ताकि खुशहाल रहे बचपन

आलेख

ताकि खुशहाल रहे बचपन

दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’

‘कुछ काम हमें कभी नहीं करना चाहिए, जैसे बच्चों को खिलौना बन्दूक देना…’ यह विचार अचानक ही मेरे मन में कौंध गया था।

वाकया कुछ ऐसा था कि मैं लखनऊ से अपने गृह जनपद की बस पर सवार हुआ। सामने की सीट खाली थी और उस पर एक ठोंगा पड़ा था। कोई रहा होगा, जिसने मूंगफली खाकर ठोंगा वहीं छोड़ दिया था। मैंने सीट पर बैठते हुए उसे हाथ में ले लिया। तभी उस पर छपी एक हैडिंग पर नज़र पड़ी। लिखा था-“ताकि न लगे मारधाड़ का चस्का।”

वह ठोंगा किसी पुराने अख़बार से बना था और उसमें पूर्वोत्तर के मणिपुर राज्य के एक क्षेत्र से सम्बन्धित खबर थी। दरअसल वहाँ सात-आठ गांव के स्कूली बच्चों के बीच अनबन, मारकुटाई, धौंसबाजी, देख लेने की धमकी का महौल गर्म था। बच्चों के बीच लड़ाई-झगड़ा और मनमुटाव आम बात है। बल्कि यह सहज शैक्षिक समाजीकरण की प्रक्रिया का ही एक आयाम है। मगर यहाँ की लगातार बढती तनातनी एक खतरनाक अंजाम का आगाज लग रही थी।

इस बात को लेकर यहाँ आस-पास के गांव के समझदार लोगों ने बैठक की, जिसमें बच्चों के बिगड़ते आपसी सौहार्द पर चर्चा शुरू हुई। बातचीत के बीच चौधरीनुमा एक व्यक्ति ने कहा-“आप बच्चों को खेलने के लिए टैंक, कार्बाइन, पिस्तौल, मशीनगन देने लगे हैं और चाहते हैं कि वे शांति के अग्रदूत बनें, यह नामुमकिन है। हिंसक खिलौने देकर आप खुद उनको मारने-मरने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। इससे बच्चे हिंसा, विध्वंश, ऐडबाजी, नफरत, विद्वेष ही सीख सकते हैं। कम से कम बच्चों को मासूमियत, सम्वेदनशीलता, कोमलता और सपनीली कल्पना इससे मिलने की बात तो सोची ही नहीं जा सकती है।”

बहस-मुबाहिसे के क्रम में यह सवाल भी सामने आया की बच्चों को खिलौना बंदूक से विमुख करके क्या बाल आक्रोश को खत्म किया जा सकता है? इससे उनमें अहिंसा का स्थायी भाव पैदा हो जायेगा? इसका सीधा जवाब उसी व्यक्ति ने दिया कि इससे तत्काल कुछ नहीं होने वाला, यह सिर्फ बिगड़ैल बचपन को साधने की एक पहल होगी। ऐसी तमाम फल के बाद ही हम बच्चों को खुशहाली की दिशा में मोड़ने का सपना देख सकते हैं।

गांव वालों को उसकी बात जंच गयी और उन लोगों ने अपने नौनिहालों को हिंसक प्रवृत्तियो से बचाने की पहल के तहत खिलौना बन्दूकों को आग के हवाले कर दिया।

जब मैंने यह खबर पढ़ी, तो गुरुग्राम के ‘रेयान इंटरनेशनल स्कूल’ के छात्र प्रद्युम्न की हत्या का मामला सुर्ख़ियों में था। हत्यारा स्कूल का एक सीनीयर छात्र था। लखनऊ के ‘ब्राइटलैंड कालेज’ का छह का ऋतिक भी कक्षा सात की छात्रा की दरिंदगी का शिकार हो चुका था। इन दोनों घटनाओं धमक के बीच दिल्ली के पश्चिम विहार कालोनी के ‘गवर्नमेंट बॉयज सेकेंडरी स्कूल’ की घटना भी स्मृति में जिन्दा हो उठी थी, जिसमें कक्षा आठ के दो छात्रों में सीट पर बैठने की कहा-सुनी हत्या तक जा पहुंची थी। निश्चित रूप से यह बच्चे या किशोर आक्रोश और बेचैनी से धीरे ऐसे उद्दण्ड छात्र थे, जिनके अन्दर अहिंसा के मूल्यों का रोपण नहीं हुआ था, लिहाजा वे अपने गुस्से को काबू में नहीं रख सके और अनर्थकरी घटनाएँ घट गईं। इस प्रकार की नकारात्मकता के बरअक्स मणिपुर के उस ग्रामीण क्षेत्र की यह खबर एक उम्मीद की रोशनी दिखाती है।

