नफ़रत की राजनीति और लहूलुहान समाज

नफ़रत की राजनीति और लहूलुहान समाज

धर्मेन्द्र आज़ाद

हाल ही में बांग्लादेश से एक बेहद दुखद और झकझोर देने वाली घटना सामने आई है। माइमंसिंह ज़िले में 18 दिसंबर की रात एक युवा हिंदू अल्पसंख्यक व्यक्ति को एक पगलाई हुई भीड़ ने ईशनिंदा के आरोप में बेरहमी से पीटा, उसे पेड़ से बाँधा गया और अंततः उसकी लाश को आग के हवाले कर दिया गया। यह हत्यारी भीड़ और कोई नहीं बल्कि वहीं के बहुसंख्यक मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद कुछ कट्टरपंथी और नफ़रत से भरे लोग थे। ख़बरों के अनुसार पुलिस ने 7 लोगों को गिरफ़्तार किया है, लेकिन यह घटना केवल एक आपराधिक मामला नहीं है; यह उस समाज पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है जहाँ पगलाई हुई भीड़ ने क़ानून, विवेक और इंसानियत—तीनों की हत्या कर दी। यह सिर्फ़ एक व्यक्ति की हत्या नहीं थी, बल्कि उस व्यवस्था की असफलता थी जो सबसे कमज़ोर नागरिकों—अल्पसंख्यकों—की रक्षा करने में विफल रही।

दुख की बात यह है कि यह कोई पहली घटना नहीं है। पिछले 10 वर्षों में बांग्लादेश में हिंदू समुदाय, जो वहाँ अल्पसंख्यक है, उसके विरुद्ध सैकड़ों हिंसक घटनाएँ दर्ज हुई हैं। 100 से अधिक लोगों की हत्या हुई, मंदिर तोड़े गए, घर जलाए गए और सांप्रदायिक आतंक को सोच-समझकर एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया। यह हिंसा स्पष्ट रूप से बहुसंख्यक कट्टरपंथी मुस्लिम भीड़ों द्वारा की गई, और इसे किसी भी तर्क, किसी भी आस्था या किसी भी राजनीति के सहारे सही नहीं ठहराया जा सकता। इसकी जितनी भी निंदा की जाये वह कम ही है।

लेकिन अगर हम यहीं रुक जाएँ और अपने देश की ओर न देखें, तो सच्चाई अधूरी और बेईमान रह जाएगी। भारत में पिछले 10 वर्षों की तस्वीर और भी ज़्यादा बेचैन करने वाली है। यहाँ भीड़-हत्या (मॉब लिंचिंग) और संगठित सामाजिक हिंसा ने मुसलमानों, दलितों और महिलाओं को लगातार निशाना बनाया है। मंदिर-मस्जिद, गौरक्षा-गौमाँस के नाम या फिर बढ़ती नफ़रत में जौंबी बनकर मुस्लिम समुदाय के 150 से अधिक लोगों की हत्या हुई, जहाँ हमलावर अक्सर कट्टरपंथी हिंदू बहुसंख्यक भीड़ रही। जाति आधारित हिंसा में दलित समुदाय के 600 से अधिक लोगों की जान गई, और अधिकतर मामलों में हिंदू समाज के ही प्रभुत्वशाली उच्च जाति समूहों के जातिवादी लोग ही दलितों के खून के प्यासे पाए गए। इन्ही दस सालों में इसी भारत में महिलाओं के खिलाफ़ जाति, ऑनर किलिंग और डायन-प्रथा जैसे बहानों के नाम पर 1000 से अधिक हत्याएँ हुईं—और अधिकतर मामलों में यह हिंसा केवल घरों की चारदीवारी तक सीमित नहीं रही, बल्कि समाज के बीचोंबीच, ख़ुलेआम सबकी आँखों के सामने घटित होती रही।

यहाँ पीड़ितों की पहचान बिल्कुल साफ़ है—मुसलमान, दलित और महिलाएँ। और उतनी ही साफ़ यह सच्चाई भी है कि इन अपराधों को अक्सर राजनीतिक चुप्पी, मौन सहमति या प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संरक्षण मिला, अपराधियों को नेताओं द्वारा सम्मानित’ किया गया, पार्टी में ऊँचे ओहदे दिये, जिसने अपराधियों का हौसला बढ़ाया और पीड़ितों के लिए न्याय को और दूर कर दिया। यही नहीं, कई मामलों में न्याय या तो बहुत देर से आया, या कभी आया ही नहीं—जिससे डर और असुरक्षा समाज की जड़ों में और गहराती चली गई।

पाकिस्तान की ओर देखें तो वहाँ भी पिछले 10 वर्षों में ईसाई, हिंदू और अहमदिया समुदाय जैसे अल्पसंख्यकों को ईशनिंदा के आरोपों के बाद भीड़-हत्या (लिंचिंग) का शिकार बनाया गया। इस दौरान 80 से 100 लोगों की जान गई—और वहाँ भी न्याय की राह आसान नहीं रही।

तीन देश, तीन अलग-अलग धार्मिक संदर्भ—लेकिन हिंसा का चेहरा एक ही है। बांग्लादेश में हिंदू मारे गए, पाकिस्तान में ग़ैर-मुस्लिम मारे गए, और भारत में मुसलमान, दलित और महिलाएँ मारी गईं। इससे एक बात बिल्कुल साफ़ होती है—समस्या किसी एक धर्म की नहीं है; समस्या उस सामाजिक व्यवस्था की है जहाँ ताक़तवर, उन्मादी और कट्टरपंथी भीड़ को खुली छूट मिल जाती है, और कमज़ोर इंसान सबसे आसान शिकार बन जाता है। समस्या उस मुनाफ़ाखोरी के लिये काम कर रहे सिस्टम की है जो ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, और हताशा से भरे युवाओं को सवाल पूछने की जगह नफ़रत करना सिखाता है, जो ऊपर बैठे असली ज़िम्मेदारों से ध्यान हटाकर आक्रोशित भीड़ को नीचे के कमज़ोर लोगों से लड़वा देता है।

जो लोग किसी दूसरे देश की घटना दिखाकर अपने देश में नफ़रत भड़काने और लोगों को उकसाने का काम करते हैं, वे न्याय की बात नहीं कर रहे होते। वे आने वाली हिंसा की ज़मीन तैयार कर रहे होते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि अगर एक-दूसरे को देखकर हिंसा को बढ़ावा देते रहे, तो पूरा समाज धीरे-धीरे एक बुचड़ख़ाने में बदल जाएगा। इसलिए किसी भी इंसान की हत्या पर आँसू भी एक-से होने चाहिए और निंदा भी एक-सी।

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