मरने के लिए तैयार रहो
मैं इन सबका मनवांछित भगवान होकर आया हूँ
मैं इनके लिए जंगल, पहाड़, धरती सब जीत कर लाऊँगा
डगमगाती करमी आगे बढ़ी – आ मेरे कलेजे से लग जा!
बिरसा ने माँ की छाती पर सिर रखा और कहा –
मैं भगवान हूँ माँ! इस धरती का आबा हूँ
अब तेरी गोद मुझे सँभाल नहीं पाएगी, मैं उसमें समा न सकूँगा
नगाड़ों की डुमडुम के बीच करमी का आर्त्तनाद डूब गया।
5.
भगवान की माँ -2
बिरसा अपने अंतर में जंगल-माँ का रोना सुन रहा था
ख़ून की नदी के तट पर उसने माँ को देखा था –
निर्वसना, नंगी युवती-सी कृष्णवर्णा माँ को
जो कह रही थी – मैं निर्वसना नहीं रहूँगी
माँ कह रही थी – मेरी संतानें बेघर हो गई हैं
बिरसा हर रात जंगल-माँ का विलाप सुनता
और हर रात बेचैन, अस्थिर हो छटपटाने लगता
एक रात करमी ने कहा – तू धरती का आबा हो गया
फिर भी तेरी छटपटाहट जाती क्यों नहीं?
सारी रात चक्कर लगाता रहता है पिंजरे के बाघ की तरह
क्या सोच रहा है मैं रात को सोती नहीं?
जिस दिन से तू धरती का आबा बना, मैं सोई कहाँ?
तू क्यों भगवान हुआ बिरसा, क्यों मेरे घर पर तीन तारे दिखे?
इतना बड़ा क्यों हुआ कि मेरी गोद छोटी पड़ गई?
सब सो रहे हैं अपने भगवान पर भरोसा रखते हुए
मेरी आँखों में नींद नहीं है, भगवान की माँ हूँ न!
किसी मुंडा का लड़का लकड़ी लाने गया था
जिस राह से लड़के को लौटना था, उसी राह को देखती
उसकी माँ नदी किनारे बैठे-बैठे, रोते-रोते पत्थर हो गई थी
जानती हूँ किसी दिन मैं भी पत्थर हो जाऊँगी
बिरसा माँ के पास आया, माँ के सीने पर सिर रखा
और कहा – मैं तेरे पास हूँ, तू सो जा माँ
माँ लेट गई, बिरसा उसके सिर पर हाथ फिराता रहा
करमी ने अचानक करवट बदली और कहा –
तू मेरी फ़िक्र न कर, तुझे तो अब सब की फ़िक्र करनी है
मुझे पता है कि मैं भगवान की माँ हूँ।
6.
भगवान होने की क़ीमत
बिरसा अब भगवान था
उसके सामने लाखों बरसों का अंधकार था
उसे मुंडा लोगों को इस अंधकार को पार करवा
एक ऐसे आधुनिक युग में लाना था
जहाँ पहुँच जाने के बाद भी बची रहे
उनकी आदिम सरलता, न्यायबोध और साम्य की नीति
बिरसा को मालूम था उसने असाध्य गंतव्य चुना है
वह जैसे नदी की धारा को उल्टा बहाना चाहता था
वह मुंडाओं की छाती से कर्मकाण्ड, रीति-नीति
तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, रक्तोत्सव का बोझ हटाना चाहता था
वह मुंडाओं के लिए आदिम ग्राम-व्यवस्था चाहता था
वह मुंडाओं को क्रांति पथ पर अग्रसर करना चाहता था
भगवान बनने की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है
वह जानता है उसे तेल हल्दी से नहलाया नहीं जायेगा
किसी लड़की का बाप उसे गोद में नहीं बैठायेगा
उस पर आम्र-पल्लव से जल नहीं छिड़का जायेगा
जल, अग्नि, धान, दूध, तलवार, तीर और धनुक –
सातों चीज़ें सामने होंगी, वह कुछ स्वीकार नहीं करेगा
भगवान को अब अँधेरे में मीलों पैदल चलना होगा
मनुष्य बिरसा को जो-जो भी अच्छा लगता था
वह सब उसे अब भुला देना होगा, भगवान है न!
उलगुलान*
भगवान ने कहा –
अब तुम लड़ाई करने चले हो
कौन सी राह पकड़ोगे?
