मंजुल भारद्वाज की कविता- कौन सी लकीर खींची है

कौन सी लकीर खींची है

मंजुल भारद्वाज

 

ना जाने हुक्मरानों ने

धर्म अधर्म की

कौन सी लकीर खींची है

ज़िंदगी नहीं

मौत को आगे बढ़ाती है

झुलस गई दिलों में मुहब्बत

नफ़रत की आग लगा दी है

ना जाने हुक्मरानों ने

कौन सी लकीर खींची है ।

बिलख रही है मासूम ज़िंदगी

पिट रहा है मेहनतकश

सरेआम अस्मत में आग लगाई है

ना जाने हुक्मरानों ने

कौन सी लकीर खींची है ।

बंद है सुनवाई

नहीं सुनी जाती फ़रियाद

महंगी या बिकी अदालत में न्याय देवी

मौत की नींद सोई है

ना जाने हुक्मरानों ने

कौन सी लकीर खींची है ।

हर चौराहे पर दुशासन कर रहा है

चीर हरण

ठहाके मार रहा है दुर्योधन

जनता पर मंडरा रहा है

मौत का तांडव

रणभेरी बज चुकी है कुरुक्षेत्र में

सुकून से सिंहासन पर बैठा धृतराष्ट्र

अपने पुत्र की विजय कामना लिए

संजय से आंखो देखा हाल सुन रहा है

चीख रही है गांधारी

पुकार रही है कृष्ण को

पर कृष्ण मौन है

ना जाने हुक्मरानों ने

धर्म अधर्म की

कौन सी लकीर खींची है!

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