सेंस, कॉमनसेंस, डिफेंस, डिफरेंस, रेफरेंस एंड प्रेफरेंस

 

प्रदीप मिश्र

असंतु्ष्ट कुमार और उनके जैसे ही संगी-साथी कुछ भी करतब करते रहें। आत्ममुग्ध बाबू और उम्मीद प्रसाद अप्रभावित रहते हैं। वह चिकने घड़े हो गए हैं। एक दशक में बहुत बड़े हो गए हैं। सब मनुष्य दो का सहारा लेते हैं, ये तो चार पैरों पर खड़े हो गए हैं। आत्ममुग्ध तो आश्चर्यजनक प्रतिभा के स्वामी हैं। सुना ही है कि 23 साल से उन्होंने एक भी छुट्टी नहीं ली है। हालांकि यह पता लगाना अभी बाकी है कि अगर वह कहां पढ़े-लिखे हैं। उनके सहपाठी कहां-कहां हैं। अवकाश लेते तो आवेदन किसको देते। अगर प्रार्थनापत्र पर गौर नहीं किया जाता तो क्या करते। छुट्टी लेने पर उन्हें कुर्सी पर कब्जे का खतरा तो नहीं था। सवालों से बचने की छूट और छुट्टी दोनों लोगे। एक साथ दो नावों की सवारी। तीसरी की तैयारी है। तो मिस्टर इंडिया,ये अच्छी बात नहीं है। वैसे भी छुट्टी वह लेता है, जो नौकरी करता है। सेवा के लिए इसकी आवश्यकता नहीं है। उलटबांसी करने वालों के लिए क्या कहा जाए। वे कहते हैं कि परिवार होता तो बेरोजगारी का वार जानते। महंगाई का आकार-प्रकार जानते। हर वक्त और हर बात में अपनी नहीं तानते। घर होता तो समय बिताते। कुछ दूसरों की सुनते, कुछ अपनी बताते।

 

‘सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां…जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां…’ को सबसे ज्यादा आत्मसात आत्ममुग्ध बाबू ने ही किया है। कभी-कभी तो ऐसा हुआ जैसे ‘थोड़ी देर को आते हो…चले जाते हो…’ कभी इस डगर-कभी उस डगर करते-करते उनका कारवां बन गया है। बागबां बनने में कामयाबी की कसर है। इसके लिए बढ़ाना पड़ेगा थोड़ा असर है। इस बीच कुछ-कुछ हो गया है कि दिल में उतरते तो हैं बस नहीं पा रहे हैं। गलतफहमी इतनी कि खुद को ही सब जगह पा रहे हैं। नायाब तोहफा नहीं दे पाए तो नाम से ही काम चला रहे हैं। फिर भी सेल्फ डिफेंस और कांफिडेंस काबिल-ए-तारीफ है कि पहले जिनपिंग को झूला झुलाया, अब सभी को झुला रहे हैं। पार्टी विद डिफरेंस तेज गति से रेफरेंस की ओर बढ़ रही है। जब भी दलीय राजनीति का इतिहास लिखा जाएगा, तीव्र गति से उत्थान और समान रफ्तार से राजनीतिक गिरावट के लिए उल्लेख अवश्य किया जाएगा। भविष्य में इस काल को सजावट, दिखावट, बनावट और मिलावट के लिए याद करेंगे। बरसों बरस नहीं भूल पाएंगे कि चरमोत्कर्ष और फिर फर्श पर कैसे पहुंचा जा सकता है। इस पर शोध प्रबंध लिखे जाएंगे। तमाम लोग इसी पर विद्या वाचस्पति यानी डॉक्टरेट पाएंगे। डिले हो सकता है पर डिलीवरी तय है। हिंदी में शायद इसी को ‘भगवान के घर देर है अंधेर नहीं’कहते हैं।

कोई बात नहीं। आजकल ईडी का हर ओर शोर है। चंदा चोर का जोर है। इससे फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि आत्ममुग्ध ने समझा दिया है कि उन्होंने चिंदी चोरी मतलब छोटी चोरी नहीं की है। बड़े खजाने के लिए बरजोरी की है। जरूरत के हिसाब से अपने पास पर्याप्त फंड है। इसका घमंड है। क्या काजी के बगैर राजी होकर लेन-देन पर भी कोई दंड है। भूल-चूक लेना-देना आगे भी जारी रहेगा। इसे सबको न बताने के लिए जगह-जगह सीनाजोरी करेंगे।

वैसे तो कोई है ही नहीं, फिर भी रोकने-टोकने वाले से किसी भी कीमत पर नहीं डरेंगे। कहीं-कहीं सीडी की भी बात कही जा रही है। सी यानी करप्शन और डी अर्थात डेवलपमेंट एक सिक्के के दो पहलू हैं। जैसे दो जिस्म एक जान होता है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं हैं। सी का मतलब कारपोरेट भी होता है। इसी तरह डी से डेफिनेशन (परिभाषा) होता है। चूंकि हम ‘वन टू का फोर-फोर टू का वन…’ बनाने और करने की कला में निष्णात हैं। इसलिए हमें यह करने का हक है। ये हमारा कार्यकौशल है। देश में इस स्किल की परम आवश्यकता है। आने वाले दिनों में नवजात बच्चों में इस गुण का विकास करने के लिए वैक्सीन लगाने का प्रबंध किया जाएगा। यदि संभव हुआ तो महाभारत काल के समय अभिमन्यु के गर्भ में चक्रव्यूह जानने-समझने की कला का प्रादुर्भाव किया जाएगा। विकसित भारत की परिकल्पना का यह अहम अध्याय है।

