एस.पी. सिंह की कविता- धुआँ…

कविता

धुआँ

एस.पी. सिंह

धुआँ…

वह जो हर जन्म का साक्षी है,

हर अंत का मौन संगीत।

जो राख के भीतर भी सांस लेता है,

और दीप की लौ से आसमान तक पहुँच जाता है।

कभी चूल्हे से उठकर रोटियों की महक में घुलता,

कभी श्मशान से उठकर किसी कथा का अंत लिखता।

कभी यह धुआँ माँ के आँचल से लिपटा,

तो कभी विधवा की आँखों में ठहरा हुआ दर्द बन जाता।

यह धुआँ मिट्टी से जन्मता है,

पानी से छनता है,

हवा से बहता है,

और अग्नि से बोलता है—

“मैं ही वह हूँ जो हर रूप में जिया गया,

हर भाषा में जला गया।”

कभी यह देवता की आरती में नाचता,

कभी युद्ध की राख में विलाप करता,

कभी प्रेम की बातों में बिखरता,

कभी नफ़रत के साए में गाढ़ा होता।

धुआँ—न रुकता है, न थमता।

वह बस कहानियाँ कहता है

उन घरों की, जिनमें रोटियाँ सिकती हैं,

और उन दिलों की, जिनमें उम्मीदें जलती हैं।

पक्षी उसे पहचानते हैं आकाश से,

पशु सूँघ लेते हैं जंगल में—

कहीं भोजन बन रहा है या भय।

मनुष्य बस देखता है,

पर समझता नहीं कि यह धुआँ

उसके भीतर का भी प्रतिबिंब है।

धुआँ—वह जो सबकुछ ढँक लेता है,

पर कुछ भी छुपा नहीं पाता।

जो दिखता है, वही उसका सच है,

जो नहीं दिखता, वही उसकी दास्ताँ।

यह धुआँ आत्मा का दर्पण है—

जहाँ जलना भी साधना है,

और उड़ जाना—मोक्ष का रूप।

हर राख के कण में उसका एक छोर रहता है,

जहाँ जीवन और मृत्यु साथ बैठ

एक दूसरे को समझते हैं।

धुआँ…

जो कहीं नहीं टिकता,

पर हर जगह मौजूद रहता है—

जैसे ईश्वर की अनसुनी फुसफुसाहट,

जैसे किसी बूढ़े के मन की अधूरी प्रार्थना,

जैसे किसी कवि की कलम में

अंतिम शब्द का धुआँ।

कवि- एस.पी. सिंह

One thought on “एस.पी. सिंह की कविता- धुआँ…

  1. हार्दिक सप्रेम आभार एवं अभिनंदन
    मेरी इस रचना को अपने प्रतिष्ठित पोर्टल में अमूल्य स्थान देकर सम्मान देने के लिए।

    सादर प्रणाम

    एस पी सिंह

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