2024 का मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार सीमा सिंह को
के. पी. सिंह मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट की अध्यक्ष नमिता सिंह और जनवादी लेखक संघ के केंद्रीय संयुक्त महासचिव नलिन रंजन सिंह ने बताया कि वर्ष 2024 का मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार सीमा सिंह को उनके कविता संग्रह ‘कितनी कम जगहें हैं ‘ कि लिए प्रदान किया जाएगा। सीमा सिंह को प्रतिबिम्ब मीडिया की तरफ से पुरस्कार के लिए बहुत- बहुत बधाई।
सुप्रसिद्ध कवि मलखान सिंह सिसौदिया द्वारा 2007 में स्थापित यह पुरस्कार प्रतिवर्ष किसी युवा कवि को दिया जाता है। अब तक यह पुरस्कार चर्चित कवि दिनेश कुशवाह, एकांत श्रीवास्तव, श्रीप्रकाश शुक्ल, शैलेय, अशोक तिवारी, भरत प्रसाद, संजीव कौशल, निशांत, संतोष चतुर्वेदी, रमेश प्रजापति, प्रदीप मिश्र, विशाल श्रीवास्तव, ज्ञान प्रकाश चौबे, बच्चा लाल उन्मेष, शंकरानन्द और अनुज लुगुन को दिया जा चुका है।
विज्ञप्ति में बताया गया है कि सीमा सिंह बेहद चर्चित कवयित्री हैं। उनके कविता संग्रह ‘कितनी कम जगहें हैं ‘ की कविताएं आम जीवन का प्रतिबिम्ब हैं। उनकी कविताओं की रेज बड़ी है।
उनकी कविताओं पर चर्चित कवि मदन कश्यप लिखते हैं- ‘सीमा सिंह की कविताएं हिन्दी की स्त्री कविता को एक अलग पहचान देती हैं। प्रतिरोध उनके यहां सतह पर नहीं है, बल्कि वह स्त्री जीवन के दुख और संघर्ष में अन्तरनिहित विडम्बनाओं और विसंगतियों के उद्घाटन के साथ प्रकट होता है। वे संस्कार से प्राप्त प्रभुत्ववादी विचारधारा का निषेध करते हुए, अपने अनुभवों पर विश्वास करती हैं और प्रकृति तथा स्त्री के अन्तरसंबंधों की पड़ताल के माध्यम से समझ का विस्तार करती हैं। वे पुरुष सत्ता द्वारा प्रदत्त शिक्षा में निहित स्वार्थ को समझती हैं।’
सीमा सिंह को यह पुरस्कार 11 अक्तूबर 2025 को लखनऊ में आयोजित एक समारोह में प्रदान किया जाएगा।
हम यहां सीमा सिंह के पुरस्कृत कविता संग्रह ‘कितनी कम जगहें हैं ‘ की तीन कविताएं दे रहे हैं। यह संग्रह सेतु प्रकाशन से प्रकाशित है।
मंगलसूत्र
वह सिन्धु घाटी सभ्यता के उत्खनन से निकला
कोई प्रागैतिहासिक आभूषण नहीं था
जिसको इतिहासविद और पुरातत्व विभाग के
अधिकारी सुरक्षित रखने का भरसक प्रयास करते
बरसों पड़ी जमी धूल को साफ़ कर चमकाते
म्यूज़ियम में रखने जैसा भी इतिहास नहीं था उसका
कि सजा दिया जाता रौशनी से भरे कमरों में
जिससे पुख़्ता हो इतिहास का कोई पन्ना
इतना भर इतिहास भी तो नहीं था उसके पास
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी नहीं कोई ज़िक्र
जिससे स्थापित हो कोई समानता
वह समान काम के लिए समान वेतन जितना भी
ज़रूरी नहीं था , न ही निर्धारित थे उससे काम के घंटे
बल्कि उनको धारण करने वालियों के हिस्से
कभी आया ही नहीं काम का समान वितरण
और काम के घंटों का तो कोई हिसाब ही नहीं
इधर अचानक प्रधानमंत्री को चिंता हो आयी है
स्त्रियों के मंगलसूत्र की
स्त्रियों की चिंता अब भी दूसरे पायदान पर है !