अभी हाल में ही मैंने अपनी आत्मिक शक्ति के बल पर प्राप्त नवीनतम ज्ञान को बिल गेट्स के माध्यम से संपूर्ण विश्व को बताया है। जिसे आजकल एआई कहा जा रहा है, वह दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र में पहले से ही है। भारत में बच्चा पैदा होते ही बोलता है आई और एआई यानी मां। आत्ममुग्ध को इसके अलावा सीडी से पहले आने वाली एबी भी पता नहीं है। कहते हैं कि कुछ पुराने लोगों की सीडी (क्रिमिनल रिकॉर्ड) तो हमेशा रखनी पड़ती है। पता नहीं, वे कब मुंह खोलें और हमें बंद करने के लिए उसके बारे में उन्हें ही बताना पड़े। देखिए, सीडी को लेकर एक बार फिर आप गलत साबित हो गए। पता नहीं, क्या-क्या सोचते रहते हो।

उधर, उम्मीद प्रसाद भी किलोल (बकलोल समझना वर्जित है) कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि इस समय देश वास्तव में ईडी के ही भरोसे है। इन्फोर्समेंट (प्रवर्तन में सुविधानुसार निदेशालय जोड़ लें), एक्सटॉर्शन (हिंदी में इसके लिए फिलहाल उपयुक्त शब्द नहीं है। उच्चस्तरीय कमेटी गठित कर दी गई है, जो अगले चुनाव से पहले अपनी रिपोर्ट अनिवार्य तौर पर प्रस्तुत कर देगी।), इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया (कमीशन महत्वपूर्ण है), ईवीएम (एवरी वोट फॉर ओनली मोर एंड मोर…), इमरजेंसी (आपातकाल को आजकल अमृतकाल की संज्ञा दी जा चुकी है। सर्वनाम भी बदल गया है।), इकनॉमी, एजुकेशन, इंप्लायमेंट (रोजगार निर्माण ही कहिए। इसे बेरोजगारी से जोड़ना नैतिक और विधिक अपराध की श्रेणी में आता है।)
इन सभी पर एक्साइटमेंट (उत्सुकता) और इगरनेस (जानने की बेचैनी) को महसूस करिए। फिर आपको जो अनुभूति होगी, उससे अभिभूत होना तय है। यह भी जान लीजिए कि डिफरेंस (मतभेद ही मानिए। मनभेद किसी से हीं नहीं, क्योंकि सबके मन के प्रवेश द्वार की कुंजी अपने पास है।) के बावजूद डिसिप्लिन (अनुशासन) बनाए रखें। डिवोशन और डेडिकेशन से डिक्टेशन लें और डिक्टेटरशिप (हम हिंदी में इसे लोकतंत्र कहते और मानते आए हैं।) को बर्दाश्त करें।
समझने की जरूरत है कि डिवाइन पावर (ईश्वरीय शक्तियों) के आदेश को न मानने से डिस्टरबेंस (अव्यवस्था, असंतुलन, अन्यमयस्कता आदि) होती है। इसलिए डाइरेक्शन (निर्देश और आदेश जो भी उचित समझें) मानें और उपरोक्त सभी बातों के अनुपालन को सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करें और अपने अनन्य प्रेमियों को इसी तरह की प्रेरणा देने में परहेज न करें।

इसी परिप्रेक्ष्य में असंतुष्ट कुमार को अंतर्यामी लोग पहले से ही सीख देने लगे हैं। कभी भी हार मत मानो। क्या पता आपकी अगली कोशिश ही आपको कामयाबी की ओर ले जाए। उधर, आत्मुग्ध कुमार के लिए किसी ने लिख दिया कि नीयत कितनी भी अच्छी हो। दुनिया आपको दिखावे से जानती है। बात पूरी हो गई थी लेकिन किसी ने इसके आगे लिख दिया कि दिखावा कितना भी अच्छा हो, भगवान आपको नीयत से जानते हैं।
इन दिनों व्हॉटसएप पर खूब शेयर किया जा रहा है कि मस्तिष्क कचरे का डिब्बा नहीं है, जिसमें क्रोध, अहंकार, मोह, माया और जलन रखें। मस्तिष्क ऐसा खजाना है, जिसमें आप ज्ञान-विज्ञान, प्यार-सम्मान और दया भाव रख सकते हैं। इस पर विचार-प्रचार करते ज्ञान मिला है कि उन लोगों से दूरी बनाए रखें, जो हमेशा आपको महसूस कराने की कोशिश करेंगे कि सब आपकी गलती है।