मंजुल भारद्वाज की कविता -शहर की बालकनी में सजे बोनसाई

शहर की बालकनी में सजे बोनसाई

-मंजुल भारद्वाज

 

सपनों पर सवार

दिल में गाँव लिए

शहर की ओर

नौजवान चले पड़े

मज़दूर चल पड़े !

 

पढ़े लिखे दफ़्तर में

बाबू बन सिमट गए

मज़दूर पूरे शहर में

पसर गए !

 

दूध,सब्ज़ी

धोबी इस्त्री

गोल गप्पा

पानी पूरी

भेल पूरी

दरबान

पहलवान

सब बन गए !

 

ऊँची ऊँची अट्टारी बना

ख़ुद गटर पर बनी

झोपड़ियों में सिमट गए !

 

माँ बाप बीवी

गाँव में रह गए

कई आते जाते रहे

कई यहीं बस गए !

 

दूसरी,तीसरी पीढ़ी का

पलायन लगातार जारी है !

 

हाँ बाबू का कद ऊँचा हो गया है

वो मुनीम नहीं अब

शहर में पढाई कर

कलेक्टर और पुलिस

अधीक्षक बन रहे हैं !

 

चंद पत्रकारिता में

अपना लोहा मनवा रहे हैं

पर सबके सब अपनी

जड़ों से उखड़े हुए

वो पेड़ है

जो फल,फूल,छाया

सब होने के बावजूद

जमीन रहित

शहर की बालकनी में सजे

बोनसाई हैं !

 

पहचान सिर्फ़ भीड़ है

भगदड़ दिनचर्या है !

 

कहीं सिरदर्द

बढ़ा रक्तचाप

मधुमेह की बीमारी है !

 

बच्चे बड़े हो अमेरिका

यूरोप की तरफ़ निकल लिए

आज ग्लोबल नागरिक हो गए !

 

ढलती उम्र में

गाँव की चढ़ी खुमारी है

वो आंगन,खेत,मेढ़

कुएं,नदी,तालाब

बेरी के पेड़

आम के बाग़

अमरुद का स्वाद

मक्खन वाला पराठा

लस्सी का ग्लास

लिट्टी चोखा

सरसों का साग़ अनोखा

कुदा की रोटी

छेंमी की दाल

पहाड़ पर गुलदार का खौफ़

झरनों का शोर

भैंस का गोबर

गाय का मूत्र

तांगे की टक टक

बैलों की जोड़ी

बैलगाड़ी

चौपाल का हुक्का

हाथ,पाँव और मुक्का

बस

एक प्रवासी की याद है !

 

एक फ़रियाद है

काश हमारा गाँव

आत्म निर्भर होता तो ?

शहर ना आना पड़ता !

 

अपने गाँव को उजाड़ने का

अपराध बोध है

इसलिए हर शख्स

इस शहर में

परेशान सा है !