– उलगुलान, उलगुलान!
– अब सारे बीरसाइतों** के घर गढ़ बनेंगे
वह डोमरा पहाड़ देखते हो तुम?
उस पर चढ़ते हुए बाघ से डरकर
भागते हिरण के पाँव फिसल जाते हैं
लेकिन उस पर चढ़ते हुए मुंडाओं के पाँव नहीं फिसलते
मालूम यह पहाड़ कैसे बना है?
– सेंगेल दा, सेंगेल दा!
– हाँ, सेंगेल दा यानी अग्निवर्षा
आग की वर्षा हरहराकर उतरी थी
यंत्रणा से धरती का शरीर काँप उठा था
उसी कंपन से ये पहाड़ बने
अब तुम डोमरा पहाड़ की गुफाओं में जाओगे
– उलगुलान, उलगुलान!
– अब तुम पहाड़ के हृदय में घर बनाओगे
ज़रूरत हुई तो उस घर से भागोगे भी
क्यों, बनाओगे वहाँ अपना घर?
– उलगुलान, उलगुलान!
– मैं सारे मुंडा क्षेत्र में घूमकर डोम्बारी में मिलूँगा
– उलगुलान! उलगुलान!! उलगुलान!!!
– देखो, रात हमारे शरीर की तरह काली है
जंगल में बतास बह रही है, जंगल जाग उठे हैं
ज़रा सुनो, पत्ते कैसे सरसरा रहे हैं
तारे तुम्हारा गीत सुनने के लिए नीचे उतर आए हैं
ज़रा गाओ तो, वही बोलोपे बेलोपे…
– बोलोपे बेलोपे हेगा मिसी होन् को***
काली रात, काले पत्थर, काले शरीर
काले-काले हाथ हाथों में पकड़ कर
बिरसा को घेरकर गाने लगे – बोलोपे, बेलोपे…
गान मंत्र की तरह छाती की गहराई से निकला
तारे धीरे-धीरे आकाश से खिसकने लगे
जंगल के काले शरीर पर कुहासा छा गया।
भगवान का मरण नहीं होता
कारागार की कोठरी में
बिरसा चक्कर काटता रहता
उसके हाथों-पैरों में बँधी भारी ज़ंजीरें बजतीं
उसकी देह से ख़ून रिसता, पर वह चलता
चौदह क़दम की उस कोठरी में बिरसा की पदचाप को
कारागार में बंद बीरसाइत कान लगाकर सुनते
ज़ंजीरों की आवाज़ उन्हें आश्वास्त करती –
वे चिल्लाते- ज़िंदा है, हमारा भगवान ज़िंदा है
बिरसा के चारों ओर पथरीली दीवारें थीं
वह किसे देखता, किससे बात करता?
एक दिन आँधी के ज़ोर से एक गौरैया
सींखचों से उसकी कोठरी में आ गिरी
बिरसा ने उसे उठाया, सहलाया
उसने गौरैया से पूछा – क्या मैं भगवान हूँ?
उलगुलान में सैकड़ों मुंडा मारे गए
कितने ही कारागारों में क़ैद हैं
सब बीरसाइत उजाड़ दिए गए
इस लड़ाई का अंजाम क्या हुआ?
क्या मैं जंगल-माँ को पवित्र कर पाया?
क्या मैं मुंडाओं को अधिकार दिला पाया?
इस लड़ाई ने सत्ता को और क्रूर बना दिया
उसने लंबी सांस ली – तू कैसा भगवान है रे बिरसा?
गौरैया उसे टुकुर टुकुर देखती रही
बिरसा ने कहा – मैं भगवान हूँ
मैंने हमेशा से नतशिर रहते आए
मुंडाओं को लड़ना सिखाया है
मैंने उनमें इन्सान होने का गर्व भरा है
तभी तो बंदूकों के सामने वे डटे रहे
उनकी काली चमड़ी लाल ख़ून से भर गई
यह ख़ून बेकार थोड़े ही जाएगा!
मुझे लेकर कितने ही लोकगीत बन गए
मेरा नाम लेकर मुंडा हँसते-हँसते ज़ुल्म सहते हैं
जानता हूँ कि अब मैं ज़िंदा नहीं रहूँगा
मुझे कारागार में ही मार दिया जाएगा
पर क्या कभी भगवान का मरण होता है?
