शिक्षा का अधिकार और भारत का संविधान
डॉ. रामजीलाल
प्रत्येक राष्ट्र की प्रगति शिक्षा की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। विद्यालयों में अच्छे शिक्षक और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, शैक्षणिक कौशल, रचनात्मकता, सामाजिक जागरूकता और भावी नागरिकों के जीवन को बेहतर बनाने, चरित्र निर्माण, आत्मविश्वास और भावनात्मक कल्याण को बढ़ाने, सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों में संतुलन बनाने, आजीवन स्वाध्याय और जिम्मेदार नागरिकों को प्रेरित करने और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारतीय संविधान के निर्माता इस बात से भली-भांति परिचित थे कि शिक्षा किसी भी राष्ट्र की प्रगति का आधार है। इसीलिए उन्होंने भारतीय संविधान में शिक्षा से संबंधित प्रावधानों को शामिल किया।
शिक्षा के अधिकार से वंचित करना भारतीय संविधान का उल्लंघन है:
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. शिक्षा का अधिकार शुरू में संविधान में शामिल नहीं था, हालाँकि मौलिक अधिकारों के अध्याय 3 और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अध्याय 4 के प्रावधानों में शिक्षा से संबंधित प्रावधानों का वर्णन किया गया है. शिक्षा के अधिकार और माता-पिता, अभिभावकों और राज्य के दायित्वों को समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों और संवैधानिक संशोधनों द्वारा स्पष्ट किया गया है
शिक्षा का अधिकार: राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत, भारतीय संविधान
मूलतःभारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के चौथे अध्याय में, केंद्र और राज्य सरकारें 6-14 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करेंगी. इसी क्रम में, अनुच्छेद 46 में यह प्रावधान किया गया था कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षिक हितों के संवर्धन के साथ-साथ, राज्य को उन्हें शोषण और सामाजिक अन्याय सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया गया है. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के प्रावधानों को लागू करना राज्य पर निर्भर है. लागू न होने की स्थिति में, न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती.
शिक्षा का अधिकार और धर्मनिरपेक्ष नीति
भारत एक बहु-धार्मिक और बहुभाषी देश है. बहु-धार्मिक देश में विविधता में राष्ट्रीय एकता और अखंडता का मुख्य आधार धर्मनिरपेक्षता है. यही कारण है कि भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता से संबंधित प्रावधान मौजूद हैं. लेकिन धर्मनिरपेक्षता को वर्ष 1976 में 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया था, लेकिन इससे पहले, धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के लिए संविधान में अनुच्छेद 29 और 30 बहुत महत्वपूर्ण हैं. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 के अनुसार, सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में धर्म, जाति, मूल के आधार पर प्रवेश से इनकार नहीं किया जा सकता है. भारत सरकार के अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के अनुसार, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2(ग) के अंतर्गत मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में अल्पसंख्यकों का प्रतिशत देश की कुल जनसंख्या का लगभग 19.3% है. इनमें मुस्लिम 14.2%, ईसाई 2.3%, सिख 1.7%, बौद्ध 0.7%, जैन 0.4% और पारसी0.006%. हैं. इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक समूहों को अपनी भाषा या धर्म के आधार पर शिक्षण संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार है. लेकिन अनुच्छेद 30 भाग 2 के तहत, राज्य (केंद्र और राज्य सरकारें) धर्म या भाषा के आधार पर संचालित शैक्षणिक संस्थानों को सरकारी वित्तीय सहायता प्रदान करते समय भेदभाव नहीं करेंगी. संविधान के अनुच्छेद 350 के अनुसार, अल्पसंख्यकों को उनकी अपनी भाषा में शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान है. राज्य द्वारा संचालित या सरकारी वित्तीय सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में बच्चों को धार्मिक पूजा-अर्चना में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. शिक्षा का माध्यम राष्ट्रीय महत्व की मान्यता प्राप्त 22 मातृभाषाओं में हो सकता है.
सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितों की सुरक्षा
भारतीय संविधान सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितों की सुरक्षा का प्रावधान करता है. संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 17, 29 और 46 में उनके कल्याण हेतु प्रावधान मौजूद हैं. अनुच्छेद 14 के अनुसार, कानून के प्रत्येक नागरिक समान है और प्रत्येक नागरिक को कानून का समान संरक्षण का अधिकार है, अर्थात भारत में कानून का शासन है. इस संदर्भ में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 अनुसार धर्म, मूलवंश,जाति,लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित किया गया है. इसके अतिरिक्त राज्य आर्थिक व शैक्षिक दृष्टि से कमजोर वर्गों (वंचित वर्गों)के लिए शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान कर सकता है. अनुच्छेद 17 के माध्यम से अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया है. यह सदियों से भारतीय समाज पर एक कलंक था, इसलिए, सभी शैक्षणिक संस्थानों में अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया है और अनुसूचित जातियों के छात्रों के हितों की रक्षा की गई है.
शिक्षा का मौलिक अधिकार और न्यायिक निर्णय
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत, व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है. व्यक्ति के जीवन की गरिमा को बढ़ाने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायिक निर्णय मील के पत्थर की तरह हैं.