बच्चों के भटकाव के कई सामाजिक कारण भी हैं। आज की तारीख में मध्य और निम्न मध्य वर्ग के पारिवारिक महौल में बड़ा बदलाव आया है। परिवार एकल हो चुके हैं। शायद ही किसी परिवार में बड़े-बुजुर्ग हों। परिवार के मुखिया दोनों हाथों से भौतिक सुविधाएँ बटोरने में इस कदर व्यस्त रहते हैं कि उनके पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है। रहा निम्नवर्ग तो वह जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों की जद्दोजहद में व्यस्त है। कुल मिलाकर बचपन एक सांस्कृतिक उजाड़ में पहुंच चुका है। नौनिहाल को परिवार से मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा-व्यवहार प्रतिमान, संस्कार, जीवन-मूल्य, चरित्र निर्माण की जिम्मेदारी भी विद्यालयों पर आ गई है।

वास्तव में यह तेजी से बिगड़ते समाज के खतरनाक स्तर तक पहुंचने का संकेत है। विद्यालय की स्थिति यह है कि यहाँ भारी-भरकम बोझिल पाठ्यक्रम है, जो बच्चों को तो तनावग्रस्त बनता ही है, अध्यापकों के लिए भी कम मुसीबत की जड़ नहीं है। खासकर इसलिए कि उनके पास ढेरों गैर शैक्षणिक कार्यों का बोझ होता है। इसे पूरा करने के क्रम में शिक्षक की सहज प्रेरक छवि, छात्र-अध्यापक के परस्पर संवाद, छात्रों की मनो-भावात्मक समस्याओं से जुड़कर उसके निदान और उपचार के प्रयत्न जैसे शिक्षण के इतर विन्दु नेपथ्य में चले गये हैं।

परिणामत: वर्तमान शिक्षातंत्र में शिक्षक वेतनभोगी कर्मचारी और छात्र तोतारटंत समवेदनशून्य शिक्षा का उपभोक्ता बन गया है। बच्चों के मौलिक गुणों नकारकर उसे स्टीरियो टाइप्ड तरीके से जबरदस्ती शिक्षित किया जा रहा है। इससे बच्चों में विसंगति पैदा हो रही है, बच्चों में आक्रोश और हिंसा भी इसी का प्रतिपाद्य है।

परिवार में माता-पिता और कक्षा में अध्यापक से पर्याप्त अनौपचारिक संवाद का अभाव बच्चे को टीवी., मोबाइल, लैपटॉप और इन्टरनेट की दिशा में ले जाता है। यहाँ ज्ञान का खजाना है तो फैंटेसी का भटकने वाला रास्ता भी ! बच्चों का मन चंचल होता है। विवेक का अभाव एक क्लिक में उनको चमत्कार, हिंसा और सेक्स की मायावी दुनिया की अँधेरी सुरंग में धकेल सकती है। यहाँ विचरण करने वाला बच्चा अनुशासन, मर्यादा और आत्मसंयम की शिक्षा से महरूम हो जाता है। दिल्ली की ख्यात मनोचिकित्सक अरुणा ब्रूटा ने एक साक्षात्कार में बिगडैल बचपन के प्रबल कारक के तौर पर द्रश्य-श्रव्य माध्यम को इंगित किया था।

मणिपुर के गांववालों की पहल इस बात का उदघोष है कि हम अपने बच्चों के लिए फिक्रमंद हैं। हम उनकी सम्वेदना, कल्पनाशीलता और कलात्मकता को मारने नहीं देंगे। इसमें एक संदेश भी छिपा है कि अपने बच्चों को लेकर जैसी जागरूकता हमारे बीच है, वही आप में भी होनी चाहिये। जब परिवार, गांव, समाज सब बच्चों की भावात्मक संरक्षा की दिशा में सचेत होने लगेंगे तो दुनिया की कोई ताकत उन्हें भटकाव की दिशा में नहीं ले जा सकेगी और बचपन खुशहाल रहेगा |

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