बात-बेबात
रेलमंत्री की यात्रियों को सौगात
विजय शंकर पांडेय
रेल मंत्री जब लोकसभा में बोले कि “भारत में ट्रेन टिकट दुनिया के मुकाबले 5-10% ही पड़ते हैं”, तो ऐसा लगा मानो उन्होंने वाकई कोई सौगात दे दिया। अगले ही पल याद आया कि अगर टिकट इतने सस्ते हैं, तो यात्रियों के धैर्य का क्या? वो तो फ्री में मिलता है—और भरपूर मात्रा में!
साहब ने किराए की तुलना तो अमेरिका-यूरोप के विकसित देशों से कर दी, लेकिन सहूलियतों पर पहुंचते-पहुंचते शायद नेटवर्क कट गया। आखिर तुलना कैसे करें? वहाँ ट्रेनें समय पर आती हैं, यहां समय का पता ट्रेन के स्टेटस से भी नहीं चलता। वहाँ प्लेटफॉर्म साफ होते हैं, यहां प्लेटफॉर्म पर इतनी भीड़ कि कभी-कभी लगता है ट्रेन ही मेहमान है और भीड़ उसका रिसेप्शन कर रही है।
सुरक्षा पर बोलते-बोलते मंत्रीजी ने शायद माइक्रोफोन म्यूट कर दिया- वरना बताना पड़ता कि विकसित देशों में ‘दरवाजे बंद होने’ की आवाज ट्रेन देती है, और हमारे यहां ‘ट्रेन के दरवाजे पर खड़े’ यात्री एक-दूसरे को चेतावनी देते हैं: “भाई, गिरना मत!”
और सबसे बड़ी बात- विकसित देश में ट्रेन लेट हो जाए तो माफी मिलती है, हमारे यहां लेट हो जाए तो ‘यहां रोज ऐसा ही होता है’ वाला आत्मिक संतोष मिलता है। हां, मंत्री जी पंक्चुअलिटी का ढिंढोरा जरूर पीटते हैं।
तो हां, मंत्रीजी सही कह रहे हैं – भारत में टिकट सच में बहुत सस्ते हैं। क्योंकि असली कीमत तो यात्री आराम, समय, सुरक्षा और उम्मीद में चुका देते हैं।

लेखक- विजय शंकर पांडेय
