कविता
वह तैयार है
मनजीत मानवी
इतिहास के पन्नों पर
सत्ता का दंभ लिए
श्रेष्ठता की शाही से
अनेक ग्रंथ लिखे तुमने
परंपरा की दुहाई देकर
अनेक प्रपंच रचे
और बना दिया देवी उसे
बैठा दिया कहीं हाथ में फ़ूल
कहीं तलवार देकर
पूजा के मूक सिंहासन पर
पर यह क्या
यह देवी तो बोलने लगी
हंसने लगी, गाने लगी
और तो और
ज़बान भी लड़ाने लगी
तर्क भी करने लगी
बैठकों, सम्मेलनों में जाने की
अपनी असहमति दर्ज़ करवाने की
लत भी लग गई उसे
अब यह तो अति हो चुकी थी
भला जिसने बोलना सिखाया
उसी को गालियां देने लगी
आए दिन उल्टी -सीधी
मांग भी करने लगी
यह तो तुम्हारी उदारता का
सरासर अपमान था
अब अनिवार्य था पलटना
अपने हाथों से गढ़ा
इस निर्लज्ज देवी का सिंहासन
आदेश की अवहेलना पर वरना
कैसे देते भला इसे पाप का दंड
कैसे सिखाते हर सूरत में
अनुपालन का सबक
गोया नए सिरे से
पुनः लिखी गई कहानियाँ
नए मिथक गढ़े
नए प्रपंच रचे
सीने में प्रतिशोध की ज्वालाभरी
और बना दिया उसे
कुल्टा, पतिता, व्याभिचारिणी
जी भर के सज़ा दी
पत्थर फेंके, कौड़े बरसाए
बाल मुंडवाये, मुँह काला किया
निर्वस्त्र कर गली गाँव में घुमाया
भरी सभा में चीर हरण किया
बीच चौराहे पर बलात्कार
भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या
विस्थापन, देश-निकाला
क्या क्या न सहा
पर वह बनी रही
कल भी आज भी
साधारण सी दिखने वाली
एक अद्भुत स्त्री
ज़िंदा रहेगी वह कयामत तक
इरादों की उर्वर ज़मी
और संभावनाओं का गगन लिए
गिरती रहेगी, बढ़ती रहेगी
अब क्या करोगे तुम
वह तैयार है हर सज़ा के लिए
हर अपमान के बाद उठने के लिए
हर तमस को सितारे में बदलने के लिए!!!