इनका विवरण इस प्रकार है:
क. प्रथम, मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य वर्ष 1992
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय में अनुच्छेद 21 में शिक्षा के अधिकार का वर्णन किया गया है. शिक्षा को जीवन की गरिमा और स्वतंत्रता के अधिकार से जोड़कर व्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न अंग माना गया है. किसी भी व्यक्ति को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता.
ख. द्वितीय, कृष्णा बनाम आंध्र प्रदेश वर्ष 1993
कृष्णा बनाम आंध्र प्रदेश वर्ष 1993 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक बच्चे को 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा का अधिकार है. यह निर्णय शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ.
शिक्षा का मौलिक अधिकार और संविधान संशोधन अधिनियम
42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) के अनुसार, शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया गया. समवर्ती सूची पर केंद्रीय और राज्य दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं. परंतु गतिरोध की स्थिति में केंद्र का कानून सर्वोच्च होता है. वर्ष 1990 में राममूर्ति समिति ने शिक्षा के अधिकार का दस्तावेज तैयार किया. सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में अनुच्छेद-21, जीवन के अधिकार से जोड़ा. वर्ष 1999 की तपस मजूमदार समिति ने इसे अनुच्छेद-21ए के रूप में जोड़ने की अनुसंशा की.
सार्वभौमिक शिक्षा को मूल अधिकार बनाने की मांग बढ़ने लगी. 86वां संशोधन अधिनियम, 2002, संसद द्वारा अधिनियमित किया गया . इसे 12 दिसंबर 2002 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित किया गया था, और भारत सरकार के विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा राजपत्र में प्रकाशन के माध्यम से एक अधिसूचना जारी की गई थी.
संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 21(A) के अनुसार, राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करेगा और माता-पिता या अभिभावकों का यह कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों या आश्रितों को शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करें. संस्कृत का यह श्लोक स्मरण आता है जिसका हिंदी रूपांतरण है कि वे माता-पिता शत्रु हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं देते अर्थात उन्हें शिक्षा से वंचित रखते हैं .निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, ( शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE)), भारतीय संसद द्वारा 4 अगस्त, 2009 को अधिनियमित किया गया था. UPA-2 के शासन में अधिनियम, 2009 में इस अधिकार में भी संशोधन किया गया और धारा 51 (a और k) जोड़ी गईं. इन धाराओं के अनुसार, 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए ‘शिक्षा अनिवार्य और निःशुल्क’ कर दी गई. यह अधिनियम 1 अप्रैल 2010 को लागू हुआ. भारत के संविधान के 26 जनवरी 1950 को लागू होने के 53वें वर्ष में इसके कार्यान्वयन के परिणामस्वरूप, केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिए बाध्य हैं. यह उल्लेखनीय है कि UPA-2 शासन में भारत शिक्षा के अधिकार को अनिवार्य बनाने वाला दुनिया का 135वां देश बन गया. इस अधिनियम को लागू करने के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2010 में राज्यों को 2310 अरब रुपये आवंटित किये.
निजी स्कूलों की बढ़ती संख्या ने सार्वजनिक शिक्षा के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर चिंताएँ बढ़ा दी हैं. निजी संस्थानों की संख्या में यह वृद्धि दर्शाती है कि सरकार शिक्षा में पहुँच और समानता को प्राथमिकता नहीं दे रही है. निजीकरण और उदारीकरण को लगातार बढ़ावा देकर, भारत सरकार शिक्षा में जन कल्याण के प्रति अपने दृष्टिकोण का स्पष्ट संदेश देती है. ये नीतियाँ जनहित की कीमत पर निजीकरण को बढ़ावा देती प्रतीत होती हैं. भारत के शिक्षा मंत्री ने एक चौंकाने वाला तथ्य उजागर किया है: 2019 से भर्ती की कमी के कारण देश भर में लगभग 10.6 लाख शिक्षक पद रिक्त हैं। इस चिंताजनक अंतर के कारण निजी स्कूलों की संख्या में वृद्धि हुई है जबकि सरकारी स्कूलों की संख्या लगातार घट रही है। परिणामस्वरूप, छात्रों के नामांकन पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है और अनगिनत बच्चे—विशेषकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और निम्न-आय वाले परिवारों के बच्चे—अपनी शिक्षा छोड़ रहे हैं.
शैक्षणिक वर्ष 2019-20 में, लगभग एक-चौथाई आदिवासी छात्र और एक-पाँचवाँ दलित छात्र कक्षा 9 और 10 में पढ़ाई छोड़ बैठे, जबकि “सामान्य” वर्ग के नौ में से केवल एक बच्चे को ही यही स्थिति झेलनी पड़ी। आदिवासी, अनुसूचित जाति और अन्य वंचित समूहों के बच्चों के सामने आने वाले आर्थिक संघर्ष उन्हें अपने परिवारों का भरण-पोषण करने के लिए स्कूल छोड़ने पर मजबूर करते हैं।
शिक्षा के अवसरों का यह नुकसान न केवल इन बच्चों के भविष्य को छीनता है, बल्कि उनके अधिकारों का भी उल्लंघन है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21(ई), 45, 46, 14 और 15(4) का उल्लंघन है। यह ज़रूरी है कि हम इस संकट को पहचानें और उसका समाधान करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हर बच्चे को वह शिक्षा मिले जिसका वह हकदार है.
.हमारा उद्घोष होना चाहिए ‘शिक्षा से एक भी बच्चा छूट गया,शिक्षा तंत्र टूट गया’