विज्ञान आलोचना का स्वागत करता है : गौहर रजा

‘मिथकों से विज्ञान तक’-पुस्तक पर एक संवाद/प्रगतिशील लेखक संघ चंडीगढ़ का आयोजन 

 

गत 30 अगस्त को प्रगतिशील लेखक संघ चंडीगढ़ के आयोजन में प्रख्यात वैज्ञानिक गौहर रजा ने ‘मिथकों से विज्ञान तक’ पेंगुइन प्रकाशन से प्रकाशित अपनी नवीनतम पुस्तक के विमोचन के अवसर पर मिथकों से विज्ञान तक की यात्रा पर वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने परंपराओं, जनश्रुतिओं, पौराणिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं तथा वैज्ञानिक स्थापनाओं के बीच टकराव को बहुत ही सरल ढंग से प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत किया। प्रश्नकर्ता थे डॉ स्वराजबीर (पूर्व संपादक पंजाबी ट्रिब्यून) और उत्तर दिया गौहर रजा ने,साथ दिया डॉ अरविन्द  (कुलपति पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला) और प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव डॉ सुखदेव सिंह सिरसा ने । उपस्थित श्रोताओं में प्रलेस के पदाधिकारियों के अलावा हरियाणा/पंजाब और चंडीगढ़ के प्रोफेसर/शोध-छात्र/ लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे।

वैज्ञानिक गौहर रजा ने विज्ञान के विकास और संघर्ष पर खुल कर बातचीत की। उनका कहना था कि मिथकों का प्रचलन सभ्यताओं के शुरुआती दौर में हुआ। आदिम काल में जब मानव कबीलाई युग से सामंत काल में प्रवेश करता है तो इन मिथकों का विस्तार और विकास होता है। परंपराओं और जनश्रुतियों के रूप में मिथक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संचरित होते हैं। लिपि के आविष्कार के बाद इन्हें लिपी बद्ध किया गया। धीरे-धीरे इन्हें देवी/देवता या ईश्वर के वचन मान लिया गया । बाद में यही मिथक धार्मिक ग्रंथों में समाहित होते गए। सभ्यताओं के शुरुआती दौर में यही उस समय के तर्क थे जिन्हें वैज्ञानिक सत्य कह कर प्रचारित किया गया। जैसे-जैसे विज्ञान का विकास हुआ तो काल्पनिक अनुभवों के आधार पर स्थापित अवधारणाओं का विज्ञान के साथ टकराव होने लगा। गौहर रजा ने कहा कि विज्ञान अपनी आलोचना तो स्वीकार  करता ही है, अपनी त्रुटि को भी स्वीकार कर लेता है। अपने में संशोधन करके विज्ञान को प्रसन्नता होती है जबकि धर्म मायूस हो जाता है और इसे अपना अपमान समझता है।

लेकिन इसके विपरीत मिथकीय अवधारणाएं स्वयं को अंतिम सत्य मानकर चलती हैं और चाहती हैं कि बाकी सब भी ऐसा ही मानें । विज्ञान अपने सत्य को कभी अंतिम सत्य नहीं मानता। यही दोनों में मुख्य अंतर है। उन्होंने उदाहरण देकर समझाया कि आइंस्टीन ने अपने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत में ब्रह्मांड को स्थिर और अपवर्तनीय माना था। लेकिन जब एडविन हबल ने खगोलीय पर्यवेक्षणों के आधार पर बताया कि ब्रह्मांड विस्तार कर रहा है तो आइंस्टीन ने अपनी त्रुटि को स्वीकार कर लिया और ब्रह्मांड के फैलाव की बात को मान्यता दे दी। सापेक्षता सिद्धांत में स्थिरतांक जोड़ना उसने अपनी सबसे बड़ी ग़लती माना। जबकि धर्मसत्ता अपनी किसी भी स्थापना को नहीं बदलती। पृथ्वी घूमती है या सूर्य इस विषय पर गैलीलियो के यह कहने पर कि सूर्य नहीं, पृथ्वी घूमती है-गैलीलियो को जेल में डाल दिया गया और बाद में घर में नजरबंद कर दिया गया (जहां उनकी मृत्यु हो गई ) । ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि बाईबल में लिखा था कि सौरमंडल का केंद्र धरती है न कि सूर्य अर्थात सूर्य घूमता है, पृथ्वी नहीं ।