क्या उलगुलान का कभी अंत होता है?
बिरसा ने बंद आँखें खोलीं – डरो मत प्यारी गौरैया!
पर गौरैया तो वहाँ से कब की जा चुकी थी
बिरसा हँसा – वह यहाँ क्यों रहे मेरे पास?
इस कोठरी में धूप की किरण तक नहीं आती
फिर एक दिन बिरसा निर्जीव हो गया
उसके हाथों-पैरों की ज़ंजीरें खोल दी गईं
उसके मुँह का ख़ून पोंछ दिया गया
ज़ंजीरों में बँधे काले, लंगोटी वाले क़ैदी
भगवान की परिक्रमा करके चले गए
किसी ने नहीं कहा – हाँ, यही बिरसा भगवान है
‘शिनाख़्त करो’- अधिकारी बार-बार चिल्लाता रहा
एक आदमी रुका, उसके कपाल पर घाव था
थोड़ी देर स्थिर खड़े रहने के बाद वह झूलने लगा
उसके भीतर से गाना फूटा- रुदन की तरह
पता नहीं, वह गाना था या मंत्रोच्चार –
“हे ओते दिसूम सिरजाओ
नि’ आलिया आनासि
आलम आनदूलिया
आमा’ रेगे भरोसा
बिश्वास मेना।**
गोबर के कंडों से भगवान की चिता जली और बुझ गई
अँधेरे से एक आदमी निकला, उलगुलान का साथी
उसने हरमू नदी से पानी लेकर चिता पर छिड़का
चिता फुफकारी, थोड़ी राख आसमान में उड़ गई
साथी ने मुट्ठी भर राख अपने आँचल में बाँध ली
उसने कहा – मैं इस राख को जंगल में उड़ा दूँगा
जंगल जान जाएगा कि बिरसा उसे भूला नहीं
राख जंगल की धरती पर गिरेगी, धरती पर पेड़ उगेंगे
भगवान का मरण नहीं होता और उलगुलान का अंत नहीं
भगवान लौटेंगे, जंगल के लिए, जंगल के लोगों के लिए।
मैं आऊँगा
मैं पानी बनकर लौटा
तो बाढ़ की तरह आऊँगा
तुम लोग डरोगे
रेत बनकर लौटा
तो आँधी की तरह आऊँगा
तुम लोग डरोगे
धूप बनकर लौटा
तो जलते सूरज की तरह आऊँगा
तुम लोग डरोगे
छाया बनकर लौटा
तो अँधेरे की तरह आऊँगा
तुम लोग डरोगे
मैं बिजली बनकर गिरा
तो तुम लोग डरोगे
मैं बाघ बनकर लौटा
तो तुम लोग डरोगे
मैं तुम्हें डराने के लिए थोड़े ही लौटूँगा
मैं लौटूँगा मानुस होकर ही
मानुस होकर ही नई दुनिया गढ़ी जाती है
मैं बाँभन बनकर आया
या गोसाईं बनकर आया
तो तुम मुझे पहचानोगे नहीं
मैं लौटूँगा मुंडा बनकर ही
किसी काले मानुस के घर जन्म लूँगा
उस दिन आसमान लाल हो जायेगा
पलाश खिले जंगल में जैसे आग लगी हो
मैं आऊँगा दिकुओं*** से जंगल को छुड़ाने
यह जंगल मेरा है, मैं आऊँगा।

* बिरसा मुंडा द्वारा संचालित आंदोलन
** बिरसा मुंडा के अनुयायी
* ओ भाई, ओ बहनों, ओ बच्चो, भागो, जान बचाओ
** हे पृथ्वी के स्रष्टा, हमारी प्रार्थना व्यर्थ मत करो। तुम पर हमारा पूर्ण विश्वास है
*** आदिवासियों का शोषण करने वाले ग़ैर आदिवासी (बीरसा मुंडा पर लिखी इन कविताओं की रचना महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ को पढ़ने के दौरान तब-तब हुई, जब-जब मन बहुत विचलित हुआ। सारी आधार-सामग्री इसी उपन्यास की देन है। मौलिकता का कोई दावा नहीं है, इन कविताओं को पाठक इस उपन्यास के कुछ मार्मिक प्रसंगों का पुनर्सृजन कह सकते हैं।)
