एस.पी. सिंह  की ग़ज़लः जिन्दगी का हर ज़ख़्म अब मरहम लगा लगता है

ग़ज़लः

जिन्दगी का हर ज़ख़्म अब मरहम लगा लगता है

एस.पी. सिंह

 

ज़िन्दगी का हर ज़ख़्म अब मरहम लगा लगता है,

दर्द भी तेरा दिया, वो भी दुआ लगता है।

भावार्थ :

यह शेर आत्मस्वीकार का प्रतीक है — जब इन्सान अपने दुखों से भागना छोड़ देता है, तो वही दुख उसे ईश्वर की कृपा लगने लगते हैं। “ज़ख़्म” अब तकलीफ़ नहीं, बल्कि जीवन के अनुभव का सबक बन जाते हैं।

तशरीह :      यह एक सूफ़ियाना दृष्टिकोण है — जहाँ पीड़ा भी रूह की तरक्क़ी का ज़रिया है।

जब से तुझसे शिकवा-ए-तक़दीर करना छोड़ा,

हर सितम अब मेरे हक़ में फ़ैसला लगता है।

भावार्थ :

जब मनुष्य शिकायत करना छोड़ देता है, तो किस्मत के सारे वार भी इंसाफ़ लगने लगते हैं।

तशरीह : यह आत्मसमर्पण और तौहीद का बोध है — “जिसने शिकायत छोड़ी, उसने सुकून पा लिया।”

जिस गली में तेरी यादों के निशां बसते हैं,

वो मकीन मेरा ख़ुदा का मस्जिद-सा लगता है।

भावार्थ :

जहाँ प्रिय की याद बसती है, वही स्थान इबादतगाह बन जाता है।

तशरीह : यह शेर इश्क़ की तासीर पर लिखा गया है — प्रेम, ईश्वर का रूप है; उसका नाम जहाँ है, वही रूहानी पवित्रता का स्थल बन जाता है।

राह-ए-दिल में कोई मंज़िल नहीं बाकी अब तो,

हर क़दम जैसे सफ़र का सिलसिला लगता है।

भावार्थ :

अब मंज़िल का लोभ नहीं रहा, चलना ही इबादत है।

तशरीह : यह फ़लसफ़ा “सफ़र ही मक़सद है” को दर्शाता है — इंसान अब परिणाम से परे होकर साधना में रम गया है।

ज़ख़्म दिल पर हैं मगर शौक़े-वफ़ा बाक़ी है,

तेरी बेरुख़ी भी अब हुस्न-ए-अदा लगता है।

भावार्थ :

दिल टूट गया, मगर प्रेम करने का जज़्बा बाक़ी है।

तशरीह : यह इश्क़ की वह मंज़िल है जहाँ जुदाई भी हुस्न लगती है — प्रेम इतना पवित्र हो जाता है कि पीड़ा भी सुंदर प्रतीत होती है।

रात भर तेरा तसव्वुर ही चराग़़ा करता,

तू नहीं फिर भी तेरा नाम लिखा लगता है।

भावार्थ :

अनुपस्थिति में भी याद की रोशनी जलती रहती है।

तशरीह : यह शेर रूहानी लगाव की गहराई में उतरता है — जहाँ व्यक्ति अनुपस्थित है, पर उसका असर अब भी उजाला कर रहा है।

अब मुझे ख़ुद पे यक़ीं इतना हुआ है बेबाक,

मैं गिरा भी तो तेरी रहमत का सहारा लगता है।

भावार्थ :

अब आत्मविश्वास और ईश्वर-भरोसे का संगम हो चुका है — गिरना भी कृपा लगता है।

तशरीह : यह अंत का शेर, मक़ता, सूफ़ियाना इमान का प्रतीक है। ‘बेबाक’ ने यहाँ अपने तख़ल्लुस से एक आत्मस्वीकार किया है — गिरना हार नहीं, बल्कि रहमत में समर्पण है।

सार-संक्षेप :

यह ग़ज़ल प्रेम, सब्र और रूहानी आत्मानुभूति की यात्रा है। हर शेर एक मंज़िल है — जहाँ दर्द, वफ़ा और तसव्वुर की परछाइयाँ इश्क़ के उजाले से मिलती हैं। इसमें सूफ़ियाना शांति, फ़लसफ़ियाना दृष्टि और शायराना तहज़ीब का संगम है।

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