लगभग तीन सौ पचास वर्ष बाद चर्च ने स्वीकार किया कि गैलीलियो सही थे। जबकि इससे पूर्व पूरी दुनिया गैलीलियो के सिद्धांत को मान चुकी थी। इसी प्रकार ब्रूनो को अपनी वैज्ञानिक स्थापनाओं के कारण जिंदा जला दिया गया क्योंकि उन्होंने बाईबल को एक नैतिक ग्रंथ तो मान लिया था लेकिन उसे वैज्ञानिक सत्य नहीं माना था। इससे सिद्ध होता है कि विज्ञान को कितनी लंबी और कठिन लड़ाई लड़नी पड़ी। कमाल तो यह कि यह लड़ाई आज़ भी जारी है। गौहर रजा ने सवाल किया कि क्या डार्विन के सिद्धांत को पाठ्यक्रम से हटाना क्या डार्विन के साथ वही व्यवहार करना नहीं है जैसा गैलीलियो या ब्रूनो के साथ किया गया था!! चार्वाक और बुद्ध दर्शन को आज भी नास्तिक दर्शन कहकर नकारने की असफल कोशिश की जाती है।

इक्कीसवीं सदी में भी नरेंद्र दाभोलकर, गोबिंद पानसरे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश जैसे विद्वानों को उनके वैज्ञानिक प्रगतिशील विचारों के कारण मौत के घाट उतार दिया जाता है । आज भी गणेश दूध पीते हैं और सूर्यग्रहण में राहु-केतु सूर्य को ग्रस लेते हैं। भारतीय फिल्मों में आज भी भूत-प्रेत और आत्माओं के अस्तित्व को दिखाया जाता है। इससे बहुत सारे अवैज्ञानिक भ्रम फैलते हैं। कोई कानून इन्हें रोकता नहीं है। इससे पता चलता है कि हमारे समाज पर मिथकीय अवधारणाओं का किस कदर प्रभाव है। अंतरिक्ष में राकेट छोड़े जाने से पूर्व वैज्ञानिकों से पूजा करवाया जाना इसी मानसिकता को दर्शाता है ।

विज्ञान के साथ टकराव को लेकर पूछे गए सवाल पर गौहर रजा ने कहा कि विज्ञान का किसी से कोई टकराव नहीं है। विरोध तो हमेशा दूसरी तरफ से आता है। जो सत्ताएं समाज पर काबिज रही हैं और अगर उन्हें कुछ ऐसा लगता है कि आम लोगों को प्रकृति की सच्चाई पता लगने पर उनकी सत्ता को खतरा पैदा हो सकता है तो  वे तुरंत सच्चाई को छिपाने का प्रयास करती हैं । विज्ञान उसे अपना सबसे बड़ा शत्रु लगता है। यही विज्ञान और धर्म के टकराव का मुख्य कारण है। कबिलाई युग के बाद सामंतशाही में राजा का आदेश ही कानून होता था। कहीं राजा ईश्वर का प्रतिनिधि तो कहीं स्वयं ईश्वर होता था। ऐसे में मिथक और विज्ञान का टकराव होना स्वाभाविक था। उन्होंने अर्थशास्त्री एडम स्मिथ को याद किया जिसने कहा था कि विज्ञान ने मनुष्य को आजाद किया है।उनका कहना था कि मार्क्सवाद वैज्ञानिक कारणों के कारण ही टिक पाया। मार्क्स ने सबसे पहले विज्ञान को ही समझा और उसे दुनिया बदलने के लिए इस्तेमाल किया।

अंत में गौहर रजा का कहना था कि विज्ञान को जन-जन तक ले जाना होगा, इसे लोक कल्याणकारी बनाना होगा, इसके लिए वैज्ञानिकों को भी आगे आना चाहिए। कक्षा और लैब के साथ-साथ समाज के बीच आकर अपनी बात सरल भाषा में रखनी होगी। इसीलिए उन्होंने यह पुस्तक अंग्रेजी की बजाय सरल हिंदी में लिखना ज़रूरी समझा।

इस अवसर पर आसपास के विश्विद्यालयों और महाविद्यालयों से लगभग 80/90 शोध छात्र, प्रोफेसर और प्रलेस/जलेस के सदस्य/ पदाधिकारी तथा प्रसिद्ध लेखक  उपस्थित थे। गोहर रजा साहब स्वयं एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि विख्यात शायर, फिल्मकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। साहित्य और विज्ञान का यह अद्भुत संगम था जो एक ऐतिहासिक यादगारी संवाद कहा जा सकता है। इस अवसर पर आधार प्रकाशन की दो पुस्तकों लाल सिंह दिल-प्रतिनिधि कविताएं (अनुवाद- सत्यपाल सहगल) और कौन जात हो’-शरण कुमार लिंबाले (अनुवाद- रीना त्यागी) का विमोचन भी किया गया। हरियाणा ज्ञान-विज्ञान बुलेटिन(रोहतक )और देस-हरियाणा पत्रिका (कुरुक्षेत्र )के अंक/ 51-52 भी अतिथि विद्वानों को भेंट किये गये।

-जयपाल की रिपोर्ट