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पताकाएं
पूस की रातों में शीत ज़्यादा है कि कोहरा
कहा नहीं जा सकता
पर हवाओं में कुछ अलग ही गरमी है
कुत्ते लैम्प पोस्ट के नीचे ठिठुरते हैं
एक पीली रौशनी तारी है अंधेरे में
दिन भर एक ही तरह की आवाज़ें पीछा करती हैं
झंडे इमारतों से निकल सड़कों पर आ गये हैं
पताकाएं लहरा रहीं हैं आकाश में
विचारधारा का कोई मतलब नहीं रहा अब
पॉलिटिक्स भी तय करके क्या होगा भला
एक ही रंग मल दिया गया है शहर के बदन पर
जहां जुलूस हैं, नारे हैं, भीड़ है अनियंत्रित
मैं खोजती हूं शांत दोपहरों का अमलतास
सड़कों पर उन्मुक्त रातें
और खाली मैदानों पर दूर तक हरियाली
अपनी आंखों को छुपा कहां ले जाऊं भला
पागलपन इस कदर हावी है कि अपना ही घर
मुझे विरोधी करारा देता है
जबकि सभी नियमों का पालन करने वाली
एक आम नागरिक से ज़्यादा मेरी हैसियत कुछ नहीं
फिर भी मेरी खोज में लगी है एक वैचारिक सत्ता
बहुत जागी हुई रातों की कहानी है मेरे पास
नींद दु:स्वप्नों से भरी हुई
जो आधी रात टूटती है एक ही खटके से
मेरी कहानी में किसी को दिलचस्पी नहीं
कि वहां नहीं है कोई देवता जिसकी प्रतिष्ठा की जानी है
उस कहानी का कथावाचक मारा जा चुका है
अब आप चाहे तो अपनी धार्मिक पताकाएं फहरा सकते हैं वहां !
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इस हिन्दू होते समय में
उनके ध्यान में नहीं आया है अभी
इस छोटे से गांव का नाम
जहां सुबह वैसी ही होती है हस्बे मामूल
जैसी कि पूरे देश में
सूरज पूरब की खिड़की से झांकता हुआ ही
निकलता है रोज़
चिड़िया बतियाना शुरू कर देती है भोर से ही
लोग सानी पानी के लिए निकल पड़ते
अपनी अपनी दिशाओं में
स्त्रियां आज भी सबसे पहले झाड़ू ही उठाती हैं
और लग जाती हैं सफ़ाई में
मानो पूरी दुनिया को साफ़ करने का ठेका
इनके ही कंधों पर रखा हो
वे झाड़ बुहार के फेंक आती सारा कूड़ा
गांव से लगे घूरे पर
जो दिन ब दिन ऊंचा होता जा रहा
जिस पर नहीं जाता ध्यान किसी का
उसकी बढ़ती ऊंचाई पर पूरे देश के कूड़े को
ढोने का अंतिम भार है
छोटे लड़के खाली नेकर पहने
सड़कों पर यूं ही उछलते फिरते हैं
लड़कियां फ्रॉक पहने बिखरे बालों में
किसी पेड़ के नीचे झुंड बना कुछ करती नज़र
आती हैं
गांव दिन के समाप्त होने के इंतज़ार तक में
उलझा रहता है तरह तरह से
दुआ सलाम देश दुनिया पर बहस
चलती रहती है एक छोटे बस स्टैंड पर जहां
सुबह का अख़बार दोपहर तक पहुंचता
और वे नज़रें बचा पढते हैं कि कहीं देख तो नहीं
लिया किसी ने उनके चेहरे पे उनके गांव का नाम
और मैं सोच रही कि इस हिन्दू होते समय में
आख़िर कब तक बचा पायेंगे वे एक मुसलमान नाम !
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प्रतिबिंब मीडिया में सीमा सिंह की कविताएं पढ़ने का पहली बार अवसर मिला है। वास्तव में उनकी कविताएं समय सापेक्ष हैं और अपने समय के अंतर विरोधों पर सवाल उठाती हैं। उनके पास एकांतरित दृष्टि है और समय की समझ भी है जो उनकी कविता में प्रतिबिंबित होती है। इसलिए सीमा सिंह की कविताएं अपने समय में महत्वपूर्ण हो जाती हैं और उनको अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
प्रकाश कवित्री सीमा सिंह को बधाई और प्रतिबिंब मीडिया को धन्यवाद।